Wednesday, November 30, 2016

एक तनावग्रस्त आदमी प्रेम नहीं कर सकता है। क्यों?

एक तनावग्रस्त आदमी प्रेम नहीं कर सकता है। क्यों? क्योंकि तनावग्रस्त आदमी सदा उद्देश्य से, प्रयोजन से जीता है। वह धन कमा सकता है, लेकिन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकि प्रेम प्रयोजन—रहित है। प्रेम कोई वस्तु नहीं है। तुम उसे संगृहीत नहीं कर सकते, तुम उसे बैंक—खाते में नहीं रख सकते हो। तुम उससे अपने अहंकार की पुष्टि नहीं कर सकते हो। सच तो यह है कि प्रेम सब से अर्थहीन काम है; उससे आगे उसका कोई अर्थ नहीं है,उससे आगे उसका कोई प्रयोजन नहीं है। प्रेम अपने आप में जीता है, किसी अन्य चीज के लिए नहीं।

तुम धन कमाते हो—किसी प्रयोजन से। वह एक साधन है। तुम मकान बनाते हो—किसी के रहने के लिए। वह भी एक साधन है। प्रेम साधन नहीं है। तुम क्यों प्रेम करते हो? किसलिए प्रेम करते हो?

प्रेम अपना लक्ष्य आप है। यही कारण है कि हिसाब—किताब रखने वाला मन, तार्किक मन, प्रयोजन की भाषा में सोचने वाला मन प्रेम नहीं कर सकता। और जो मन प्रयोजन की भाषा में सोचता है वह तनावग्रस्त होगा। क्योंकि प्रयोजन भविष्य में ही पूरा किया जा सकता है, यहां और अभी नहीं।

तुम एक मकान बना रहे हो, तुम उसमें अभी ही नहीं रह सकते। पहले बनाना होगा। तुम भविष्य में उसमें रह सकते हो, अभी नहीं। तुम धन कमाते हो, बैंक बैलेंस भविष्य में बनेगा, अभी नहीं। अभी साधन का उपयोग कर सकते हो, साध्य भविष्य में आएंगे।

प्रेम सदा यहां है और अभी है। प्रेम का कोई भविष्य नहीं है। यही वजह है कि प्रेम ध्यान के इतने करीब है। यही वजह है कि मृत्यु भी ध्यान के इतने करीब है। क्योंकि मृत्यु भी यहां और अभी है, वह भविष्य में नहीं घटती।

क्या तुम भविष्य में मर सकते हो? वर्तमान में ही मर सकते हो। कोई कभी भविष्य में नहीं मरा। भविष्‍य में कैसे मर सकते हो? या अतीत में कैसे मर सकते हो? अतीत जा चुका, वह अब नहीं है। इसलिए अतीत में नहीं मर सकते। और भविष्य अभी आया नहीं है, इसलिए उसमें कैसे मरोगे?

मृत्यु सदा वर्तमान में होती है। मृत्यु, प्रेम और ध्यान, सब वर्तमान में घटित होते हैं। इसलिए अगर तुम मृत्यु से डरते हो तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर तुम मृत्यु से भयभीत हो तो तुम ध्यान नहीं कर सकते। और अगर तुम ध्यान से डरे हो तो तुम्हारा जीवन व्यर्थ होगा। किसी प्रयोजन के अर्थ में जीवन व्यर्थ नहीं होगा, वह व्यर्थ इस अर्थ में होगा कि तुम्हें उसमें किसी आनंद की अनुभूति नहीं होगी। जीवन अर्थहीन होगा।

इन तीनों कों—प्रेम, ध्यान और मृत्यु कों—स्थ साथ रखना अजीब मालूम पड़ेगा। वह अजीब है नहीं। वे समान अनुभव हैं। इसलिए अगर तुम एक में प्रवेश कर गए तो शेष दो में भी प्रवेश पा जाओगे।

                                            
Osho

Tuesday, November 29, 2016

जब दुख हो तब क्या करें

जब दुख हो, द्वार बंद कर लें। दिल खोलकर रोएँ, पीटें, छाती पीटें, जो भी करना हो करें। किसी दूसरे पर न निकालें।

हम दुख भी दूसरे पर निकालते हैं। इसलिए अगर लोगों की चर्चा सुनो तो लोग अपने दुख एक-दूसरे को सुनाते रहते हैं -- यह निकालना है। लोगों की चर्चा का नब्बे प्रतिशत दुखों की कहानी है। अपनी बीमारियाँ, अपने दुख, अपनी तकलीफें दूसरे पर निकाल रहे हैं।

मन -- लोग कहते हैं, कह देने से हल्का हो जाता है! आपका हो जाता होगा, दूसरे का क्या होता है, इसका भी तो सोचें। आप हल्के होकर घर आ गए, और उनको जिनको फँसा आए आप!

इसलिए लोग दूसरे के दुख की बातें सुनकर भी अनसुनी करते हैं, क्योंकि वे अपना बचाव करते हैं। आप सुना रहे हैं, वे सुन रहे हैं, लेकिन सुनना नहीं चाहते।

जब आपको लगता है कि कोई आदमी बोर कर रहा है तो उसका कुल मतलब इतना ही होता है कि वह कुछ सुनाना चाह रहा है, निकालना चाह रहा है, हल्का होना चाह रहा है और आप भारी होना नहीं चाह रहे हैं। आप कह रहे हैं, क्षमा करो। या यह हो सकता है कि आप खुद ही उसको बोर करने का इंतजाम किए बैठे थे, वह आपको कर रहा है।

दुख भी दूसरे पर मत निकालें। दुख को भी एकांत ध्यान बना लें। क्रोध भी दूसरे पर मत निकालें, एकांत ध्यान बना लें। शून्य में होने दें विसर्जन और जागरूक रहें, होशपूर्वक।

आप थोडे दिन में ही पाएँगे कि एक नई जीवन-दिशा मिलनी शुरू हो गई, एक नया आयाम खुल गया। दो आयाम थे अब तक -- दबाओ या निकालो। अब एक तीसरा आयाम मिला, विसर्जन।

यह तीसरा आयाम मिल जाए तो ही आपका होश सधेगा, और होश से अस्त-व्यस्तता न आएगी। और जीवन ज्यादा शांत, ज्यादा मौन, ज्यादा मधुर हो जाएगा।

प्यारे ओशो
'महावीर वाणी'
प्रवचन 37 का एक अंश

ओशो का जीवन परिचय



11 दिसंबर 1931 को जब मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (रायसेन जिला) में ओशो का जन्म हुआ तो कहते हैं कि पहले तीन दिन न वे रोए, न दूध ‍पिया। उनकी नानी ने एक ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्‍भुत थी। कुंडली पढ़ने के बाद ज्योतिषी ने कहा- 'यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी पूर्ण कुंडली बनाऊँगा- क्योंक‍ि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है। ज्योतिष ने साथ ही यह भी कहा था कि 7 वर्ष की उम्र में बच गया तो 21 में मरना तय है, लेकिन यदि 21 में भी बच गया तो यह विश्व विख्यात होगा।'
सात वर्ष की उम्र में ओशो के नाना की मृत्यु हो गई तब ओशो अपने नाना से इस कदर जुड़े थे कि उनकी मृत्यु उन्हें अपनी मृत्यु लग रही थी वे सुन्न और चुप हो गए थे लगभग मृतप्राय। लेकिन वे बच गए और सात वर्ष की उम्र में उन्हें मृत्यु का गहरा अनुभव हुआ। 14 वर्ष की उम्र में उनके शरीर पर एक जहरिला सर्प बहुत देर तक लिपटा रहा। फिर 21 वर्ष की उम्र में उनके शरीर और मन में जबरदस्त परिवर्तन होने लगे उन्हें लगा कि वे अब मरने वाले हैं तो एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गए, जहाँ उन्हें संबोधि घटित हो गई।
ओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनर्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। ओशो की नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। ओशो कहते हैं-
'आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। यह जीवन से भगोड़ापन है, और आसान भी है। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती आई है। वह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा है। वह सन्यास आसान है क्योंकि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे-सन्यास के मौलिक रूप में।'
ओशो सरस संत और प्रफुल्ल दार्शनिक हैं। उनकी भाषा कवि की भाषा है उनकी शैली में हृदय को द्रवित करने वाली भावना की उच्चतम ऊँचाई भी है और विचारों को झँकझोरने वाली अकूत गहराई भी। उनकी गहराई का जल दर्पण की तरह इतना निर्मल है कि तल को देखने में दिक्कत नहीं होती। उनका ज्ञान अँधकूप की तरह अस्पष्ट नहीं है। कोई साहस करे, प्रयोग करे तो उनके ज्ञान सरोवर के तल तक सरलता से जा सकता है।
ओशो ने जीवन में कभी कोई किताब नहीं लिखी। मगर दुनिया भर में हुए संतों और अध्यात्मिक गुरुओ की श्रृंखला में वे एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिनका बोला गया एक-एक शब्द प्रिंट, ऑडिओ और वीडिओ में उपलब्ध है। आज ओशो एक ऐसी शख्सियत हैं जिनको दुनिया भर में सबसे अधिक पढ़ा जाता हैं। उनकी किताबों का सबसे ज्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
महान दार्शनिक- विचारक ओशो ने प्रचलित धर्मों की व्याख्या की और व्यक्ति को उसकी अपनी आंतरिक क्षमता से अवगत कराया है और बुद्धत्व का पथ प्रशस्त किया है। उन्होंने आदमी की पिच्छलग्गू प्रवृत्ति को ललकारा और उसकी अदम्य, अनंत ऊर्जा शक्ति को उजागर करके उसे एक गौरव दिया। दुनिया को एकदम नए विचारों से बौद्धिक जगत को हिला देने वाले, भारतीय गुरु ओशो से अमेरिकी सरकार इस कदर प्रभावित हुई कि भय से ने उन्हें गिरफ्तार करवा दिया था।
ओशों की पुस्तकों के लिए दुनिया की 54 भाषाओं में 2567 प्रकाशन करार हुए हैं। ओशो साहित्य की सालाना बिक्री तीस लाख प्रतियों तक होती है। ओशो की पुस्तकों का पहला मुद्रण 25 हजार तक होना मामूली बात है। ओशो की पुस्तक 'जीवन की अभिनव अंतदृष्टि' सारी दुनिया में बेस्ट सेलर साबित हुयी है। वियतनाम और इंडोनेशिया में इसकी दस लाख से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं। पूरे देश में आज पूना (जहाँ ओशो का आश्रम है) एकमात्र ऐसा शहर है जहाँ से सबसे अधिक कोरियर और डाक विदेश जाती है।

स्वामी और माँ शब्द की अति गहन करूणा- वास्तविक अर्थ

ओशो ने अपने सन्यासियों को "स्वामी" और सन्यासिन को "माँ" शब्द का सम्बोधन दिया ,,,, लेकिन ये कोई शाब्दिक सम्बोधन नहीं है ..... लेकिन बहुत से लोग इस सम्बोधन को मात्र सम्बोधन मान कर प्रयोग करते हैं जिसके कारण osho की दी हुई ये अति-गहन करुणा ... आज मज़ाक बन कर रह गयी है ... !

सबसे पहले तो इस सम्बोधन का वास्तविक अर्थ समझ लेते हैं ---

स्वामी -- स्वामी का अर्थ होता है मालिक .... लेकिन किसका ??? किसका मालिक क्या स्वामी होने से आप किसी के मालिक हो जाते हैं ....... नहीं ..... ओशो ने जब अपने सन्यासियों को स्वामी सम्बोधन दिया था तो उसका अर्थ था .... कि हर पुरुष मे परम संभावना है कि वो अपने अंदर बैठे उस तत्व को जगा सके जो सही अर्थो मे मालिक है ... स्वामी है .... स्वामी अपने आनंद का .... स्वामी अपनी इंद्रियो का .... स्वामी अपने कृत्यो का और उससे आने वाले सभी परिणामो का .... जब कोई इंसान/पुरुष अपने को पूर्ण रूप से जाग्रत कर पाता है तो वो हर जगह सम्राट जैसी गरिमा के साथ जीता है ... वो जो भी कर्म करता है उसमे वो मालिक होता है और उस कर्म से जो भी परिणाम आए सुख या दुख वो उसको भी उसी मालकियत के साथ स्वीकार करता है ..... ऐसा होता है स्वामी ...

लेकिन मैं देखता हूँ सभी सन्यासी एक दूसरे को कोस रहे हैं जो आनंद आता है उसके तो वो मालिक बनने लग जाते हैं लेकिन यदि कोई विषाद जन्म ले तो वो वहाँ पर मालिक नहीं होना चाहते ... मैं मानता हूँ मेरे सभी कर्म पूजा हैं और उनसे आने वाले सभी परिणाम ..... प्रसाद

ऐसे ही माँ शब्द का कुछ अर्थ था --

माँ -- किसी भी स्त्री की परम अवस्था माँ है .... माँ कोई शारीरिक घटना के साथ किसी बच्चे की माँ बनना नहीं है बल्कि जब कोई स्त्री अपने सभी संबंधो को या कहे अपनी पूरी जीवन शैली को गरिमा से भर पाती है तो वो माँ हो जाती है ... इसे समझने के लिए आपको ये जानना होगा ...... कि पुरुष का सबसे बड़ा रोग है अहंकार और स्त्री का सबसे बड़ा रोग है ... जलन .... जब कोई पुरुष अपने अहंकार को तिरोहित कर पाता है वो स्वामी हो जाता है .... और जब कोई स्त्री जलन से मुक्त होती है .... तो वो वास्तविक अर्थो मे माँ हो जाती है .... जैसे कोई भी माँ सबसे अधिक अपने बेटे से प्रेम करती है .... लेकिन एक दिन वो उसे पराई स्त्री(बहू) को सौप कर आनंदित हो जाती है जो बेटा रोज़ शाम माँ के पास आकार आनंदित होता था .... अब वही बेटा रोज़ शाम बहू के कमरे मे जाता है ... और माँ ये देख कर आनंदित होती है ..... ( जब्कि आप इसके विपरीत भी देखते होंगे कि माँ को बहू से जलन हो जाती है .... ये बात ये दर्शाती है कि वो सही अर्थो मे माँ नहीं बन पायी ) .... तो जब कोई सन्यासी किसी सन्यासिन को माँ कहकर बुलाता है तो भले ही उनके बीच सेक्स का संबंध ही क्यूँ न हो ... वो उस स्त्री मे माँ की संभावना को आवाज़ देता है .... और मैंने ऐसा महसूस किया है .... यदि आप किसी पूर्ण भाव के साथ शब्दो के सही सम्बोधन को इस्तेमाल करे तो उस इंसान मे जिसको आप संबोधित कर रहे हैं परिवर्तन आने आरंभ हो जाते हैं ..
                 
                                       
  OSHO

Saturday, November 19, 2016

तू स्वर्ग को उपलब्ध होगा- कृष्ण

*श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि यदि तू सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझ कर युद्ध करेगा, तो तू पाप को नहीं, स्वर्ग को उपलब्ध होगा। यह क्यों और कैसे संभव है? क्या हिंसा तब हिंसा की घटना न रह जाएगी?*

इसमें दो तीन बातें खयाल लेनी चाहिए।

पहली तो बात यह कि कृष्ण कहते हैं कि हिंसा एक असत्य है, जो हो नहीं सकती। भ्रम है, जो संभव नहीं है। कोई मारा नहीं जा सकता। “न हन्यते हन्यमाने शरीरे’। शरीर को मार डालने से वह नहीं मरता जो पीछे है; और शरीर मरा ही हुआ है। इसलिए शरीर मरता है, यह कहना व्यर्थ है।

कृष्ण पहले तो यह कहते हैं कि हिंसा असंभव है। क्या यह मतलब है कि कोई भी जाए और किसी की हिंसा करे? नहीं, कृष्ण यह कहते हैं कि हिंसा तो असंभव है, लेकिन हिंसक-वृत्ति संभव है। तुम किसी को मारना चाहो, यह संभव है; कोई नहीं मरेगा, यह दूसरी बात है। तुम्हारे मारने से कोई नहीं मरेगा, यह दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, यह बिलकुल दूसरी बात है। तुम मारना चाहते हो, इसमें पाप है; उसके मरने का तो कोई सवाल नहीं है, वह तो मरेगा नहीं। हिंसा में पाप नहीं है, हिंसकता में पाप है। तुमने तो मारना ही चाहा, वह नहीं मरा यह दूसरी बात है। तुम्हारी चाह तो मारने की है। 

कोई नहीं बचेगा, इसमें पुण्य नहीं है; कि कोई बचेगा, इसमें पुण्य नहीं है। तुमने बचाना चाहा, इसमें पुण्य है। एक आदमी मर रहा है, सब जानते हुए कि मरेगा, तुम बचाने की कोशिश में लगे हो। यह तुम्हारी बचाने की कोशिश से वह बचेगा नहीं, मर जाएगा कल, लेकिन तुम्हारी बचाने की कोशिश में पुण्य है। पाप दूसरे को नुकसान पहुंचाने की वृत्ति है, पुण्य दूसरे को लाभ पहुंचाने की वृत्ति है।

और कृष्ण तीसरी जो बात कहते हैं, वे कहते हैं कि अगर तू पाप और पुण्य, अगर तू सुख और दुख, दोनों के पार उठ जा, तो फिर न पाप है, फिर न पुण्य है। फिर कुछ भी नहीं है। फिर न हिंसा है, न अहिंसा है, अगर तू इन दोनों के ऊपर उठ जाए और जान ले कि उस तरफ हिंसा नहीं होती, तो मैं नाहक हिंसा करने के खयाल से क्यों भरूं? और उस तरफ कोई बचता नहीं, तो मैं नाहक बचाने के पागलपन में क्यों पड़ूं? अगर तू सत्य को देखकर अपनी वृत्तियों को भी समझ ले कि ये वृत्तियां व्यर्थ हैं–असंभव हैं–अगर तू इन दोनों बातों को ठीक से समझ ले, तो तू स्वर्ग को उपलब्ध हो ही गया। हो जाएगा ऐसा नहीं, हो ही गया। क्योंकि हो जाने का क्या सवाल है? ऐसी स्थिति में, जहां सुख और दुख, लाभ और हानि, जय और पराजय, हिंसा और अहिंसा, सब समान हो गई हैं, समत्व उपलब्ध हुआ, ऐसी स्थिति में स्वर्ग मिल ही गया। अब कुछ स्वर्ग बचा नहीं पाने को । ऐसी स्थिति में, ऐसी समत्व बुद्धि को ही कृष्ण योग कहते हैं।

 

वह कहते यह हैं कि दो तरह की भ्रांति है। एक भ्रांति तो यह कि कोई मरेगा। और एक भ्रांति यह कि मैं मारूंगा। एक भ्रांति यह कि कोई बचेगा और एक भ्रांति यह कि मैं बचाऊंगा। ये दोनों ही भ्रांतियां हैं। अगर पहली भ्रांति छूट जाए, कि कोई मरता नहीं, कोई बचता नहीं, जो है वह है, अगर यह पहली भ्रांति छूट जाए, तो फिर एक दूसरी भ्रांति बचती है कि कोई नहीं मरता तो भी मैं मारने की कोशिश करता हूं तो पाप है। कोई नहीं बचता तो भी मैं बचाने की कोशिश करता हूं, तो पुण्य है। लेकिन पाप और पुण्य भी अधूरा अज्ञान है। आधा। आधा अज्ञान बच गया। अगर यह भी पता चल जाए कि न मैं किसी को बचाता, न कोई बचता; न मैं किसी को मारता, न कोई मरता; अगर यह पूरा ही चला जाए, तो ज्ञान है। फिर ऐसे ज्ञान वाले व्यक्ति को जो हो रहा है, वह होने देता है। बाहर, भीतर, कहीं भी जो हो रहा है वह होने देता है। क्योंकि अब न होने देने का कोई सवाल नहीं। तब वह “टोटल एक्सेप्टिबिलिटी’ को, समग्र स्वीकार को उपलब्ध हो जाता है।

तो कृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि तू सब देख और स्वीकार कर और जो होता है, होने दे; तू धारा के खिलाफ लड़ मत, तू बह। और फिर तू स्वर्ग को उपलब्ध हो जाता है।

कृष्ण स्मृति 

ओशो 

तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो

_*तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो*_

तुम जब किसी स्त्री के प्रेम में पड़ते हो तो तुम कहते हो: "स्वर्ण काया! सोने की देह! स्वर्ग की सुगंध!' तुम्हारे कहने से कुछ फर्क न पड़ेगा। गर्मी के दिन करीब आ रहे हैं पसीना बहेगा, स्त्री के शरीर से भी दुर्गंध उठेगी। तब तुम लाख कहो "स्वर्ग की सुगंध,' तुम्हारे सपने को तोड़कर भी पसीने की बास ऊपर आएगी। तब तुम मुश्किल में पड़ोगे कि धोखा हो गया। और शायद तुम यह कहोगे, इस स्त्री ने धोखा दे दिया। क्योंकि मन हमेशा दूसरे पर दायित्व डालता है, कहेगा, यह स्त्री इतनी सुंदर न थी जितना इसने ढंग ढौंग बना रखा था। यह स्त्री इतनी स्वर्ण काया की न थी जितना इसने ऊपर से रंग रोगन कर रखा था। वह सब सजावट थी, शृंगार था भटक गए, भूल में पड़ गए।

स्त्री भी धीरे धीरे पाएगी कि तुम साधारण पुरुष हो और जो उसने देवता देख लिया था तुममें, वह जैसे जैसे खिसकेगा, वैसे वैसे पीड़ा और अड़चन शुरू होगी। और वह भी तुम पर ही दोष फेंकेगी कि जरूर तुमने ही कुछ धोखा दिया है, प्रवंचना की है। और जब ये दो प्रवंचनाएं प्रतीत होंगी कि एक—दूसरे के द्वारा की गई हैं तो कलह, संघर्ष, वैमनस्य, शत्रुता खड़ी होगी। तुम्हारा मन किसी और स्त्री की तरफ डोलने लगेगा। तुम नई खूंटी तलाश करोगे। स्त्री का मन किसी और पुरुष की तरफ डोलने लगेगा। वह किसी नई खूंटी तलाश करेगी।

इसी तरह तुम जन्मों जन्मों से करते रहे हो। लाखों खूंटियों पर तुमने सपना डाला। लाखों खूंटियों पर तुमने अपनी वासना टांगी। लेकिन अब तक तुम जागे नहीं और तुम यह न देख पाए कि सवाल खूंटी का नहीं है; सवाल कामिनी का नहीं है; काम का है। यह तुम्हारा ही खेल है। तुम जिस दिन चाहो, समेट लो। लेकिन जब तक समझोगे न, समेटोगे कैसे? भागना कहीं भी नहीं है; तुम जहां हो वहीं ही अपने मन की वासनाओं के जाल को समेट लेना है। जैसे सांझ मछुआ अपने जाल को समेट लेता है, ऐसे ही जब समझ की सांझ आती है, जब समझ परिपक्व होती है, तुम चुपचाप अपना जाल समेट लेते हो। वह तुमने ही फैलाया था, कोई दूसरे का हाथ नहीं है। कोई दूसरा तुम्हें भटका नहीं रहा है।

 

सोने का क्या कसूर है? तुम नहीं थे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा था। तुम्हारी प्रतीक्षा भी नहीं की थी उसने। तुम नहीं रहोगे तब भी सोना अपनी जगह पड़ा रहेगा।

सुनो भई साधो 

ओशो 

जिस से प्रेम किया उसी से दुख पाया है

तुमने भी इस जीवन में बहुत पीड़ा पायी है
जिस से प्रेम किया उसी से दुख पाया है—किस और से दुख पाओगे?

दुख तो पाया जाता उसी से जिससे हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उसी से हम आशा करते हैं, उसी से आशा भी टूटती है;उसी से आकांक्षा करते हैं, उसी से आकांक्षा उखड़ती है;उसी से हमारी अपेक्षाएं होती हैं, उसी से विषाद आता है।
तुमने देखा अजनबी से तुम्हें कभी दुखी नहीं होता। क्यों होगा? दुख तो अपनों से होता है, क्योंकि अपनों से अपेक्षा लगी होती है। कुछ तुम चाहते थे और वैसा नहीं हुआ। राह चलता कोई तुम्हारा एक छोटा सा काम कर देता है तो तुम अनुग्रह से भर जाते हो, क्योंकि कोई अपेक्षा नहीं है। तुम्हारी पत्नी तुम्हारी जीवनभर से सेवा कर रही है, तुमने कभी धन्यवाद नहीं दिया। धन्यवाद देना बेहूदा भी लगेगा—अपनों को कोई धन्यवाद देता है! परायों को ही हम धन्यवाद देते हैं। धन्यवाद का मतलब ही इतना है कि अपेक्षा न थी और तुमने किया। जिससे अपेक्षा है उस पर हम नाराज होते हैं, धन्यवाद नहीं देते। जितनी अपेक्षा थी उतना न किया तो नाराज होते है। कोई बेटा अपनी मां को धन्यवाद देता है? कोई मां अपने बेटे को धन्यवाद देती है? यह बात ही नहीं उठती। हां, शिकायतें चलती हैं;नाराजगियां होती हैं, क्रोध होता है। तो हर आदमी जला हुआ है, और हर आदमी के फफोले पड़े हुए हैं। और तुमने कहावत सुनी है न— ‘दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है। ‘ तो तुम्हारा भी अनुभव तुम से यही कहता है —तुम्हारा भी विश्लेषण बहुत गहरा नहीं है, तुमने भी जीवन को बहुत उसकी गहराइयों में न समझा है, न परखा है;तुम्हारी आखें भी बहुत पारदर्शी नहीं है—तो जब तुम्हारा महात्मा तुमसे कहता है कि यह सब राग का ही फल है, तुम को भी बात जंचती है, गणित बैठता है कि बात तो ठीक ही है, मैं भी राग में पड़ा हूं इसलिए दुख भोग रहा हूं। तो रोग के कीटाणु तुम लेने को तत्पर हो जाते हो।
शांडिल्य तुम्हारे लिए बड़े क्रांति के सूत्र दे रहे हैं। शांडिल्य कह रहे है —राग से नहीं कोई दुख पाता। कह दो अपने महात्माओं को कि तुमने राग से दुख नहीं पाया, गलत से राग लगाया था उससे दुख पाया। अब तुम दूसरी गलती कर रहे हो कि तुमने राग ही छोड़ दिया। एक आदमी अपने पैरों से चलकर वेश्यालय गया, निश्चित ही पैर न होते तो कैसे जाता, पैरों से ही गया। फिर वेश्यालय में बहुत दुख पाया, बहुत अवमानना झेली, बहुत जीवन को दूषित बना डाला, क्रोध में अपने पैर काट डाले, क्योंकि ये पैर वेश्यालय ले गए थे। लेकिन ये पैर मंदिर भी ले जाते, इनसे ही तीर्थयात्रा भी होती। यह जो पैर काटकर बैठ गया है, इसको तुम महात्मा कहते हो। क्योंकि यह कहता है—पैर वेश्यालय ले गए थे, जुआघर ले गए थे, शराबघर ले गए थे, इन पैरों पर बहुत नाराज था, इसने पैर काट डाले। इसको तुम पागल कहोगे न! इसको तुम महात्मा तो नहीं कहोगे। इस आदमी ने पहले भी मूढ़ताएं कीं और अब महामूढ़ता कर रहा है, क्योंकि जो वेश्यालय तक जा सकता है, वह मंदिर तक जाने में समर्थ है। जो शराबघर तक जा सकता है, वह स्वर्ग तक जा सकता है। पैर हैं, जो नर्क की यात्रा कर सकता है, उसको स्वर्ग की यात्रा में कौन सी बाधा है? रुख बदलना है, दिशा बदलनी है; बाएं न चले, दाएं चले, बस इतना ही फर्क करना है। पैर तो वही हैं, सीढ़ी तो वही है, नीचे न गये, ऊपर गये। उसी सीढ़ी से तुम ऊपर जाते हो, उसी से नीचे जाते हो, सीढ़ी थोड़े ही तोड़ देते हो इसलिए कि नीचे ले जाती है? जो सीढ़ी नीचे ले जाती है, वही ऊपर नहीं ले जाती? सिर्फ दिशा बदलनी होती है।
शांडिल्य कहते हैं—दिशा बदलों।

ओशो

क्या मैं गलत रास्ते पर हूँ..? मैं सिर्फ प्रेम और सेक्स के बारे मे सोचती हु...

आप कहते है, अपने सारे मुखौटे हटा दो और प्रमाणिक हो जाओ। मैं केवल सेक्‍स, प्रेम और रोमांस के बारे में सोचती हूं, इनके अतिरिक्‍त और जानती नहीं हूं, क्‍या में गलत रास्‍ते पर हूं?

ओशो - मुझे सेक्स में,  रोमांस में कुछ भी गलत नहीं दिखाई पड़ता। तुम ठीक रास्ते पर हो। प्रेम उचित पथ है, और केवल प्रेम के जीवन को जीने के माध्यम से ही प्रार्थना उठती है—और किसी भांति नहीं। प्रेम के गहरे, मीठे और कड़वे, प्रसन्नतादायी और पीड़ादायक, ऊंचे और नीचे, स्वर्ग और नरक, अनुभवों के माध्यम से ही, केवल प्रेम के माध्यम से मिली पीड़ा और प्रसन्नता के गहन अनुभवों द्वारा ही व्यक्ति सजग हो पाता है। तुमको सजग बनाने के लिए उनकी आवश्यकता होती है।
पीड़ा की उतनी ही आवश्यकता है जितनी प्रसन्नता की है, क्योंकि दोनों कार्य करती हैं। और धीरे— धीरे प्रसन्नता और पीड़ा के मध्य में तुम रस्सी पर चलने वाले नट बन जाते हो। तुम संतुलन उपलब्ध कर लेते हो।
लेकिन सदियों से प्रेम की निंदा की गई है, काम की निंदा की गई है। इसलिए, निःसंदेह तुम्हारे मन में यह खयाल उठता है कि तुमको गलत रास्ते पर होना चाहिए। तुम बस प्राकृतिक हो। प्राकृतिक होना गलत रास्ते पर होना नहीं है। यदि तुम इस ढंग से विचार करती हो तो तुम निंदात्मक वृत्ति वाली हो जाती हो, और तब तुम गलत रास्ते पर होगी। तब तुम दमन करोगी, और तुम जो कुछ भी दमन करोगी वह तुम्हारे अचेतन में, तुम्हारे तलघर में छिप कर बैठा रहेगा, और फिर उस दमन से बहुत सी कुरूपता उठ खड़ी होती है।
मैं तुम्हें कुछ कहानियां सुनाता हूं।
एक बहुत धनी और विख्यात व्यक्ति लार्ड डयूसबरी के बारे में ऐसा कहा गया है : उस समय वह नब्बे वर्ष का था, और वह पार्क लेन के अपने आवास के भूतल पर खाड़ी की ओर खुलने वाली खिड़की के सामने बैठा हुआ, रविवार की प्रातःकाल भ्रमण करने वालों को देख रहा था। अचानक उसने एक आकर्षक, युवा, गौरवर्ण लड़की को पार्क में बच्चा—गाड़ी धकेलते हुए देखा। जल्दी करो जेम्स, वह बोला, मेरे दांत ले लाओ; मैं सीटी मारना चाहता हूं।
नब्बे साल की आयु! लेकिन होता है यह।

यह प्रश्न कृष्णप्रिया ने पूछा है।
याद रखो, यदि तुमने सीटी अभी नहीं बजाई तो किसी दिन जब तुम्हारे दांत भी गिर चुके होंगे और तुम किसी युवक को टहलते हुए देखोगी और चिल्लाओगी : जल्दी करो मेरे दांत ले आओ! कुरूप होगा यह। अभी इसी समय दांत ठीक—ठाक हैं, तुम सीटी बजा सकती हो। प्रत्येक कार्य को उसके समय पर ही किया जाना चाहिए। अन्यथा चीजें कुरूप हो जाती हैं।
एक बच्चा तितलियों के पीछे दौड़ रहा है, यह ठीक है, लेकिन चालीस वर्ष का कोई व्यक्ति यदि तितलियों के पीछे दौड़ रहा हो तो वह पागल प्रतीत होगा, युवा व्यक्तियों को थोड़ा सा मूर्ख होना अनिवार्य है। उसकी व्यक्ति अपेक्षा रखता है और उसे स्वीकार भी करता है। कुछ भी गलत नहीं है इसमें। इसको जीवन का आधार तथ्य होना चाहिए : किन्हीं समयों पर मूर्ख हो जाना, क्योंकि बुद्धिमत्ता अनेक मूर्खताओं के अनुभव से आया करती है। तुम अचानक बुद्धिमान नहीं हो जाते हो। तुमको चलना पडेगा, और भटकना पड़ेगा, और अनेक मूर्खतापूर्ण कार्य करने पड़ेंगे। और इन सभी मूर्खतापूर्ण या दूसरे ढंग के कृत्यों के द्वारा बुद्धिमत्ता का उदय होता है।
बुद्धिमत्ता एक सुगंध की भांति है, और मूर्खताओं के अनुभव खाद की तरह कार्य करते हैं। उनसे दुर्गंध उठती है, लेकिन उनसे सुंदर पुष्प आते हैं। इसलिए जीवन की खाद की उपेक्षा मत करो, वरना तुम बुद्धिमत्ता के पुष्पों से चूक जाओगे। और तुम एक इच्छा का एक ओर से दमन कर सकती हो, लेकिन तब यह दूसरी ओर से उठने लगती है। तुम जीवन को धोखा नहीं दे सकते।
मम्मी, उस छोटे विचित्र बच्चे ने कहा : स्कूल में बच्चे कहते रहते हैं कि मेरा सिर बहुत बडा है। तुम्हारा सिर तो कोई खास बड़ा नहीं है, मां ने कहा। उन शैतान बच्चों के बारे में बस भूल जाओ और मेरे साथ बाजार चलो। मुझको दस पाउंड आलू पांच पाउंड शलजम और दो गोभियां खरीदना है।
ठीक है, मम्मी। सब्जी रखने वाला थैला कहां है?
ओह, उसकी चिंता मत करो। बस अपनी टोपी का उपयोग कर लेना।
इसलिए इस रास्ते से या उस रास्ते से.. .एक बार और सोचो दस पाउंड आलू पांच पाउंड शलजम और दो गोभियां—और बस अपनी टोपी प्रयोग कर लेना। तुम एक ओर से दमन कर सकती हो, यह दूसरी ओर से उभर कर आ जाता है। कभी किसी चीज का दमन मत करो। यदि काम वहा है तो इसके पहले कि बहुत देर हो जाए इसे स्वीकार करो। इसको हां कहो, इसमें उतर जाओ, इसे स्वीकार कर लो। यह परमात्मा की दी हुई चीज है। इसमें कोई गहरा कारण होना चाहिए। इसमें गहरा कारण है। कभी किसी ऐसे उत्तरदायित्व से बच कर मत भागो जो परमात्मा ने तुमको दिया हुआ है, वरना तुम विकसित न हो पाओगी। और अब इस शताब्दी में, इस बीसवीं शताब्दी में ऐसे प्रश्न पूछना बस निरी मूर्खता है।

यह छह वर्षीय बालक पहली बार चिड़िया घर देखने गया था, और जैसा कि होता है ढेर सारे हैरान करने वाले 'सवाल पूछे जा रहा था। पिताजी, हाथी के बच्चे कहां से आते हैं, उसने पूछा। फिर उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, और यदि अब आपने अपनी पुरानी जल—पक्षी वाली कहानी सुनाई तो मैं वास्तव में मान जाऊंगा कि आप निरे पागल हैं।
वे मूर्खतापूर्ण दिन विदा हो चुके हैं जब लोग जीवन—निषेधक विचारधाराओं, जीवन की निंदाओं के रूप में सोचा करते थे। फ्रायड के बाद मनुष्य ने काम— भावना को अधिक स्वाभाविक ढंग से स्वीकार कर लिया है। इस संसार में एक बड़ी क्रांति घटित हो चुकी है।
अब निंदात्मक रूप में विचार करना समकालीन होना नहीं है। अब कृष्‍णप्रिया का प्रश्न ठीक था, यदि उसने इसे पांच सौ वर्ष पहले पूछा होता, लेकिन अब? असंगत है यह।

ओशो

पतंजलि योग सूत्र

Thursday, November 10, 2016

गरीब के लिए क्यों कुछ नही करते

मुझसे लोग कहते हैं कि आप गरीबों के लिए क्यों नहीं कुछ करते? यहां आपके आश्रम में गरीब के लिए प्रवेश नहीं मिल पाता।
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ओशो―
उसके पीछे कारण हैं।
गरीब जब भी मेरे पास पहुंच जाता है तभी मैं अपने को असहाय पाता हूं; क्योंकि मैं जो कर सकता हूं, वह उसकी मांग नहीं है। जो वह चाहता है, उससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है। हमारे बीच सेतु निर्मित नहीं हो पाता। एक गरीब आदमी आता है। वह कहता है कि मुझे नौकरी नहीं है। वह ध्यान की बात ही नहीं पूछता। उसको प्रार्थना से कुछ लेना-देना नहीं है। वह मेरा आशीर्वाद चाहता है कि नौकरी मिल जाए।
अब मेरे आशीर्वाद से अगर नौकरी मिलती होती तो मैं एक दफा सभी को आशीर्वाद दे देता। इसको बार-बार करने की क्या जरूरत थी? मेरे आशीर्वाद से कुछ मिल सकता है, लेकिन वह नौकरी नहीं है। वह तुम्हारी मांग नहीं है। तब मैं बड़े पेशोपस में पड़ जाता हूं।
कोई आ जाता है कि बीमार है, आशीर्वाद दे दें!
बीमार को अस्पताल जाना चाहिए। उसको मेरे पास आने का कोई कारण नहीं है; उसको इलाज की जरूरत है। जब भी गरीब आदमी आता है तो मैं पाता हूं कि उसकी कोई चिंतना धार्मिक है ही नहीं। वह मेरे पास आना भी चाहता है तो इसलिए आना चाहता है।
कभी-कभी कोई धनी आदमी आता है तो उसकी चिंतना धार्मिक होती है। वह भी कभी-कभी। तब वह कभी पूछता है कि मन अशांत है, क्या करूं? गरीब आदमी पूछता ही नहीं कि मन अशांत है। मन का अशांत होना एक खास विकास के बाद होता है। अभी पेट अशांत है; अभी मन को अशांत होने का उपाय भी नहीं है। पेट भर जाए तो मन अशांत होगा। मन भर जाए तो आत्मा बेचैन होगी। असल में, जब आत्मा बेचैन हो तभी मेरे पास आने का कोई अर्थ है। आत्मा बेचैन हो तो मेरे आशीर्वाद से कुछ हो सकता है, मेरे निकट होने से कुछ हो सकता है। जो मैं तुम्हें दे सकता हूं, वह धन और है। जो धन तुम मांगते हो, वह मेरे पास नहीं।

तो गरीब आदमी जैसे ही पास आता है, मुझे बड़े पेशोपस में डाल देता है कि करो क्या? उसकी पीड़ा मैं समझता हूं। उसकी कठिनाई मुझे साफ है; उससे भी ज्यादा साफ है जितनी उसे साफ है। क्योंकि मैं जानता हूं कि कितनी दयनीय दशा है कि एक आदमी कह रहा है कि मुझे नौकरी नहीं है! यह कितनी कष्टपूर्ण दशा है कि एक आदमी बीमार है और इलाज का इंतजाम नहीं जुटा पा रहा है! तभी तो वह मेरे पास आया है, नहीं तो वह अस्पताल जाता। उसकी आकांक्षा बड़े क्षुद्र की है। वह सुई मांगने आया है; मैं इधर तलवार देने को तैयार हूं। लेकिन उसका क्या प्रयोजन है? वह कहता है, कपड़े फटे हैं, सुई मिल जाए तो मैं सी लूं। मैं उसे तलवार भी दे दूं तो वह क्या करेगा? कपड़े और फाड़ लेगा। तलवार से तो कोई कपड़े सीए नहीं जाते।

गरीब आदमी के मन में धर्म का विचार ही नहीं उठ पाता। अपवाद छोड़ दें। कभी सौ में एक आदमी गरीब होकर भी धार्मिक हो सकता है; लेकिन उसके लिए बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। अमीर आदमी बिना बुद्धि के भी धार्मिक हो सकता है; गरीब आदमी को बड़ी बुद्धिमत्ता चाहिए। गरीब आदमी को इतनी बुद्धिमत्ता चाहिए कि जो उसके पास नहीं है, उसकी व्यर्थता को समझने की क्षमता चाहिए।

अब बड़ा मुश्किल है! जो तुम्हारे पास है, उसकी व्यर्थता तक नहीं दिखाई पड़ती; तो जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी व्यर्थता तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगी? जिनके पास महल हैं, उन्हें नहीं दिखाई पड़ता कि महलों में कुछ नहीं है, तो तुम्हारे पास तो महल हैं नहीं, तुम्हें कैसे दिखाई पड़ेगा कि महलों में कुछ नहीं है?

इसलिए अपवाद। कभी सौ में एक प्रतिभावान व्यक्ति बिना महलों में गए, सिर्फ विचार से समझ लेता है कि वहां कुछ नहीं है; बिना धन पाए समझ लेता है कि धन में कुछ सार नहीं है; बिना पद पाए समझ लेता है कि पद में कुछ है नहीं। कहते तो बहुत लोग हैं यह। गरीब कहते हैं अक्सर कि क्या रखा धन में! मगर यह संतोष के लिए कहते हैं। यह उनकी समझ नहीं है; यह सांत्वना है। ऐसा वे अपने मन को समझाते हैं कि रखा ही क्या है!
यह वही हालत है जो लोमड़ी ने अंगूर की तरफ छलांग मार कर अनुभव की थी। अंगूर तक नहीं पहुंच सकी, फासला बड़ा था। चारों तरफ उसने देखा कि कोई देख तो नहीं रहा, क्योंकि बेइज्जती का सवाल था। एक खरगोश झांक रहा था। उस खरगोश ने कहा, क्यों मौसी, क्या मामला है? उस लोमड़ी ने कहा, मामला कुछ नहीं; अंगूर खट्टे हैं। छलांग छोटी है, इसे कहने में तो अहंकार को चोट लगती है। अंगूर खट्टे हैं, छलांग की जरूरत ही नहीं; बेकार सोच कर छोड़ दिए हैं।

बहुत से गरीब आदमी कहते मिलेंगे: क्या रखा धन में! क्या रखा महलों में! क्या रखा पदों में! इससे यह मत समझ लेना कि समझ आ गई है। यह तो सिर्फ सांत्वना है। यह तो गरीब को अपने मन को समझाने का उपाय है। जो पाया नहीं जा सकता, उसमें कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए तो हम नहीं पा रहे हैं, नहीं तो कभी का पाकर बता देते, यह वह कह रहा है। वह कह रहा है, अंगूर खट्टे हैं!

लेकिन जब कभी गरीब आदमी को वस्तुतः समझ होती है। ऐसा हो जाता है क्योंकि अनंत जन्मों से समझ संगृहीत होती है। किसी जन्म में तुम अमीर भी रहे हो, महलों में भी रहे हो, बड़े सुख जाने हैं। तो उस सबसे संगृहीत समझ के आधार पर कभी कोई गरीब भी धार्मिक हो सकता है। अन्यथा गरीब आदमी की आकांक्षा धार्मिक तक पहुंच नहीं पाती। उसकी छलांग छोटी है। उसकी मांग छोटी चीजों की है।

अब मेरी तकलीफ तुम समझ सकते हो। तकलीफ यह है कि मैं उसे कुछ देना चाहूं, जरूर देना चाहूं; लेकिन जो मैं देना चाहता हूं, वह उसके काम का नहीं है। जो वह मांगने आया है, वह न तो मेरे पास है, न देने योग्य है, न मांगने योग्य है। लेकिन उसकी समझ तो उसे तभी आएगी जब वह गुजर जाए जीवन के अनुभव से।