Saturday, November 19, 2016

तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो

_*तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो*_

तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तो तुम कहते हो: "स्वर्ण काया! सोने की देह! स्वर्ग की सुगंध!' तुम्हारे कहने से कुछ फर्क न पड़ेगा। गर्मी के दिन करीब आ रहे हैं पसीना बहेगा, स्त्री के शरीर से भी दुर्गंध उठेगी। तब तुम लाख कहो "स्वर्ग की सुगंध,' तुम्हारे सपने को तोड़कर भी पसीने की बास ऊपर आएगी। तब तुम मुश्किल में पड़ोगे कि धोखा हो गया। और शायद तुम यह कहोगे, इस स्त्री ने धोखा दे दिया। क्योंकि मन हमेशा दूसरे पर दायित्व डालता है, कहेगा, यह स्त्री इतनी सुंदर न थी जितना इसने ढंग ढौंग बना रखा था। यह स्त्री इतनी स्वर्ण काया की न थी जितना इसने ऊपर से रंग रोगन कर रखा था। वह सब सजावट थी, शृंगार था भटक गए, भूल में पड़ गए।

स्त्री भी धीरे धीरे पाएगी कि तुम साधारण पुरुष हो और जो उसने देवता देख लिया था तुममें, वह जैसे जैसे खिसकेगा, वैसे वैसे पीड़ा और अड़चन शुरू होगी। और वह भी तुम पर ही दोष फेंकेगी कि जरूर तुमने ही कुछ धोखा दिया है, प्रवंचना की है। और जब ये दो प्रवंचनाएं प्रतीत होंगी कि एक—दूसरे के द्वारा की गई हैं तो कलह, संघर्ष, वैमनस्य, शत्रुता खड़ी होगी। तुम्हारा मन किसी और स्त्री की तरफ डोलने लगेगा। तुम नई खूंटी तलाश करोगे। स्त्री का मन किसी और पुरुष की तरफ डोलने लगेगा। वह किसी नई खूंटी तलाश करेगी।

इसी तरह तुम जन्मों जन्मों से करते रहे हो। लाखों खूंटियों पर तुमने सपना डाला। लाखों खूंटियों पर तुमने अपनी वासना टांगी। लेकिन अब तक तुम जागे नहीं और तुम यह न देख पाए कि सवाल खूंटी का नहीं है; सवाल कामिनी का नहीं है; काम का है। यह तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो। लेकिन जब तक समझोगे न, समेटोगे कैसे? भागना कहीं भी नहीं है; तुम जहां हो वहीं ही अपने मन की वासनाओं के जाल को समेट लेना है। जैसे सांझ मछुआ अपने जाल को समेट लेता है, ऐसे ही जब समझ की सांझ आती है, जब समझ परिपक्व होती है, तुम चुपचाप अपना जाल समेट लेते हो। वह तुमने ही फैलाया था, कोई दूसरे का हाथ नहीं है। कोई दूसरा तुम्हें भटका नहीं रहा है।

 

सोने का क्या कसूर है? तुम नहीं थे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा था। तुम्हारी प्रतीक्षा भी नहीं की थी उसने। तुम नहीं रहोगे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा रहेगा।

सुनो भई साधो 

ओशो 

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