Saturday, November 19, 2016

जिस से प्रेम किया उसी से दुख पाया है

तुमने भी इस जीवन में बहुत पीड़ा पायी है
जिस से प्रेम किया उसी से दुख पाया है—किस और से दुख पाओगे?

दुख तो पाया जाता उसी से जिससे हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उसी से हम आशा करते हैं, उसी से आशा भी टूटती है;उसी से आकांक्षा करते हैं, उसी से आकांक्षा उखड़ती है;उसी से हमारी अपेक्षाएं होती हैं, उसी से विषाद आता है।
तुमने देखा अजनबी से तुम्हें कभी दुखी नहीं होता। क्यों होगा? दुख तो अपनों से होता है, क्योंकि अपनों से अपेक्षा लगी होती है। कुछ तुम चाहते थे और वैसा नहीं हुआ। राह चलता कोई तुम्हारा एक छोटा सा काम कर देता है तो तुम अनुग्रह से भर जाते हो, क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी जीवनभर से सेवा कर रही है, तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। धन्यवाद देना बेहूदा भी लगेगा—अपनों को कोई धन्यवाद देता है! परायों को ही हम धन्यवाद देते हैं। धन्यवाद का मतलब ही इतना है कि अपेक्षा न थी और तुमने किया। जिससे अपेक्षा है उस पर हम नाराज होते हैं, धन्यवाद नहीं देते। जितनी अपेक्षा थी उतना न किया तो नाराज होते है। कोई बेटा अपनी मां को धन्यवाद देता है? कोई मां अपने बेटे को धन्यवाद देती है? यह बात ही नहीं उठती। हां, शिकायतें चलती हैं;नाराजगियां होती हैं, क्रोध होता है। तो हर आदमी जला हुआ है, और हर आदमी के फफोले पड़े हुए हैं। और तुमने कहावत सुनी है न— ‘दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है। ‘ तो तुम्हारा भी अनुभव तुम से यही कहता है —तुम्हारा भी विश्लेषण बहुत गहरा नहीं है, तुमने भी जीवन को बहुत उसकी गहराइयों में न समझा है, न परखा है;तुम्हारी आखें भी बहुत पारदर्शी नहीं है—तो जब तुम्हारा महात्मा तुमसे कहता है कि यह सब राग का ही फल है, तुम को भी बात जंचती है, गणित बैठता है कि बात तो ठीक ही है, मैं भी राग में पड़ा हूं इसलिए दुख भोग रहा हूं। तो रोग के कीटाणु तुम लेने को तत्पर हो जाते हो।
शांडिल्य तुम्हारे लिए बड़े क्रांति के सूत्र दे रहे हैं। शांडिल्य कह रहे है —राग से नहीं कोई दुख पाता। कह दो अपने महात्माओं को कि तुमने राग से दुख नहीं पाया, गलत से राग लगाया था उससे दुख पाया। अब तुम दूसरी गलती कर रहे हो कि तुमने राग ही छोड़ दिया। एक आदमी अपने पैरों से चलकर वेश्यालय गया, निश्चित ही पैर न होते तो कैसे जाता, पैरों से ही गया। फिर वेश्यालय में बहुत दुख पाया, बहुत अवमानना झेली, बहुत जीवन को दूषित बना डाला, क्रोध में अपने पैर काट डाले, क्योंकि ये पैर वेश्यालय ले गए थे। लेकिन ये पैर मंदिर भी ले जाते, इनसे ही तीर्थयात्रा भी होती। यह जो पैर काटकर बैठ गया है, इसको तुम महात्मा कहते हो। क्योंकि यह कहता है—पैर वेश्यालय ले गए थे, जुआघर ले गए थे, शराबघर ले गए थे, इन पैरों पर बहुत नाराज था, इसने पैर काट डाले। इसको तुम पागल कहोगे न! इसको तुम महात्मा तो नहीं कहोगे। इस आदमी ने पहले भी मूढ़ताएं कीं और अब महामूढ़ता कर रहा है, क्योंकि जो वेश्यालय तक जा सकता है, वह मंदिर तक जाने में समर्थ है। जो शराबघर तक जा सकता है, वह स्वर्ग तक जा सकता है। पैर हैं, जो नर्क की यात्रा कर सकता है, उसको स्वर्ग की यात्रा में कौन सी बाधा है? रुख बदलना है, दिशा बदलनी है; बाएं न चले, दाएं चले, बस इतना ही फर्क करना है। पैर तो वही हैं, सीढ़ी तो वही है, नीचे न गये, ऊपर गये। उसी सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, उसी से नीचे जाते हो, सीढ़ी थोड़े ही तोड़ देते हो इसलिए कि नीचे ले जाती है? जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही ऊपर नहीं ले जाती? सिर्फ दिशा बदलनी होती है।
शांडिल्य कहते हैं—दिशा बदलों।

ओशो

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