Tuesday, November 29, 2016

ओशो का जीवन परिचय



11 दिसंबर 1931 को जब मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (रायसेन जिला) में ओशो का जन्म हुआ तो कहते हैं कि पहले तीन दिन न वे रोए, न दूध ‍पिया। उनकी नानी ने एक ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्‍भुत थी। कुंडली पढ़ने के बाद ज्योतिषी ने कहा- 'यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी पूर्ण कुंडली बनाऊँगा- क्योंक‍ि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है। ज्योतिष ने साथ ही यह भी कहा था कि 7 वर्ष की उम्र में बच गया तो 21 में मरना तय है, लेकिन यदि 21 में भी बच गया तो यह विश्व विख्यात होगा।'
सात वर्ष की उम्र में ओशो के नाना की मृत्यु हो गई तब ओशो अपने नाना से इस कदर जुड़े थे कि उनकी मृत्यु उन्हें अपनी मृत्यु लग रही थी वे सुन्न और चुप हो गए थे लगभग मृतप्राय। लेकिन वे बच गए और सात वर्ष की उम्र में उन्हें मृत्यु का गहरा अनुभव हुआ। 14 वर्ष की उम्र में उनके शरीर पर एक जहरिला सर्प बहुत देर तक लिपटा रहा। फिर 21 वर्ष की उम्र में उनके शरीर और मन में जबरदस्त परिवर्तन होने लगे उन्हें लगा कि वे अब मरने वाले हैं तो एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, जहाँ उन्हें संबोधि घटित हो गई।
ओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनर्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। ओशो की नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। ओशो कहते हैं-
'आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। यह जीवन से भगोड़ापन है, और आसान भी है। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती आई है। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा है। वह सन्यास आसान है क्योंकि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे-सन्यास के मौलिक रूप में।'
ओशो सरस संत और प्रफुल्ल दार्शनिक हैं। उनकी भाषा कवि की भाषा है उनकी शैली में हृदय को द्रवित करने वाली भावना की उच्चतम ऊँचाई भी है और विचारों को झँकझोरने वाली अकूत गहराई भी। उनकी गहराई का जल दर्पण की तरह इतना निर्मल है कि तल को देखने में दिक्कत नहीं होती। उनका ज्ञान अँधकूप की तरह अस्पष्ट नहीं है। कोई साहस करे, प्रयोग करे तो उनके ज्ञान सरोवर के तल तक सरलता से जा सकता है।
ओशो ने जीवन में कभी कोई किताब नहीं लिखी। मगर दुनिया भर में हुए संतों और अध्यात्मिक गुरुओ की श्रृंखला में वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनका बोला गया एक-एक शब्द प्रिंट, ऑडिओ और वीडिओ में उपलब्ध है। आज ओशो एक ऐसी शख्सियत हैं जिनको दुनिया भर में सबसे अधिक पढ़ा जाता हैं। उनकी किताबों का सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
महान दार्शनिक- विचारक ओशो ने प्रचलित धर्मों की व्याख्या की और व्यक्ति को उसकी अपनी आंतरिक क्षमता से अवगत कराया है और बुद्धत्व का पथ प्रशस्त किया है। उन्होंने आदमी की पिच्छलग्गू प्रवृत्ति को ललकारा और उसकी अदम्य, अनंत ऊर्जा शक्ति को उजागर करके उसे एक गौरव दिया। दुनिया को एकदम नए विचारों से बौद्धिक जगत को हिला देने वाले, भारतीय गुरु ओशो से अमेरिकी सरकार इस कदर प्रभावित हुई कि भय से ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया था।
ओशों की पुस्तकों के लिए दुनिया की 54 भाषाओं में 2567 प्रकाशन करार हुए हैं। ओशो साहित्य की सालाना बिक्री तीस लाख प्रतियों तक होती है। ओशो की पुस्तकों का पहला मुद्रण 25 हजार तक होना मामूली बात है। ओशो की पुस्तक 'जीवन की अभिनव अंतदृष्टि' सारी दुनिया में बेस्ट सेलर साबित हुयी है। वियतनाम और इंडोनेशिया में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पूरे देश में आज पूना (जहाँ ओशो का आश्रम है) एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ से सबसे अधिक कोरियर और डाक विदेश जाती है।

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