Wednesday, December 7, 2016

सिकुड़ाव दुख है, फैलाव आनंद है

सिकुड़ाव दुख है, फैलाव आनंद है।

इसलिए हमने ब्रह्म को आनंद कहा। ब्रह्म का मतलब है, जो फैलता ही चला जाता है। ब्रह्म और विस्तार एक ही शब्द से बने हैं। जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, वह ब्रह्म है। इसलिए हमने उसे आनंद कहा। जो सिकुड़ता ही चला जाता है, क्षुद्र होता चला जाता है, गांठ बनती चली जाती है, वह दुख है।

कभी आपने खयाल किया, जब भी आप दुखी होते हैं, तो आप चाहते हैं–कोई मिले भी ना; अकेले में बैठ जाएं, द्वार बंद कर लें। लेकिन जब आप आनंद से भरते हैं, तब? तब आप द्वार बंद नहीं करना चाहते। तब आप इकट्ठा कर लेना चाहते हैं प्रियजनों को, मित्रों को, अपरिचित हों तो उनको भी! आनंद से आप भरते हैं, तो आप बांटना चाहते हैं, फैलना चाहते हैं। दूसरे भी सहयोगी हो जाएं आपके आनंद उत्सव में, यह चाहते हैं।

आनंद में एक फैलाव है। आप फैलें, तो आनंद मिलता है। आनंद मिले तो आप फैलते हैं। दुख में सिकुड़ाव है। दुखी आदमी बंद हो जाता है कोठरी में भीतर। दुखी आदमी कभी आत्महत्या भी कर लेता है, तो उसकी आत्महत्या आखिरी उपाय है, जिसमें वह दूसरों से बिलकुल ही अलग हो जाए। आनंदित आदमी ने आज तक आत्महत्या नहीं की। आनंदित आदमी आत्महत्या कर ही नहीं सकता; क्योंकि आनंदित आदमी तो दूसरों से जुड़ना चाहता है, विराट से एक हो जाना चाहता है।

   समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लावट्स्‍की) प्रवचन–5

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