मुझसे लोग कहते हैं कि आप गरीबों के लिए क्यों नहीं कुछ करते? यहां आपके आश्रम में गरीब के लिए प्रवेश नहीं मिल पाता।
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ओशो―
उसके पीछे कारण हैं।
गरीब जब भी मेरे पास पहुंच जाता है तभी मैं अपने को असहाय पाता हूं; क्योंकि मैं जो कर सकता हूं, वह उसकी मांग नहीं है। जो वह चाहता है, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। हमारे बीच सेतु निर्मित नहीं हो पाता। एक गरीब आदमी आता है। वह कहता है कि मुझे नौकरी नहीं है। वह ध्यान की बात ही नहीं पूछता। उसको प्रार्थना से कुछ लेना-देना नहीं है। वह मेरा आशीर्वाद चाहता है कि नौकरी मिल जाए।
अब मेरे आशीर्वाद से अगर नौकरी मिलती होती तो मैं एक दफा सभी को आशीर्वाद दे देता। इसको बार-बार करने की क्या जरूरत थी? मेरे आशीर्वाद से कुछ मिल सकता है, लेकिन वह नौकरी नहीं है। वह तुम्हारी मांग नहीं है। तब मैं बड़े पेशोपस में पड़ जाता हूं।
कोई आ जाता है कि बीमार है, आशीर्वाद दे दें!
बीमार को अस्पताल जाना चाहिए। उसको मेरे पास आने का कोई कारण नहीं है; उसको इलाज की जरूरत है। जब भी गरीब आदमी आता है तो मैं पाता हूं कि उसकी कोई चिंतना धार्मिक है ही नहीं। वह मेरे पास आना भी चाहता है तो इसलिए आना चाहता है।
कभी-कभी कोई धनी आदमी आता है तो उसकी चिंतना धार्मिक होती है। वह भी कभी-कभी। तब वह कभी पूछता है कि मन अशांत है, क्या करूं? गरीब आदमी पूछता ही नहीं कि मन अशांत है। मन का अशांत होना एक खास विकास के बाद होता है। अभी पेट अशांत है; अभी मन को अशांत होने का उपाय भी नहीं है। पेट भर जाए तो मन अशांत होगा। मन भर जाए तो आत्मा बेचैन होगी। असल में, जब आत्मा बेचैन हो तभी मेरे पास आने का कोई अर्थ है। आत्मा बेचैन हो तो मेरे आशीर्वाद से कुछ हो सकता है, मेरे निकट होने से कुछ हो सकता है। जो मैं तुम्हें दे सकता हूं, वह धन और है। जो धन तुम मांगते हो, वह मेरे पास नहीं।
तो गरीब आदमी जैसे ही पास आता है, मुझे बड़े पेशोपस में डाल देता है कि करो क्या? उसकी पीड़ा मैं समझता हूं। उसकी कठिनाई मुझे साफ है; उससे भी ज्यादा साफ है जितनी उसे साफ है। क्योंकि मैं जानता हूं कि कितनी दयनीय दशा है कि एक आदमी कह रहा है कि मुझे नौकरी नहीं है! यह कितनी कष्टपूर्ण दशा है कि एक आदमी बीमार है और इलाज का इंतजाम नहीं जुटा पा रहा है! तभी तो वह मेरे पास आया है, नहीं तो वह अस्पताल जाता। उसकी आकांक्षा बड़े क्षुद्र की है। वह सुई मांगने आया है; मैं इधर तलवार देने को तैयार हूं। लेकिन उसका क्या प्रयोजन है? वह कहता है, कपड़े फटे हैं, सुई मिल जाए तो मैं सी लूं। मैं उसे तलवार भी दे दूं तो वह क्या करेगा? कपड़े और फाड़ लेगा। तलवार से तो कोई कपड़े सीए नहीं जाते।
गरीब आदमी के मन में धर्म का विचार ही नहीं उठ पाता। अपवाद छोड़ दें। कभी सौ में एक आदमी गरीब होकर भी धार्मिक हो सकता है; लेकिन उसके लिए बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। अमीर आदमी बिना बुद्धि के भी धार्मिक हो सकता है; गरीब आदमी को बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। गरीब आदमी को इतनी बुद्धिमत्ता चाहिए कि जो उसके पास नहीं है, उसकी व्यर्थता को समझने की क्षमता चाहिए।
अब बड़ा मुश्किल है! जो तुम्हारे पास है, उसकी व्यर्थता तक नहीं दिखाई पड़ती; तो जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी व्यर्थता तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगी? जिनके पास महल हैं, उन्हें नहीं दिखाई पड़ता कि महलों में कुछ नहीं है, तो तुम्हारे पास तो महल हैं नहीं, तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा कि महलों में कुछ नहीं है?
इसलिए अपवाद। कभी सौ में एक प्रतिभावान व्यक्ति बिना महलों में गए, सिर्फ विचार से समझ लेता है कि वहां कुछ नहीं है; बिना धन पाए समझ लेता है कि धन में कुछ सार नहीं है; बिना पद पाए समझ लेता है कि पद में कुछ है नहीं। कहते तो बहुत लोग हैं यह। गरीब कहते हैं अक्सर कि क्या रखा धन में! मगर यह संतोष के लिए कहते हैं। यह उनकी समझ नहीं है; यह सांत्वना है। ऐसा वे अपने मन को समझाते हैं कि रखा ही क्या है!
यह वही हालत है जो लोमड़ी ने अंगूर की तरफ छलांग मार कर अनुभव की थी। अंगूर तक नहीं पहुंच सकी, फासला बड़ा था। चारों तरफ उसने देखा कि कोई देख तो नहीं रहा, क्योंकि बेइज्जती का सवाल था। एक खरगोश झांक रहा था। उस खरगोश ने कहा, क्यों मौसी, क्या मामला है? उस लोमड़ी ने कहा, मामला कुछ नहीं; अंगूर खट्टे हैं। छलांग छोटी है, इसे कहने में तो अहंकार को चोट लगती है। अंगूर खट्टे हैं, छलांग की जरूरत ही नहीं; बेकार सोच कर छोड़ दिए हैं।
बहुत से गरीब आदमी कहते मिलेंगे: क्या रखा धन में! क्या रखा महलों में! क्या रखा पदों में! इससे यह मत समझ लेना कि समझ आ गई है। यह तो सिर्फ सांत्वना है। यह तो गरीब को अपने मन को समझाने का उपाय है। जो पाया नहीं जा सकता, उसमें कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए तो हम नहीं पा रहे हैं, नहीं तो कभी का पाकर बता देते, यह वह कह रहा है। वह कह रहा है, अंगूर खट्टे हैं!
लेकिन जब कभी गरीब आदमी को वस्तुतः समझ होती है। ऐसा हो जाता है क्योंकि अनंत जन्मों से समझ संगृहीत होती है। किसी जन्म में तुम अमीर भी रहे हो, महलों में भी रहे हो, बड़े सुख जाने हैं। तो उस सबसे संगृहीत समझ के आधार पर कभी कोई गरीब भी धार्मिक हो सकता है। अन्यथा गरीब आदमी की आकांक्षा धार्मिक तक पहुंच नहीं पाती। उसकी छलांग छोटी है। उसकी मांग छोटी चीजों की है।
अब मेरी तकलीफ तुम समझ सकते हो। तकलीफ यह है कि मैं उसे कुछ देना चाहूं, जरूर देना चाहूं; लेकिन जो मैं देना चाहता हूं, वह उसके काम का नहीं है। जो वह मांगने आया है, वह न तो मेरे पास है, न देने योग्य है, न मांगने योग्य है। लेकिन उसकी समझ तो उसे तभी आएगी जब वह गुजर जाए जीवन के अनुभव से।
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