Sunday, February 19, 2017

दो व्यक्तियोँ की तुलना न करेँ


जब तक दुनिया में हम एक आदमी को दूसरे आदमी से कम्पेयर करेंगे, तुलना करेंगे तब तक हम एक गलत रास्ते पर चले जाएंगे। वह गलत रास्ता यह होगा कि हम हर आदमी में दूसरे आदमी जैसा बनने की इच्छा पैदा करते हैं; जब कि कोई आदमी किसी दूसरे जैसा न बना है और न बन सकता है।
राम को मरे कितने दिन हो गए, या क्राइस्ट को मरे कितने दिन हो गए? दूसरा क्राइस्ट क्यों नहीं बन पाता और हजारों-हजारों क्रिश्चिएन कोशिश में तो चौबीस घंटे लगे हैं कि क्राइस्ट बन जाएं। और हजारों हिंदु राम बनने की कोशिश में हैं, हजारों जैन, बुद्ध, महावीर बनने की कोशिश में लगे हैं, बनते क्यों नहीं एकाध? एकाध दूसरा क्राइस्ट और दूसरा महावीर पैदा क्यों नहीं होता? क्या इससे आंख नहीं खुल सकती आपकी? मैं रामलीला के रामों की बात नहीं कह रहा हूं, जो रामलीला में बनते हैं राम। न आप समझ लें कि उनकी चर्चा कर रहा हूं, कई लोग राम बन जाते हैं। वैसे तो कई लोग बन जाते हैं, कई लोग बुद्ध जैसे कपड़े लपेट लेते हैं और बुद्ध बन जाते हैं। कोई महावीर जैसा कपड़ा लपेट लेता है या नंगा हो जाता है और महावीर बन जाता है। उनकी बात नहीं कर रहा। वे सब रामलीला के राम हैं, उनको छोड़ दें। लेकिन राम कोई दूसरा पैदा होता है?
यह आपको जिंदगी में भी पता चलता है कि ठीक एक आदमी जैसा दूसरा आदमी कहीं हो सकता है? एक कंकड़ जैसा दूसरा कंकड़ भी पूरी पृथ्वी पर खोजना कठिन है, एक जड़ कंकड़ जैसा-यहां हर चीज यूनिक है, हर चीज अद्वितीय है। और जब तक हम प्रत्येक की अद्वितीय प्रतिभा को सम्मान नहीं देंगे तब तक दुनिया में प्रतियोगिता रहेगी, प्रतिस्पर्धा रहेगी, तब तक दुनिया में मार-काट रहेगी, तब तक दुनिया में हिंसा रहेगी, तब तक दुनिया में सब बेईमानी के उपाय करके आदमी आगे होना चाहेगा, दूसरे जैसा होना चाहेगा। और जब हर आदमी दूसरे जैसा होना चाहता है तो क्या फल होता है? फल यह होता है-अगर एक बगीचे में सब फूलों का दिमाग फिर जाए या बड़े-बड़े आदर्शवादी नेता वहां पहुंच जाएं या बड़े-बड़े शिक्षक वहां पहुंच जाएं और उनको समझाएं कि देखो, चमेली का फूल चंपा जैसा हो जाए, चमेली का फूल चंपा जैसा, चंपा का फूल जुही जैसा, क्योंकि देखो, जुही कितनी सुंदर है...और सब फूलों को अगर पागलपन आ जाए, हालांकि आ नहीं सकता! क्योंकि आदमी से पागल फूल नहीं है।
आदमी से ज्यादा जड़ता उनमें नहीं है कि वे चक्कर में पड़ जाएं। शिक्षकों के, उपदेशकों के, संन्यासियों के, साधुओं के, आदर्शवादियों केचक्कर में कोई फूल नहीं पड़ेगा। लेकिन फिर भी समझ लें, कल्पना कर लें कि कोई आदमी पहुंच जाए और समझाए उनको और वे चक्कर में आ जाएं और चमेली का फूल चंपा का फूल होने लगे तो क्या होगा उस बगिया में। उस बगिया में फूल फिर पैदा नहीं होंगे, उस बगिया में फिर फूल पैदा ही नहीं हो सकते। उस बगिया में फिर पौधे मुरझा जाएंगे, मर जाएंगे। क्यों? क्योंकि चंपा लाख उपाय करे तो चमेली नहीं हो सकती, वह उसके स्वभाव में नहीं है, वह उसके व्यक्तित्व में नहीं है, वह उसकी प्रकृति में नहीं है। चमेली तो चंपा हो ही नहीं सकती। लेकिन क्या होगा? चमेली होने की कोशिश में वह चंपा भी नहीं हो पाएगी। वह जो हो सकती थी, उससे भी वंचित रह जाएगी।

प्रार्थना के नाम पर तुम कुछ मांगना मत।

प्रार्थना के नाम पर तुम कुछ मांगना मत।
तुम किसी अधूरी वासना को पूरा करने की आकांक्षा मत करना।
वही तो लोग करते है, प्रार्थना नहीं करते है, भिखमंगापन उनकी प्रार्थना में प्रगट होता है।
यह मिल जाए, वह मिल जाए, ऐसा हो जाए, वैसा हो जाए, अगर तुमने कुछ भी मांगा, तो तुमने प्रार्थना गंदी की, अपवित्र की, तुमने अपनी प्रार्थना में वासना को जोड़ी की, तुमने प्रार्थना के पंख काट दिए और प्रार्थना के गले में पत्थर बांध दिये।
वह पक्षी फिर उड़ेगा नहीं, यही तड़पेगा, यही गिरेगा, यही मरेगा, इतना ख्याल रखना की, प्रार्थना में मांग न हो, कुछ भी मत मांगना। परमात्मा को भी मत मांगना, क्योंकि मांग तो बस मांग है, मांगा की चुके। 

प्रेम एक जीवंत अनुभव


जो व्यक्ति भी प्रेम करने में समर्थ हो पाता है, संपत्ति, संग्रह, चीजें इकट्ठा करने की वृत्ति उसकी अपने आप कम हो जाती है। परिग्रह प्रेम का परिपूरक है; जीवन में प्रेम जितना कम होगा उतना ज्यादा परिग्रह की वृत्ति होगी। गहरे कारण हैं।
परिग्रह आदमी करता है इसलिए कि सुरक्षित हो सके। धन है पास में, मकान है पास में, पद है, प्रतिष्ठा है; सुरक्षा मालूम होती है, सिक्योरिटी है। कल का कोई भय नहीं। कोई विपदा होगी, संकट होगा, धन रक्षा करेगा। कल का जिसे भय है उसका धन पर भरोसा होगा। लेकिन कल की चिंता उसे ही पैदा होती है जिसके जीवन में प्रेम नहीं है। जिसके जीवन में प्रेम है उसके लिए आज काफी है, उसके लिए कल है ही नहीं।
भविष्य की चिंता पैदा होती है, क्योंकि वर्तमान दुखपूर्ण है। आज मैं दुखी हूं तो कल की चिंता मन को पकड़ती है। आज मैं सुखी हूं तो कल भूल जाता है। सुख के क्षण में कोई भी भविष्य नहीं होता; न ही कोई अतीत होता है। जब आप आनंद में हों तो समय मिट जाता है। जितना सघन हो सुख उतना समय क्षीण हो जाता है; और जितना सघन हो दुख उतना समय बड़ा हो जाता है। इसलिए दुख का एक पल भी काटना मुश्किल होता है; बहुत लंबा मालूम पड़ता है। घर में कोई मरता हो प्रियजन तो रात भी बीतनी मुश्किल हो जाती है। और आनंद की घड़ी हो तो ऐसे बीत जाती है जैसे आई ही नहीं।
सभी स्वर्ग क्षणभंगुर होंगे और सभी नरक अनंत। इसलिए नहीं कि नरक अनंत है, बल्कि इसलिए कि दुख समय को विस्तार देता है। समय घड़ी से बंधा हुआ नहीं है; समय हमारे मन से बंधा हुआ है। जब आप दुखी हैं तो जीवन कटता हुआ मालूम नहीं पड़ता; और जब आप सुखी हैं तो तीव्रता से बह जाता हुआ मालूम पड़ता है। सुख के क्षण कब निकल जाते हैं, बोध भी नहीं होता। दुख के क्षण कैसे कटेंगे, यह समझ में नहीं आता।
जो आज दुखी है वह कल की सोचता है। दुखी आदमी कल के आसरे ही जीता है। आज तो जीने योग्य नहीं है, लेकिन कल की आशा कि आज बीत जाएगा और कल सब ठीक होगा। लेकिन कल तभी सब ठीक होगा जब मैं आज व्यवस्था कर लूं। तो धन को पकडूं, मकान बनाऊं, प्रियजन-मित्र बनाऊं, कुछ इकट्ठा करूं जो कल काम आ जाए।
और आज उसका दुखी होगा ही जिसके जीवन में प्रेम नहीं। जहां प्रेम है वहां सुख है। और जहां सुख है वहां भविष्य मिट जाता है। इसलिए प्रेमी को कल की चिंता नहीं है; आज काफी है। एक क्षण भी अनंत है, पर्याप्त है। दूसरा क्षण न भी हो तो कोई मांग नहीं। एक क्षण भी काफी संतुष्टि दे जाता है। और इस संतुष्ट क्षण से ही कल भी निकलेगा, इसलिए कल का कोई भय, असुरक्षा मन को पकड़ती नहीं। आज जिस प्रेम ने संतोष दिया है वह कल भी संतोष देगा। और आज जिस प्रेम से सुगंध मिली है वह कल भी सुगंध देगा। जिस प्रेम में आज फूल खिले हैं कल वे और बड़े हो जाएंगे। जिसका आज का क्षण सुखद है, कल इस सुख से ही निकलेगा; इसी की धारा होगी।
तो जितना ज्यादा हो जीवन में प्रेम उतनी भविष्य की चिंता कम होती है। भविष्य की चिंता कम हो तो परिग्रह, संग्रह, वस्तुएं इकट्ठे करने का पागलपन छूट जाता है। जितने भी कृपण लोग हैं उनकी कृपणता उनके जीवन में प्रेम की कमी को भरने का उपाय है। प्रेम न हो तो हम सोने से भरते हैं गङ्ढे को। वह कभी भर नहीं पाता, क्योंकि सोना मृत है, और कितना ही मूल्यवान हो तो भी जीवित नहीं। और प्रेम एक जीवंत अनुभव है।
🌹ताओ उपनिषद🌹

मेरे मन में कभी कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह भड़कता है...

ओशो, मेरे मन में कभी कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह भड़कता है....

 और मैं जहा तहां आपकी छोटी मोटी निंदा भी कर बैठती हूं। कहा गया है कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। 

मैं क्या करूं?

पूछा है कृष्‍ण प्रिया ने।

जहां तक कृष्‍ण प्रिया को मैं समझता हूं इसमें कुछ गलतियां हैं प्रश्न में, वह ठीक कर दूं।

कहा है, ‘मेरे मन में कभी कभी आपके प्रति बड़ा विद्रोह उठता है।’

ऐसा मुझे नहीं लगता। मुझे तो लगता है, विद्रोह स्थायीभाव है। कभी कभी शायद मेरे प्रति प्रेम उमड़ता हो। लेकिन कभी कभी विद्रोह उमड़ता है, यह बात सच नहीं है। विद्रोह तुम्हारी स्थायी दशा है। और वह जो कभी कभी प्रेम उमड़ता है, वह इतना न्यून है कि उसके होने न होने से कुछ बहुत फर्क पड़ता नहीं।

और कृष्णप्रिया की दशा कुत्ते की पूंछ जैसी है। रखो बारह साल पोंगरी में, जब पोगरी निकालो, फिर तिरछी की तिरछी। कभी कभी मुझे भी लगता है कि शायद कृष्णप्रिया के संबंध में मुझे भी निराश होना पड़ेगा होऊंगा नहीं, वैसी मेरी आदत नहीं है लेकिन कृष्णप्रिया के ढंग देखकर कभी कभी मुझे भी लगने लगता है कि यह पूंछ सीधी होगी? यह भी मुझे खयाल आता है कि कृष्णप्रिया यह पूंछ तिरछी रहे, इसमें मजा भी ले रही है। इससे विशिष्ट हो जाती है। इससे लगता है कुछ खास है, औरों जैसी नहीं है। खास होने के लिए कोई और अच्छा ढंग चुके। यह भी कोई खास होने का ढंग!

राबर्ट रिप्ले ने बहुत सी घटनाएं इकट्ठी की हैं सारी दुनिया से। उसकी बड़ी प्रसिद्ध किताबों की सीरीज है. बिलीव इट आर नाट, मानो या न मानो। उसने सब ऐसी बातें इकट्ठी की हैं जिनको कि तुम पहली दफा सुनकर कहोगे, मानने योग्य नहीं। मगर मानना पड़ेगी, क्योंकि वह तथ्य है। उसने एक आदमी का उल्लेख किया है जो सारे अमरीका में अपनी छाती के सामने एक आईना रखकर उलटा चला। कारण! बड़ी मेहनत का काम था उलटा चलना। पूरा अमरीका उलटा चला। कारण जब पूछा गया तो उसने कहा कि मैं प्रसिद्ध होना चाहता हूं। वह प्रसिद्ध हो भी गया।

मगर ऐसे अगर प्रसिद्ध भी हो गए तो सार क्या? यह कोई बड़ी सृजनात्मक बात तो न हुई!

ऐसा लगता है कि कृष्णप्रिया सोचती है कि इस तरह की बातें करने से कुछ विशिष्ट हुई जा रही है। यहां विशिष्ट होने के हजार उपाय तुम्हें दे रहा हूं ध्यान से विशिष्ट हो जाओ, प्रेम से विशिष्ट हो जाओ, प्रार्थना से विशिष्ट हो जाओ। कुछ सृजनात्मक करो, विशिष्टता ही का कोई मूल्य नहीं होता। नहीं तो मूढ़ता से भी आदमी विशिष्ट हो जाता है।

जाओ, रास्ते पर जाकर शीर्षासन लगाकर खड़े हो जाओ, विशिष्ट हो गए। पूना हेराल्ड का पत्रकार पहुंच जाएगा, फोटो ले लेगा। नंगे घूमने लगो, प्रसिद्ध हो जाओगे। मगर उससे तुम्हारी आत्मा को क्या लाभ होगा? कहां तुम्हारा विकास होगा? कई बार ऐसा हो जाता है कि हम गलत उपाय चुन लेते हैं विशिष्ट होने के, रुग्ण उपाय चुन लेते हैं। कृष्णप्रिया ने रुग्ण उपाय चुने हुए हैं।

वैसे मैं यह नहीं कहता कि अगर इसमें ही तुम्हें आनंद आ रहा हो तो बदलो। मैं किसी के आनंद में दखल देता ही नहीं। अगर इसमें ही आनंद आ रहा है, तुम्हारी मर्जी! मेरे आशीर्वाद। इसको ऐसा ही जारी रखो।

तुम कहती हो कि ‘मैं छोटी मोटी निंदा आपकी कर बैठती हूं।’

फिर छोटी मोटी क्या करनी! फिर ठीक से ही करो। जब मजा ही लेना हो, तो छोटा मोटा क्या करना! जब चोरी ही करनी हो, तो फिर कौड़ियों की क्या करनी! फिर ठीक से निंदा करो। फिर दिल खोलकर निंदा करो और मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है इसलिए चिंता की कोई जरूरत नहीं है।

और गया कि की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं।’

वह किसी डरे हुए गुरु ने कहा होगा, मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, फिक्र छोड़ो, ठौर मैं हूं तुम्हारी। तुम करो निंदा जितनी तुम्हें करनी हो, मैं तुम पर नाराज नहीं हूं, और कभी नाराज नहीं होऊंगा। अगर तुम्हें इसी में मजा आ रहा है, अगर यही तुम्हारा स्वभाव है, अगर यही तुम्हारी सहजता है कि इससे ही तुम्हें कुछ मिलता मालूम पड़ता है, तो मैं बाधा न बनूंगा; फिकर छोड़ो कि गुरु की निंदा करने वाले को कहीं ठौर नहीं। मैं तुमसे कहता हूं, मैं हूं ठौर तुम्हारा। तुम्हें जितनी निंदा करनी हो, करो। वह जिन्होंने कहा होगा, कमजोर गुरु रहे होंगे। निंदा से डरते रहे होंगे। मेरी निंदा से मुझे कोई भय नहीं है। तुम्हारी निंदा से मेरा कुछ बनता—बिगड़ता नहीं है। और पराए तो मेरी निंदा करते ही हैं, अपने करेंगे तो कम से कम थोड़ी कुशलता से करेंगे यह भी आशा रखी जा सकती है। करो!

मगर एक बात खयाल रखना, इससे तुम्हारा विकास नहीं होता है। इसलिए मुझे दया आती है। इससे तुम्हें कोई गति नहीं मिलती। मेरी निंदा करने से तुम्हें क्या लाभ होगा? इस पर ध्यान करो। थोड़े स्वार्थी बनो। थोडी अपनी तो सोचो कि मुझे क्या लाभ होगा? यह समय मेरा व्यर्थ जाएगा। अब कृष्णप्रिया यहां वर्षों से है, और मैं समझता हूं वह यहां न होती तो कुछ हानि नहीं थी कुछ लाभ उसे हुआ नहीं, व्यर्थ ही यहां है; यहां होने न होने से कुछ मतलब नहीं है।

एस धम्मो सनंतनो 

ओशो 

Saturday, February 18, 2017

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--03)




गौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं हैं। मेटाफिजिक्स और परलोक के प्रश्नों में उनकी जरा भी--जरा भी--रुचि नहीं है। उनकी रुचि है मनुष्य के मनोविज्ञान में। उनकी रुचि है मनुष्य के रोग में और मनुष्य के उपचार में। बुद्ध ने जगत को एक उपचार का शास्त्र दिया है। वे मनुष्य जाति के पहले मनोवैज्ञानिक हैं।
इसलिए बुद्ध को समझने में ध्यान रखनासिद्धांत या सिद्धांतों के आसपास तर्कों का जाल उन्होंने जरा भी खड़ा नहीं किया है। उन्हें कुछ सिद्ध नहीं करना है। न तो परमात्मा को सिद्ध करना हैन परलोक को सिद्ध करना है। उन्हें तो आविष्कृत करना हैनिदान करना है। मनुष्य का रोग कहां हैमनुष्य का रोग क्या हैमनुष्य दुखी क्यों हैयही बुद्ध का मौलिक प्रश्न है।
परमात्मा है या नहींसंसार किसने बनायानहीं बनायाआत्मा मरने के बाद बचती है या नहींनिर्गुण है परमात्मा या सगुण--इस तरह की बातों को उन्होंने व्यर्थ कहा है। और इस तरह की बातों को उन्होंने आदमी की चालाकी कहा है। ये जीवन के असली सवाल से बचने के उपाय हैं। ये कोई सवाल नहीं हैं। इनके हल होने से कुछ हल नहीं होता।
नास्तिक मानता है ईश्वर नहीं हैतो भी वैसे ही जीता है। आस्तिक मानता है ईश्वर हैतो भी उसके जीवन में कोई भेद नहीं। अगर नास्तिक और आस्तिक के जीवन को देखो तो तुम एक सा पाओगे। तो फिर उनके विचारों का क्या परिणाम है?
परलोक है या नहींइससे तुम नहीं बदलते। और बुद्ध कहते हैंजब तक तुम न बदल जाओतब तक समय व्यर्थ ही गंवाया। बुद्ध की उत्सुकता तुम्हारी आंतरिक क्रांति में है। बुद्ध बार-बार कहते थेकि मनुष्य की दशा उस आदमी जैसी है जो एक अनजानी राह से गुजरता था और एक तीर आकर उसकी छाती में लग गया। वह गिर पड़ा है। लोग आ गए हैं। लोग उसका तीर निकालना चाहते हैं। लेकिन वह कहता है,ठहरो! पहले मुझे यह पता चल जाए कि तीर किसने मारा। ठहरोपहले मुझे यह पता चल जाए कि तीर उसने क्यों मारा। ठहरोमुझे यह पता चल जाए कि तीर आकस्मिक रूप से लगा है या सकारण। ठहरोमुझे यह पता चल जाए कि तीर विषबुझा हैया बिन-विषबुझा
बुद्ध ने कहावह आदमी दार्शनिक रहा होगा। वह बड़े ऊंचे सवाल उठा रहा है। लेकिन जो लोग इकट्ठे थे उन्होंने कहायह सवाल तुम पीछे पूछ लेना। पहले तीर निकाल लेने दोअन्यथा पूछने वाला मरने के करीब है। उत्तर भी मिल जाएंगे तो हम किसे देंगेऔर अभी इन प्रश्नों की कोई आत्यंतिकता नहीं है। अभी तीर खींच लेने दो। तीर छाती में लगा हैखतरा है। तुम ज्यादा देर न बच सकोगे
बुद्ध कहतेऐसी ही दशा में मैं तुम्हें पाता हूं। और तुम पूछते हो कि संसार किसने बनायापहले इसका पता चल जाएतब करेंगे ध्यान। क्यों बनायापहले इसका पता चल जाएतब बदलेंगे जीवन को। क्या कारण है परमात्मा का संसार बनाने मेंक्यों यह लीला उसने रचीजब तक इसका पता न चल जाएतब तक हम मंदिर में प्रवेश न करेंगे।
बुद्ध कहते हैंजीवन का तीर छाती में चुभा है। पल-पल मर रहे हो। किसी भी क्षण डूब जाओगे। ये उत्तरये प्रश्नसब व्यर्थ हैं। अभी तो एक ही बात पूछो कि कैसे यह तीर निकल आए।
इसलिए बुद्ध की बातें शायद उतनी गहरी न मालूम पड़ें जितनी कपिल और कणाद कीकांट और हीगल कीप्लेटो और अरस्तू की। लेकिन ज्यादा यथार्थ हैं। ज्यादा वास्तविक हैं। और गहराई का करोगे क्याअगर गहराई झूठी हो और शब्दों की होअसली सवाल यथार्थ को समझना है।
बुद्ध पहले मनुष्य हैं जिन्होंने परमात्मा के बिना ध्यान करने की विधि दी। जिन्होंने परमात्मा की मान्यता को ध्यान के लिए आवश्यक न माना। और न केवल परमात्मा की बल्कि आत्मा की धारणा को भी ध्यान के लिए आवश्यक न माना। उन्होंने कहाध्यान तो स्वास्थ्य है। तुम स्वस्थ हो सकते हो। फिर शेष तुम खोज लेना। मैं तुम्हें रोग से मुक्त करने आया हूं।
इसलिए बुद्ध को तुम एक मनस-चिकित्सक की भांति देखना। वे धर्मगुरु नहीं हैं। धर्मगुरु मान लेने से बड़ी भ्रांति हो गयी। तो लोग उन्हें दूसरे धर्मगुरुओं के साथ गिन देते हैं। वे धर्मगुरु जरा भी नहीं हैं। कहीं परमात्मा की धारणा के बिना कोई धर्म हो सकता हैकहीं आत्मा की धारणा के बिना कोई धर्म हो सकता हैतत्व की तो कोई बुद्ध ने बात ही नहीं की। तथ्य की बात की। उन जैसा यथार्थवादी खोजना मुश्किल है। और उन्होंने मनुष्य की असली तकलीफ को पकड़ा और कहा यह तकलीफ सुलझ सकती है।
उन्होंने चार आर्य-सत्यों की घोषणा की: कि मनुष्य दुखी है। इसमें किसको संदेह होगाइसका कौन विरोध करेगामनुष्य दुखी है। मनुष्य के दुख का कारण है। ठीक बुद्ध वैसा ही बोलते हैं जैसे वैज्ञानिक बोलता है। दुख का कारण है। क्योंकि अकारण कैसे दुख होगापैर में पीड़ा होतो कांटा लगा होगा। सिर दुखता होतो कारण होगा। पीड़ा है तो अकारण कैसे होगीपीड़ा का कारण है।
तो बुद्ध ने कहा है पहला आर्य-सत्य कि मनुष्य दुख में है। दूसरा आर्य-सत्य कि दुख का कारण है। और तीसरा आर्य-सत्य कि दुख के कारण को मिटाया जा सकता है। और चौथा आर्य-सत्य कि एक ऐसी भी दशा है जब दुख नहीं रह जाता।
बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि वहां आनंद होगा। क्योंकि वह कहते हैंव्यर्थ की बातों को क्यों करनाइतना ही कहावहां दुख नहीं होगा। आनंद को तुम समझोगे कैसेआनंद तुमने जाना नहीं। वह शब्द थोथा हैअर्थहीन है। तुम उसमें जो अर्थ भी डालोगेवह वही होगा जो तुमने जाना है। तुम अपने सुख को ही आनंद समझोगे। उसको थोड़ा बड़ा कर लोगे--करोड़ गुना कर लोगे--लेकिन वह मात्रा का भेद होगागुण का न होगा। और आनंद गुणात्मक रूप से भिन्न है। वह तुम्हारा सुख बिलकुल नहीं है। वह तुम्हारा दुख भी नहीं हैसुख भी नहीं है।
तो बुद्ध ने कहाउसकी बात कैसे करेंउसकी बात ही करनी उचित नहीं। इतना ही कहा कि दुख-निरोध हो जाएगा। तुमने जिसे दुख की तरह जाना हैवह वहां नहीं होगा। बीमारी नहीं होगी। स्वास्थ्य क्या होगावह तुम स्वयं स्वाद ले लेना और जान लेना। और जिन्होंने भी स्वाद लियाउन्होंने कहा नहीं। गूंगे का गुड़ है।
ये जो बुद्ध के वचन हैंउनके मनोविज्ञान की आधारशिलाएं हैं--
'विषय-रस में शुभ देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में असंयतभोजन में मात्रा न जानने वालेआलसी और अनुद्यमी पुरुष को मार वैसे ही गिरा देता है जैसे आंधी दुर्बल वृक्ष को।'
विषय-रस में शुभ देखते हुए जो जीता हैवह निरंतर दुख में गिरता है। इस बात को विस्तार से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि समस्त योग और समस्त अध्यात्म इसी बात की समझ पर खड़ा होता है। विषय में रस मालूम होता है। रस विषय में है या मनुष्य की अपनी धारणा में?
कभी कुत्ते को देखासूखी हड्डी को चूसता है और रस पाता है। सोचता हैसूखी हड्डी से लहू निकल रहा है। लहू निकलता नहीं। सूखीहड्डी में कहां लहूलेकिन सूखी हड्डी मुंह में चबाता है तो उसके मुंह से ही लहू बहने लगता है। सूखी हड्डी गड़ती हैचोट करती है मुंह मेंलहू निकल आता है। उस लहू को वह पीता हैऔर सोचता हैहड्डी से रस मिल रहा है।
लेकिन कुत्ते को समझाओसमझेगा न। उसने कभी भीतर प्रवेश करके देखा नहीं कि सूखी हड्डी से कैसा रस निकलेगासूखी हड्डी रसहीन है। और अगर रस निकल रहा है तो कहीं मुझसे ही निकलता होगा।
मैंने सुना है कि एक सर्दी की सुबह एक कुत्ता एक वृक्ष के नीचे धूप ले रहा है और विश्राम कर रहा है। उसी वृक्ष के ऊपर जगह बनाएबैठी है एक बिल्लीवह भी सुबह की झपकी ले रही है। उसको नींद में बड़े प्रसन्न होते देखकर कुत्ते ने पूछा कि मामला क्या हैतू बड़ी आनंदित मालूम होती है। उस बिल्ली ने कहा कि मैंने एक सपना देखाबड़ा अनूठा सपनाकि वर्षा हो रही हैपानी नहीं गिर रहाचूहे गिर रहे हैं। कुत्ते ने कहानासमझ बिल्ली! नासमझ कहीं कीमूढ़! न शास्त्र का ज्ञानन पुराण पढ़ेन इतिहास का पता! शास्त्रों में कभी भी ऐसा उल्लेख नहीं है। हांकई दफा वर्षा हुई हैसूखी हड्डियां जरूर बरसी हैंचूहे कभी नहीं।
लेकिन वह कुत्तों का शास्त्र है। बिल्ली के शास्त्रों में चूहों के बरसने का ही उल्लेख है। कुत्ते को सूखी हड्डी में रस है। इसलिए उसके पुराण सूखी हड्डियों के पास निर्मित होंगे। बिल्ली को चूहे में रस है। तो निश्चित ही चूहे में कुछ ऐसा नहीं है जिसके कारण बिल्ली को रस है। बिल्ली में ही कुछ ऐसा हैजो चूहे में रस है। कुत्ते में ही कुछ ऐसा हैजो हड्डी में रस है।
हमारी वृत्ति में कहीं रस का कारण हैविषय-वस्तु में नहीं। यह पहला विश्लेषण है।
मैं पढ़ रहा थादूसरे महायुद्ध में एक घटना घटी। बर्मा के जंगलों में सिपाहियों का एक जत्थासैनिकों का एक जत्था जूझ रहा है युद्ध में। महीनों हो गए। उन युवकों ने स्त्री की शकल नहीं देखी। और एक दिन दोपहर को एक तोता उड़ा जोर से कहता हुआ कि बड़ी सुंदर युवती है,अत्यंत सुंदर युवती है। सैनिकों ने अपनी बंदूकें रख दीं। बहुत दिन हुए स्त्री नहीं देखी। और तोता कह रहा है तो वे सब तोते का पीछा करते हुएभागे कि कहां जा रहा है। और वे जब पहुंचेपरेशानझाड़ियों को पार करकेतो वहां कोई स्त्री न थी। एक मादा तोताजिसकी वह तोता खबर कर रहा था। उन्होंने अपना सिर पीट लिया कि कहां इस नासमझ की बातों में पड़े!
लेकिन तोते का रस मादा तोते में है। तुम्हें कोई रस नहीं मालूम होता मादा तोते में। मादा तोते में कोई रस है भी नहीं। वह तो नर तोते की धारणा में है। पुरुष को स्त्री में रस मालूम होता है। स्त्री को पुरुष में रस मालूम होता है। वह रस बाहर नहीं हैवह तुम्हारी भावदशा में है। वह तुममें है। बुखार के बाद स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन में स्वाद नहीं मालूम होता। तुम्हारी जीभ ही बदल गयी है। तुम्हारी जीभ में स्वाद लेने की जो क्षमता हैवही नहीं रही है। भोजन में थोड़े ही स्वाद होता है। स्वाद तुम्हारी जीभ की क्षमता है। जब तुम स्वस्थ होते होस्वाद होता है। जब अस्वस्थ होते होस्वाद खो जाता है।
जीवन का जो रस हैवह वस्तु में और विषय में नहीं हैवह स्वयं तुममें है। और जब तक तुम उसे विषय में देखोगेतब तक तुम गलत मार्ग पर भटकते रहोगेक्योंकि तुम विषय का पीछा करोगे। जब तुम देखोगे कि वह रस मुझमें ही हैवह मैंने ही डाला है वस्तु मेंवह मैंने ही प्रक्षेपित किया हैवह रस मैंने ही आरोपित किया हैउसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति शुरू हो जाएगी। तब रस को खोजना हो तो अपने भीतर गहरे जाओ। अब बाहर जाने की कोई जरूरत न रही।
दुनिया में दो ही तरह की यात्राएं हैं। एक बाहर की यात्रा है। अधिक लोग उसी यात्रा पर जाते हैंक्योंकि उनको दिखता है कि रस बाहर है। हड्डियों में रस मालूम होता है। फिर कुछ लोग जाग जाते हैं। और उन्हें दिखायी पड़ता हैबाहर तो रस नहीं हैरस मैं ही डालता हूं। मैं ही डालता हूं और मैं ही अपने को भरमा लेता हूं। रस मुझमें है। तो फिर वे अंतर्यात्रा पर जाते हैं।
उस अंतर्यात्रा को ही बुद्ध ने योग कहा है।
'विषय-रस में शुभ देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में असंयत...।'
और जब तुम विषय-रस में देखोगे रसविषय में देखोगे रसतब तुम्हारी इंद्रियां अपने आप असंयत हो जाएंगी। क्योंकि मन चाहता है,भोग लो जितना ज्यादा भोग सको। कुछ चूक न जाए। समय भागा जाता है। जीवन चुका जाता है। मौत करीब आती चली जाती है। कुछ छूट न जाए। कुछ ऐसा न रह जाए कि मन में पछतावा रहे कि भोग न पाए। तो भोग लोज्यादा से ज्यादा भोग लो। उस ज्यादा की दौड़ से असंयम पैदा होता है।
आंख थक जाती हैतो भी तुम रूप को देखे चले जाते हो। जीभ थक जाती हैतो भी तुम भोजन किए चले जाते हो। पेट और लेने को तैयार नहीं हैफिर भी तुम भरे चले जाते हो। तब रस तो दूर रहाविरस पैदा होता है। ज्यादा खाने से कोई आनंदित नहीं होतापीड़ित होता है। ज्यादा देखने से आंखें सौंदर्य से नहीं भरतींसिर्फ थक जाती हैंधूमिल हो जाती हैं। ज्यादा दौड़ने सेधन-वस्तुएं इकट्ठी करने से भीतर एक तरह की रिक्तता बढ़ती जाती हैकुछ भराव नहीं आता। लेकिन मरते दम तकआखिरी क्षण तक आदमी भोग लेना चाहता है। मैंने सुना है--
गो हाथ को जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है
रहने दे अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे
मर रहे होहाथ नहीं हिल सकता--
गो हाथ को जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है
अभी देख तो सकता हूं। इसलिए शराब की प्याली तुम मेरे सामने से मत हटाओ। हाथ बढ़ाकर पी भी नहीं सकता।
रहने दे अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे
पर देख तो सकता हूं।
मरते दम तकजब तक आखिरी श्वास चलती हैतब तक भोग का रस बना रहता है। वह छूटता ही नहीं। जवानी चली जाती हैबुढ़ापाघेर लेता हैलेकिन मन जवान ही बना रहता है। मन उन्हीं तरंगों से भरा रहता हैजो जवानी में तो संगत भी हो सकती थीं--तूफान था। अब तो तूफान भी जा चुकातूफान के चिह्न रह गए हैं रेत के तट पर बनेयाददाश्त रह गयी है। लेकिन याददाश्त भी भरमाती हैसपने बनाती है। मन में तो व्यक्ति जवान ही बना रहता है। मौत आ जाती हैलेकिन भीतर आदमी जीवन के रस में ही डूबा रहता है। तब दुख न हो तो क्या हो?
दुख का अर्थ हैजहां नहीं था वहां खोजा। दुख का और क्या अर्थ हैरेत से तेल निकालने की चेष्टा की। आकाश-कुसुम तोड़ने चाहेजो थे ही नहीं। खरगोश के सींग खोजेजो थे ही नहीं। दुख का इतना ही अर्थ हैजो नहीं हो सकता था उसकी कामना की। फिर हाथ खाली रह जाते हैंमन बुझा-बुझा। सब तरफ विफलता का ढेर लग जाता है। और वही ढेर तुम्हारी कब्र बन जाता है।
जब तक विषय में रस है और ऐसा दिखायी पड़ता है कि वहां सुख हैजब तक आंख भीतर नहीं मुड़ी और यह नहीं दिखायी पड़ा कि सुख मैंने डाला हैवह मेरी दृष्टि हैमैं जहां डालूं वहां सुख होगाऔर जब मुझे यह समझ में आ जाए कि सुख मुझमें ही है--तो फिर डालने का सवाल क्या--मैं अपने में डूब जाऊं तो महासुख होगाआनंद होगा। जब तक वैसी घड़ी नहीं घटतीतब तक इंद्रियां असंयत होंगी। जब दृष्टि ही भ्रांत है तो संयम नहीं हो सकता।
संयम तो संतुलित दृष्टि का परिणाम है। संयम तो सम्यक दृष्टि का परिणाम है। सम्यक का अर्थ हैजहां है वहां दिखायी पड़ेजहां नहीं है वहां दिखायी न पड़े। तो फिर खोज सार्थक हो जाती है। तो उपलब्धि होती हैतो सिद्धि होती हैतो जीवन में सुख के फूल लगते हैंतो आनंद काअहोभाव पैदा होता है।
'विषय-रस में सुख देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में असंयतभोजन में मात्रा न जानने वालेआलसी और अनुद्यमी पुरुष को मार वैसे ही गिरा देता है जैसे आंधी दुर्बल वृक्ष को।'
मार बुद्ध का शब्द हैकामवासना के देवता के लिए। यह शब्द बड़ा अच्छा है। यह राम का बिलकुल उलटा है। अगर राम को उलटा करके लिखें तो मफिर बड़े अ की मात्राऔर फिर र। ठीक उलटा हो जाए तो मार हो जाता है। मार बुद्ध का शब्द हैकामवासना के देवता के लिए। और दो ही चित्तदशाएं हैं। या तो मार से प्रभावितया राम से आंदोलित। या तो तुम भीतर की तरफ चलोतब तुम राम की तरफ चलेया तुम बाहर की तरफ चलोतब तुम मार की तरफ चले।
'मार उस व्यक्ति को वैसे ही गिरा देता है जैसे आंधी दुर्बल वृक्ष को।'
कामवासना का देवता शक्तिशाली नहीं हैतुम दुर्बल हो। इस बात को ठीक से स्मरण रखो। कामवासना का देवता शक्तिशाली नहीं है। और अगर तुम गिर गए होतो उसकी शक्ति के कारण नहीं गिरे हो। तुम गिरे हो अपनी दुर्बलता के कारण। जैसे कि कोई सूखा जड़ से टूटा वृक्ष,दुर्बल हुआदीन-जर्जर हुआवृद्ध हुआआंधी में गिर जाता है। आंधी न भी आती तो भी गिरता। आंधी तो बहाना है। आंधी तो मन समझाने की बात है। क्योंकि ऐसे ही गिर गए बिना किसी के गिराएतो चित्त को और भी पीड़ा होगी। न भी आंधी आती तो वृक्ष गिरता ही। अपनी ही दुर्बलता गिराती है। दूसरे की सबलता का सवाल नहीं है। क्योंकि वस्तुतः वहां कोई वासना का देवता खड़ा नहीं हैजो तुम्हें गिरा रहा है। तुम ही गिरते हो। अपनी दुर्बलता से गिरते हो।
और आदमी दुर्बल कैसे हो जाता हैजो जहां नहीं है वहां खोजने से धीरे-धीरे अपने पर आस्था खो जाती है। व्यर्थ में सार्थक को खोजने से और न पाने से आत्मविश्वास डिग जाता है। पैर लड़खड़ा जाते हैं। और जीवनभर असफलता हाथ लगती हो तो स्वाभाविक है कि भरोसा नष्ट हो जाए। और आदमी डरने लगेकंपने लगे। पैर उठाए उसके पहले ही जानने लगेगा कि मंजिल तो मिलनी नहीं हैयात्रा व्यर्थ हैक्योंकि हजारों बार यात्रा की है और कभी कुछ हाथ लेकर लौटा नहीं। हाथ खाली के खाली रहे।
'आलसी और अनुद्यमी...।'
आलस्य असंयत जीवन का परिणाम है। जितना ही इंद्रियां असंयत होंगी और जितना ही वस्तुओं मेंविषयों में रस होगाउतना ही स्वभावतः आलस्य पैदा होगा।
आलस्य इस बात की खबर है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा एक संगीत में बंधी हुई नहीं है। आलस्य इस बात की खबर है कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा अपने भीतर ही संघर्षरत है। तुम एक गहरे युद्ध में हो। तुम अपने से ही लड़ रहे हो। अपना ही घात कर रहे हो।
उद्यम बुद्ध उसी को कहते हैं जब तुम्हारी जीवन-ऊर्जा एक संगीत में प्रवाहित होती है। तुम्हारे सब स्वर एक लय में बद्ध हो जाते हैं। तुम एक पुंजीभूत शक्ति हो जाते हो। तब तुम्हारे भीतर बड़ी ताजगी हैबड़े जीवन का उद्दाम वेग है। तब तुम्हारे भीतर जीवन की चुनौती लेने की सामर्थ्य है। तब तुम जीवंत हो। अन्यथा मरने के पहले ही लोग मर जाते हैं। मौत तो बहुत बाद में मारती हैतुम्हारी नासमझी बहुत पहले ही मार डालती है।
'विषय-रस में अशुभ देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में संयतभोजन में मात्रा जानने वालेश्रद्धावान और उद्यमी पुरुष को मार वैसे ही नहीं डिगाता जैसे आंधी शैल पर्वत को।'
आंधी आती हैजाती है। कोई हिमालय उससे डिगता नहीं। पर तुम्हारे भीतर हिमालय की शांतसंयत दशा होनी चाहिए। हिमालय एक प्रतीक है। बहुमूल्य शैल-शिखर। अर्थ केवल इतना है कि तुम जब भीतर अडिग होजब तुम्हें कुछ भी डिगाता नहींजब तुम ऐसे स्थिर हो जैसे शैल-शिखर--आंधी आती हैचली जाती हैतुम वैसे ही खड़े रहते हो जैसे पहले थे--तब तो ऐसा होगा कि आंधी तुम्हें और स्वच्छ कर जाएगी। गिराना तो दूरतुम्हारी धूल-झंखाड़ झाड़ जाएगी। तुम्हें और नया कर जाएगीताजा कर जाएगी।
इसे ऐसा समझो कि तुम राह से गुजरते हो। एक सुंदर युवती पास से गुजर गयी। इस सुंदर युवती में जीवन की एक धाराएक तरंग तुम्हारे पास से गुजरी। अगर तुम्हारी ऐसी भ्रांत चित्त की दशा है कि रस विषय में हैतो तुम कंप जाओगे। तो यह स्त्री का गुजर जाना या पुरुष का गुजर जानातुम्हें ऐसे कंपा जाएगा जैसे कि कोई सूखेमरते हुए वृक्ष को आंधी कंपा जाए। गिरने-गिरने को हो जाएया गिर ही जाए। तब तुमपाओगे कि यह घटना दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी। लेकिन अगर तुम संयत होअगर तुम शांत होअगर तुम मौन हो और अडिग होअगर ध्यान की तुम्हारे जीवन में थोड़ी सी भी किरण उतरी हैअगर तुमने थोड़ा सा भी जाना है कि चैतन्य का शांत हो जाना क्या हैतुमने अगर अपने भीतर बैठने और खड़े होने की कला थोड़ी सी भी सीखी हैऔर उस घड़ी में--जब एक सुंदर युवती पास से निकली या एक सुंदर युवक पास से निकला--अगर तुम अपने भीतर ध्यान में खड़े रहेतो तुम पाओगे कि उस स्त्री का सौंदर्यवह जीवन की धारा तुम्हें निखार गयीतुम्हें ताजा कर गयीतुम्हें प्रफुल्लित कर गयी। जैसे आंधी निकल गयी हो और वृक्ष पर जमी हुई धूल वर्षों की झड़ गयी हो। वृक्ष और ताजा हो गया।
जीवन को देखने के ढंग पर सब कुछ निर्भर है। अगर तुम्हारे देखने का ढंग गलत हैतो जीवन तुम्हारे साथ जो भी करेगा वह गलत होगा। तुम्हारा देखने का ढंग सही हैतो जीवन तो यही हैकोई और दूसरा जीवन नहीं हैलेकिन तब तुम्हारे साथ जो भी होगा वही ठीक होगा।
बुद्ध भी इसी पृथ्वी से गुजरते हैंतुम भी इसी पृथ्वी से गुजरते हो। यही चांदत्तारे हैं। यही आकाश है। यही फूल हैं। लेकिन एक के जीवन में रोज पवित्रता बढ़ती चली जाती है। एक रोज-रोज निर्दोष होता चला जाता है। निखरता चला जाता है। और दूसरा रोज-रोज दबता चला जाता हैबोझिल होता जाता हैधूल से भरता जाता हैअपवित्र होता जाता हैगंदा होता जाता है। मृत्यु जब बुद्ध को लेने आएगी तो वहां तो पाएगी मंदिर की पवित्रतावहां तो पाएगी मंदिर की धूपमंदिर के फूल। वहां तो पाएगी एक कुंवारापनजिसको कुछ भी विकृत न कर पाया।
जैसा कबीर ने कहा हैज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। तो बुद्ध तो चादर को वैसा का वैसा रख देंगे।
मुझे तो लगता है कि कबीर ने जो कहावह थोड़ा अंडरस्टेटमेंट है। वह अतिशयोक्ति तो है ही नहींसत्य को भी बहुत धीमे स्वर में कहा है। क्योंकि मेरी दृष्टि ऐसी है कि जब बुद्ध चादर को लौटाएंगे तो वह और भी पवित्र होगी। उससे भी ज्यादा पवित्र होगी जैसी उन्होंने पायी थी। होनी ही चाहिए। क्योंकि जैसे अपवित्रता बढ़ती है और विकासमान हैवैसे ही पवित्रता भी बढ़ती है और विकासमान है। जो पवित्रता बुद्ध को बीज की तरह मिली थीबुद्ध उसे एक बड़े वृक्ष की तरह लौटाएंगे
जीसस एक कहानी कहते थेकि एक बाप चिंतित था। तीन उसके बेटे थे और बड़ा उसके पास धनबड़ी समृद्धि थी। कुछ तय न कर पाता थाकिस बेटे को मालिक बनाए। तो उसने एक तरकीब की। उसने तीनों बेटों को बुलाया और तीनों बेटों को समान मात्रा में फूलों के बीज दिए और कहा कि मैं तीर्थयात्रा को जा रहा हूंइनको तुम सम्हालकर रखना। जब मैं वापस आऊंतो मुझे वापस लौटा देना। और ध्यान रहेइस पर बहुत कुछ निर्भर है। इसलिए लापरवाही मत करना। ये बीज ही नहीं हैंतुम्हारा भविष्य!
बाप तीन वर्ष बाद वापस लौटा। बड़े बेटे ने सोचा कि इन बीज को कहां सम्हालकर रखेंगेसड़ जाएंगे। और कुछ कम-बढ़ हो गया,झंझट होगीऔर बाप कह गया हैतुम्हारा भविष्य! तो उसने सोचायही उचित होगा कि इनको बाजार में बेच दिया जाए। पैसे को सम्हालकररखना आसान होगा। फिर जब बाप लौटेगाफिर बाजार से खरीदकर बीज उसको लौटा देंगे। यह बात ठीक गणित की थी।
दूसरे बेटे ने सोचा कि कैसे सम्हाला जाएबीज कहीं खो न जाएंकुछ कमी न हो जाएसड़ न जाएंकुछ गड़बड़ न हो जाए। और फिर जो बीज दिए हैंकहीं बाप उन्हीं की जिद्द न करेतो बेचना तो उचित नहीं है। और जब उसने कहाभविष्य इन पर निर्भर हैतो उसने एकतिजोड़ी में सब बीजों को बंद करकेताला लगाकर चाबी सम्हालकर रख ली।
तीसरे बेटे ने बीजों को जाकर बो दिया बगीचे में। क्योंकि बीज कहीं तिजोड़ी में सम्हाले जाते हैंऔर बाप ने जो अमानत दी हैवह कोई बाजार में बेचने की बात हैफिर खरीदकर भी लौटा देंगेतो वे वही बीज तो न होंगे। और बीज तो विकासमान है। उसको सम्हालकर रखने में तो या तो वह सड़ेगाखराब होगा। और एक बीज तो करोड़ बीज हो सकता है। जब पिता लौटेंगेतब तक और बहुत बीज लग जाएंगे।
तीन वर्ष बाद जब पिता लौटा तो उसने बड़े बेटे को कहा। वह भागा बाजार की तरफ। उसने कहारुकिएअभी लाता हूं। वह बाजार से बीज खरीद लायाठीक उसी मात्रा में थे। लेकिन बाप ने कहाये मेरे बीज नहीं हैं। जो मैंने दिए थे वे तूने कहीं गंवा दिए। ये कोई और बीज होंगे। लेकिन जो मैंने तुम्हें सम्हालने को दिए थे वे कहां हैं?
दूसरे बेटे को कहा। उसने तिजोड़ी सामने लाकर खोल दी। वहां से सिर्फ दुर्गंध उठी। क्योंकि सब बीज सड़ गए थे। राख थी वहां अब। बाप ने कहामैंने तुम्हें बीज दिए थे और तुम राख लौटाते हो! तो बेटे ने कहाये वही बीज हैं। बाप ने कहाये वही नहीं हैं। दूसरे ने तो कम से कम बीज लौटाए हैं--दूसरे बीज हैंतुम्हारे तो बीज भी नहीं हैं। यह तो राख है। मैंने तुम्हें बीज दिए थे। बीज का मतलब होता हैजो अंकुरित हो सके। क्या यह राख अंकुरित हो सकेगीक्या इसमें फूल लग सकेंगे?
तीसरे बेटे को पूछा। बेटे ने कहाआप मकान के पीछे आएंक्योंकि बीज वहां हैं जहां उन्हें होना चाहिए। पीछे करोड़ों फूल खिले थे। और बेटे ने कहाअभी जल्दी फसल आने के करीब हैहम बीज आपके लौटा देंगे। लेकिन हम उतने ही लौटाने में असमर्थ हैं जितने आपने दिए थे। करोड़ गुना हो गए। और उतने ही क्या लौटाना! क्योंकि बीज का अर्थ ही होता हैजो बढ़ रहा हैजो प्रतिपल विकासमान है। उसको उतना ही कैसे लौटाया जा सकता हैउसको उतना ही लौटाने का तो पहला उपाय है जो बड़े भाई ने किया। बेच दिया बाजार मेंदूसरे खरीद लाया। और वही बीज भी मैं आपको नहीं लौटा सकता हूंउनकी संतान लौटा सकता हूं। चूंकि वही बीज तो सड़ जाते। उनके लौटाने का तो ढंग वही है जो मेरे दूसरे भाई ने कियाजिसने आपको राख दी। लेकिन जिन बीजों से सुगंध उठ सकती है उनको दुर्गंध की शकल में लौटाना मुझे न भाया। ये आपके बीज हैंआप सम्हाल लें। ये सारे फूल आपके हैं। थोड़े से बीज करोड़ गुना हो गए थे।
नहींकबीर ने जो कहा है वह अतिशयोक्ति नहींउन्होंने सत्य को बड़े धीमे स्वर में कहा हैज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। बुद्धों नेचदरिया को और भी निखारकर लौटाया है। जो बीज थे उसको फूल की तरह लौटाया है। पवित्रता बढ़ती है प्रतिपलजैसे अपवित्रता बढ़ती है। तुम जिसे सम्हालोगे वही बढ़ने लगता है। जीवन में कोई चीज रुकी हुई नहीं हैसभी चीजें गतिमान हैं। जीवन एक प्रवाह है। या तो पीछे की तरफ जाओया आगे की तरफ जाओरुकने का कोई उपाय नहीं है। जो जरा भी रुकावह भटका।
ये पंक्तियां ध्यान से सुनो--
जुस्तजु-ए-मंजिल में इक जरा जो दम लेने
काफिले ठहरते हैं राह भूल जाते हैं
जरा दम लेने!
जुस्तजु-ए-मंजिल में इक जरा जो दम लेने
इस जिंदगी की राह परयात्रा पर जरा दम लेने को भी जो ठहरते हैं।
काफिले ठहरते हैं राह भूल जाते हैं
जो रुकावह भूला। जो जरा ठहरावह भटका। क्योंकि जो आगे न गयावह पीछे गया। जो बढ़ा नहींवह गिरा। जो चला नहींवह पीछे सरका। क्योंकि जीवन गति हैयहां ठहराव नहीं है। एडिंग्टन का बहुत प्रसिद्ध वचन है कि मनुष्य की भाषा में रेस्ट शब्द--ठहराव--सबसे झूठा शब्द है। क्योंकि ऐसी कोई घटना कहीं नहीं। कोई चीज ठहरी हुई नहीं है।
तुम यहां बैठे होठहरे हुए नहीं हो। तुम लगते हो बैठे हो। चल रहे हो। प्रतिपल बढ़ रहे हो। रात सो रहे होतब भी ठहरे हुए नहीं हो। बिस्तर पर भी हजारों प्रक्रियाएं चल रही हैं। तुम्हारा जीवन गतिमान है। रात भी नदी बह रही हैसुबह भी नदी बह रही हैदिन भी नदी बह रही है। अंधेरा हो कि उजालाआकाश में बादल घिरे हों कि आकाश खुला होनदी बह रही है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि रात सोते समय भी तुम्हारा मस्तिष्क पूरा काम कर रहा है। सीना पूरा काम कर रहा है। श्वास चल रही है। शरीर में खून शुद्ध किया जा रहा है। भोजन पचाया जा रहा है। तुम बू?ढ़े हो रहे होजवान हो रहे हो। कुछ घट रहा है। रुकाव जैसी कोई चीज नहीं है। पत्थर भी ठहरा हुआ नहीं है। क्योंकि पत्थर भी रेत होने के रास्ते पर आगे बढ़ा जा रहा है। आज पत्थर हैकल रेत हो जाएगा। कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। ठहराव झूठ है। ठहराव भ्रांति है। गति सत्य है।
बुद्ध ने तो गति को इतने आत्यंतिक ऊंचाई पर उठाया कि बुद्ध ने कहा कि जहां भी तुम्हें कोई चीज ठहरी हुई मालूम पड़ेवहीं समझ लेना झूठ है।
इसलिए बुद्ध ने परमात्मा शब्द का उपयोग नहीं किया। क्योंकि परमात्मा शब्द में ही ठहराव मालूम होता है। परमात्मा का मतलब हैजो हो चुका और अब नहीं हो सकता। जिसमें कोई गति नहीं। परमात्मा में गति कैसे होगीक्योंकि गति तो अपूर्ण में होती है। पूर्ण में कैसी गतिवह तो है ही वही जो होना चाहिए। अब उसमें कुछ और हो नहीं सकता। परमात्मा बूढ़ा नहीं हो रहाज्यादा ज्ञानी नहीं हो रहाअज्ञानी नहीं हो रहा,पवित्र नहीं हो रहाअपवित्र नहीं हो रहा।
बुद्ध ने कहाऐसी कोई चीज है ही नहीं। बुद्ध ने कहा, 'हैशब्द झूठ है; 'होनाशब्द सत्य है। जब तुम कहते होपहाड़ हैतो बुद्ध कहते हैंऐसा मत कहोपहाड़ है। ऐसा कहोपहाड़ हो रहा है। बुद्ध के प्रभाव में जो भाषाएं विकसित हुईंजैसे बर्मीजो कि बुद्ध-धर्म के पहुंचने के बाद भाषा बनीतो वहां 'हैजैसा कोई शब्द नहीं है बर्मी भाषा में। जब पहली दफा बाइबिल का अनुवाद किया बर्मी भाषा में तो बड़ी कठिनाईआयी। 'गॉड इज', इसको कैसे अनुवाद करो? 'ईश्वर है'--इसके लिए कोई ठीक-ठीक रूपांतरण बर्मी भाषा में नहीं होता। और जब रूपांतरण करो तो उसका मतलब होता है--'गॉड इज बिकमिंग'--ईश्वर हो रहा है। क्योंकि वह बुद्ध के प्रभाव में भाषा बनी है। बुद्ध ने कहाहर चीज हो रही है। तुम जवान होऐसा कहना ठीक नहीं है। जवान हो रहे हो। बूढ़े होऐसा कहना भी ठीक नहीं है। बूढ़े हो रहे हो। जीवन हैऐसा कहना ठीक नहीं। जीवन हो रहा है। मृत्यु हैऐसा कहना भी ठीक नहीं। मृत्यु हो रही है। जगत में क्रियाएं हैंघटनाएं नहीं।
इसलिए बुद्ध ने कहाकोई परमात्मा नहीं है। और बुद्ध ने कहाकोई आत्मा भी नहीं है। क्योंकि ये तो थिर चीजें मालूम पड़ती हैं। आत्मा,जैसे कोई ठहरा हुआ पत्थर भीतर रखा है। बुद्ध ने कहाऐसा कुछ भी नहीं है। चीजें हो रही हैं।
बुद्ध ने जो प्रतीक लिया है जीवन को समझाने के लिएवह है दीए की ज्योति। सांझ को तुम दीया जलाते हो। रातभर दीया जलता है,अंधेरे से लड़ता है। सुबह तुम दीया बुझाते हो। क्या तुम वही ज्योति बुझाते हो जो तुमने रात जलायी थीवही ज्योति तो तुम कैसे बुझाओगेवह ज्योति तो करोड़ बार बुझ चुकी। ज्योति तो प्रतिपल बुझ रही हैधुआं होती जा रही है। नयी ज्योति उसकी जगह आती जा रही है। रात तुमने जो ज्योति जलायी थी वह सुबह तुम उसे थोड़े ही बुझाओगे। उसी की शृंखला को बुझाओगेउसी को नहीं। वह तो जा रही हैभागी जा रही है,तिरोहित हुई जा रही है आकाश में। नयी ज्योति प्रतिपल उसकी जगह आ रही है।
तो बुद्ध ने कहातुम्हारे भीतर कोई आत्मा है ऐसा नहींचित्त का प्रवाह है। एक चित्त जा रहा हैदूसरा आ रहा है। जैसे दीए की ज्योति आ रही है। तुम वही न मरोगे जो तुम पैदा हुए थे। जो पैदा हुआ थावह तो कभी का मर चुका। जो मरेगा वह उसी संतति में होगाउसी शृंखला में होगालेकिन वही नहीं।
यह बुद्ध की धारणा बड़ी अनूठी है। लेकिन बुद्ध ने जीवन को पहली दफा जीवंत करके देखा। और जीवन को क्रिया में देखागति में देखा। और जो भी आलस्य में पड़ा हैजो रुक गया हैठहर गया हैजो नदी न रहा और सरोवर बन गयावह सड़ेगा
'विषय-रस में अशुभ देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में संयतभोजन में मात्रा जानने वालेश्रद्धावान और उद्यमी पुरुष को मार वैसे ही नहीं डिगाता जैसे आंधी शैल-पर्वत को।'
तुम्हारी निर्बलता और दुर्बलता का सवाल है। जब तुम हारते होअपनी दुर्बलता से हारते हो। जब तुम जीतते होअपनी सबलता से जीतते हो। वहां कोई तुम्हें हराने को बैठा नहीं है। इस बात को खयाल में ले लो। शैतान है नहींमार है नहीं। तुम्हारी दुर्बलता का ही नाम है। जब तुम दुर्बल होतब शैतान है। जब तुम सबल होतब शैतान नहीं है। तुम्हारा भय ही भूत है। तुम्हारी कमजोरी ही तुम्हारी हार है।
इसलिए यह जो हम बहाने खोज लेते हैं अपना उत्तरदायित्व किसी के कंधे पर डाले देने काकि शैतान ने भटका दियाकि क्या करें मजबूरी हैपाप ने पकड़ लिया। कोई पाप है कहीं जो तुम्हें पकड़ रहा हैतुमने भला पाप को पकड़ा होपाप तुम्हें कैसे पकड़ेगा?
तो मार तो केवल एक काल्पनिक शब्द है। इस बात की खबर देने के लिए कि तुम जितने कमजोर होते हो उतना ही तुम्हारी कमजोरी के कारणतुम्हारी कमजोरी से ही आविर्भूत होता है तुम्हारा शत्रु। तुम जितने सबल होते होउतना ही शत्रु विसर्जित हो जाता है।
सबल होने की कला योग है। कैसे तुम अपने भीतर संयत हो जाओ। तो हर चीज सम्यक होनी चाहिए। इंद्रियों का उपयोग संयम से भरा होना चाहिए। बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थेजब तुम राह पर चलोचार कदम आगे से ज्यादा मत देखो। कोई जरूरत नहीं है। चार कदम आगे देखना पर्याप्त है। उतना संयम है।
लेकिन तुम भी चलते हो रास्ते पर। जिस दीवाल पर लिखे हुए इश्तहार को तुम हजार बार पढ़ चुके होउसको आज फिर पढ़कर आए हो। वह चाहे हिमकल्याण तेल होया बंदर छाप काला दंतमंजन होउसको तुम कितनी बार पढ़ चुके हो। उसे तुम क्यों बार-बार पढ़ रहे हो?
तुम उसे पढ़ो न--बुद्ध की तरह अगर तुम चार कदम नीचे देखकर चलो--तो दीवालें अपने आप साफ हो जाएं। लोग लिखना बंद कर दें। तुम पढ़ते होइसलिए वे लिखते हैं। तुम जब तक पढ़ते रहोगे तब तक वे लिखते रहेंगे। क्योंकि बार-बार पढ़कर तुम्हारे मन में एक सम्मोहन पैदा होता है। बंदर छाप काला दंतमंजनबंदर छाप काला दंतमंजन...। जब तुम दुकान पर दंतमंजन खरीदने जाओगेतुम्हें याद ही न पड़ेगा तुम्हारे मुंह से कब निकल गया--बंदर छाप काला दंतमंजन
तुम सोचते हो सोच-विचारकर खरीद रहे हो। वह बार-बार की पुनरुक्ति ने तुम्हें सम्मोहित किया। बार-बार की पुनरुक्ति ने तुम्हारे मन पर संस्कार छोड़ दिए। तुम उन्हीं को दोहराए चले जा रहे हो। इसलिए तो विज्ञापन का इतना भारी उपयोग है। लोग चीजें बाद में बनाते हैं,विज्ञापन पहले चला देते हैं।
अमरीका में तो दोत्तीन साल बाद प्रोडक्शन शुरू होगा उस चीज काउत्पत्ति शुरू होगीतीन साल पहले विज्ञापन शुरू हो जाता है। क्योंकि बाजार पहले बनाना पड़ता है। मांग पहले पैदा करनी पड़ती है। और जब मांग पैदा हो जाती हैतो ही बाजार में सामान लाने की कोई जरूरत है। और आदमी ऐसा पागल है कि किसी भी चीज के लिए उसको तुम खरीदने के लिए राजी कर सकते होसिर्फ दीवालों परअखबारोंमेंरेडियो परटेलीविजन पर दोहराने की जरूरत है। कुछ भी दोहराओआदमी तैयार हो जाएगा खरीदने को। क्योंकि उसे लगेगा कि पता नहीं कौन सा सुख मैं चूका जा रहा हूंजो इस चीज से मिलने वाला है।
सुख की भ्रांति दोसुख की आशा बंधाओ और कोई भी चीज बेची जा सकती है। आदमी से ज्यादा मूढ़ कोई और दूसरा जानवर पृथ्वी पर नहीं है। तुम किसी भैंस को भी राजी नहीं कर सकते। वह अपनी प्रकृति से जीती है। जो घास खाना हैवही खाती है। तुम कितना ही विज्ञापन करोतुम कितना ही बैंड-बाजा बजाओवह बिलकुल फिकर न करेगी। लेकिन आदमीतत्क्षण! क्योंकि आदमी अपनी प्रकृति भूल गया है। तो ऐसी चीजें खा रहा है जिनमें कुछकोई भी पौष्टिकता नहीं है। लेकिन विज्ञापन चला रहा है उन चीजों कोतो वह खाएगा
धीरे-धीरे सभी चीजें अपनी पौष्टिकता खोती जा रही हैं। क्योंकि यह सवाल ही नहीं है कि उनमें जीवनदायीत्तत्व होने चाहिए। रंग अच्छा होना चाहिएगंध अच्छी होनी चाहिए। अब रंग और गंध से कोई पौष्टिकता का संबंध नहीं है। रंग और गंध तो ऊपर से डाली जा सकती हैं। डाली जा रही हैं। भोजन रंगीन दिखना चाहिएसुगंध अच्छी आनी चाहिएफिर उससे खून बनता है या नहींयह सवाल नहीं है। फिर उससे हड्डी बनतीहै या नहींयह सवाल नहीं है। तुम किसी जानवर को धोखा नहीं दे सकते। वह जानता है कि क्या उसके जीवन में उपयोगी है। लेकिन आदमी को धोखा दिया जा सकता है। दिया जा रहा है। हर चीज के लिए तुम उसे राजी कर सकते होठीक विज्ञापन की जरूरत है।
बुद्ध कहते थेचार कदम से आगे देखना ही मत। क्योंकि उतना चलने के लिए पर्याप्त है। इसको वह संयम कहते हैं। बुद्ध कहतेजो सुनने योग्य नहीं हैउसे सुनना मत। जो छूने योग्य नहीं हैउसे छूना मत। जितना जीवन में जरूरी हैआवश्यक हैउससे पार मत जाना। और तुम अचानक पाओगेतुम्हारे जीवन में शांति की वर्षा होने लगी। अशांत तुम इसलिए हो कि जो गैर-जरूरी है उसके पीछे पड़े हो। जो मिल जाए तो कुछ न होगाऔर न मिले तो प्राण खाए जा रहा है। गैर-जरूरी वही है जिसके मिलने से कुछ भी न मिलेगालेकिन जब तक नहीं मिला है तब तक रात की नींद हराम हो गयी है। तब तक सो नहीं सकतेशांति से बैठ नहीं सकतेक्योंकि मन में एक ही उथल-पुथल चल रही है कि घर में दो कार होनी चाहिए। एक कार गरीब आदमी के घर में होती है। दो कार होनी चाहिए।
पहले अमरीका में वे विज्ञापन करते थे कि कम से कम घर में एक कार होनी ही चाहिए। अब इतनी कारें तो घरों-घरों में हो गयी हैं--एक-एक कार तो हर घर में है। तब उन्होंने दूसरा विज्ञापन शुरू किया कि एक कार तो गरीब घर में होती है। अगर तुम सफल होतो कम से कम दो कार घर में होनी चाहिए। अब दो कार घर में होनी चाहिए! चाहे एक में भी बैठने वाले पर्याप्त न हों। लेकिन दो कार घर में होनी ही चाहिए। नहीं तो वह प्रतिष्ठा का सवाल है। अब कार कोई बैठने के लिए नहीं खरीदता अमरीका मेंवह प्रतिष्ठा की बात हैवह प्रेस्टिजपावर। उससे शक्ति का पता चलता है कि तुम कितने शक्तिशाली हो।
अब उन्होंने वहां प्रचार करना शुरू किया है कि अगर तुम सफल हो गए होतो एक घर पहाड़ परएक घर समुद्र के तट पर और एक घर शहर मेंकम से कम तीन घर तो होने ही चाहिए। आदमी एक ही घर में रह सकता है! तुम्हारे पास कितने कपड़े हैंतुमने कितने इकट्ठे कर रखे हैंकितने कपड़े तुम एक बार में पहन सकते होकितने जूते के अंबार लगा रखे हैं तुमने?
मैं घरों में ठहरता रहा हूं। कभी-कभी दंग होता हूं। भगवान की मूर्ति के लिए जगह नहीं हैजूतों के लिए अलमारियां लगा रखी हैं। एक जूता तुम पहनते हो। इतने जूते अनिवार्य नहीं हैं। जरा भी आवश्यक नहीं हैं। व्यर्थ इनको झाड़ना-पोंछना पड़ता है। तुम नाहक चमार बन गए हो। सुबह से इनको नाहक पोंछोझाड़ोतैयार करके रखोएक तुम पहनोगे। लेकिन कोई तुम्हें समझा रहा है कहीं सेकि ऐसा होना चाहिए।
तुम अगर अपने जीवन की फेहरिश्त बनाओ कि तुमने कितना गैर-जरूरी इकट्ठा कर लिया हैतो तुम नब्बे प्रतिशत गैर-जरूरीपाओगे। और उस नब्बे प्रतिशत के लिए तुमने कितना श्रम उठाया! कितनी चिंता ली! कितने व्याकुल हुए! कितना व्यर्थ जीवन गंवाया! और अगरतुमसे कोई कहे ध्यानइबादतप्रार्थनातुम कहते हो समय कहां हैसमय है नहीं। समय होगा भी कैसे! क्योंकि व्यर्थ के लिए इतना समय दिया जा रहा है।
बुद्ध ने कहा हैजिस व्यक्ति को भी यह समझ में आ गया कि विषयों में रस नहीं हैवह संयत होने लगता हैअपने आप संयत होने लगता है। तब उसका जीवन वासनाग्रस्त नहीं होता। आवश्यकता से निश्चित ही मर्यादित होता हैलेकिन वासना से ग्रस्त नहीं होता। आवश्यकता की सीमा है। वासना की कोई सीमा नहीं। वासना है एक तरह की विक्षिप्तता। आवश्यकता जीवन की जरूरत है। भोजन चाहिएकपड़ा चाहिए,छप्पर चाहिए। एक आवश्यकता हैउतनी पूरी होनी चाहिए। और हर आदमी उसे पूरी कर लेता है। उसके कारण कोई चिंता नहीं है तुम्हारे भीतर। चिंता तुम्हारे भीतर उन चीजों के कारण है जो आवश्यक नहीं हैं। उन्हीं का तुम्हें रोग खाए जा रहा है।
'विषय-रस में अशुभ देखते हुए विहार करने वालेइंद्रियों में संयतभोजन में मात्रा जानने वालेश्रद्धावान और उद्यमी पुरुष को मार वैसे ही नहीं डिगाता जैसे आंधी शैल-पर्वत को।'
बुद्ध के संघ में बहुत समय तक बुद्ध ने स्त्रियों को दीक्षा न दी। बहुत आग्रह करने परऔर एक बड़ी अनूठी महिला कृशा गौतमी के अत्यंत निवेदन करने पर बुद्ध ने स्वीकार किया। लेकिन तब उन्होंने कुछ नियम बनाए। जब वे नियम बनाते थेतो उन्होंने भिक्षुओं से कई सवाल पूछेनियम बनाने के निमित्त। और आनंद ने बहुत से प्रश्न उठाए नियमों के संबंध मेंताकि सब नियम विस्तारपूर्ण हो जाएं। तो आनंद ने पूछा कि कोई भिक्षु अगर किसी स्त्री को मार्ग पर मिलेया भिक्षुणी को मार्ग पर मिलेतो क्या व्यवहार होना चाहिएतो बुद्ध ने कहाभिक्षुणीचाहे भिक्षु उम्र में उससे छोटा भी होतो भी उसे प्रणाम करे। यह बात जरा बुद्ध के मुंह में जमती नहीं। महावीर ने भी यही नियम बनाया--कि भिक्षुणी,साध्वीचाहे सत्तर साल की होचाहे दीक्षा लिए हुए उसे पचास साल हो गए होंऔर अभी कल के दीक्षित साधु के सामने भी आ जाए तो झुककर नमस्कार करे। साधु को ऊपर बिठाएस्वयं नीचे बैठे। यह बात महावीर के मुंह में भी जमती नहीं। क्योंकि दोनों स्वतंत्रता के बड़ेसमानता के बड़े परिपोषक थे।
जैन और बौद्ध दोनों परेशान रहे हैं कि कैसे इन बातों को छिपाया जाए। वे उनकी चर्चा नहीं उठाते। लेकिन मैं इसमें बड़ा गहरा कारण देखता हूं। क्योंकि बुद्ध और महावीर जब ऐसी बात कहते हैं तो बड़े अर्थ हैं उनके। एक मनुष्य के मन की बड़ी गहरी बात बुद्ध ने पकड़ी। अगर कोई स्त्री पुरुष को सम्मान देतो फिर पुरुष की वासना उसके प्रति बहनी मुश्किल हो जाती हैकठिन हो जाती है। अगर कोई स्त्री तुम्हारे पैर छू लेतो फिर वासना असंभव हो जाती है--उसने द्वार बंद कर दिया। क्योंकि पुरुष वासना में उसी स्त्री के प्रति झुक सकता है जिसने उसे सम्मान न दिया होजिसने उसे आदर न दिया हो। क्योंकि वासना में झुकने का मतलब है पुरुष खुद अपनी ही आंखों में अपने से नीचे गिरता है। इसलिए वेश्या के साथ तुम जितने वासना का संबंध बना सकते हो किसी और के साथ नहीं बना सकते। क्योंकि उसके सामने नीचे गिरने में कोई डर नहीं है। उसने कभी तुम्हें कोई आदर दिया नहीं।
बुद्ध और महावीर नेदोनों ने पुरुष के अहंकार को पकड़ लिया ठीक जगहकि उसका अहंकार ही अगर रुक जाए तो ही रुक सकेगा,अन्यथा वासना का प्रवाह हो जाएगा। अगर कोई स्त्री तुम्हें बहुत सम्मान से चरण छू लेतो उसने तुम्हें इतना सम्मान दिया कि अब तुम्हें इस सम्मान की रक्षा करनी पड़ेगी। अब तुम्हें ऐसा व्यवहार करना पड़ेगा जिसमें उसका दिया गया सम्मान खंडित न हो। अब तुम वासना के तल पर नीचे न उतर सकोगे। उसने रास्ता रोक दिया।
आनंद ने पूछा कि अगर कोई ऐसी घड़ी आ जाए कि स्त्री और पुरुष साथ-साथ होंभिक्षु-भिक्षुणी साथ-साथ होंतो एक-दूसरे का स्पर्श?तो बुद्ध ने कहानहीं। पुरुष स्त्री को न छुए। स्त्री पुरुष को न छुए। आनंद ने कहाऔर अगर कोई ऐसी मजबूरी आ जाए कि भिक्षुणी बीमार हो,या भिक्षु बीमार हो और सेवा करनी पड़ेतो बुद्ध ने कहावैसी दशा में छुएलेकिन होश रखे।
पहले तो देखे न। अगर देखना पड़ेतो छुए न। अगर छूना पड़े तो मूर्च्छा में न रहेहोश रखे। भीतर जागा रहे। क्योंकि मनुष्य के मन की जो वासनाएं हैं उनकी आदत तो बड़ी प्राचीन हैऔर होश बड़ा नया है। ध्यान तो अभी साधा हैसाधना शुरू किया हैऔर वासना बड़ी प्राचीन है। जन्मों-जन्मों की है। उसके संस्कार बड़े गहरे हैं। और जरा सी भी भूल-चूक हुईजरा सा भी मन मूर्च्छित हुआ कि वासना के मार्ग से जीवन बहना शुरू हो जाता हैएक क्षण में। इधर तुम भूलेउधर वासना का प्रवाह शुरू हुआ। अगर जागे ही रहोअगर भीतर होश को रखोतो ही संभव है कि धीरे-धीरे पुरानी परिपाटी टूटेपुरानी लीक मिटेनया रास्ता बने। मार के साथ संबंध पुराने हैं। राम के साथ संबंध बनाने हैं।
'जो असार को सार समझते हैं और सार को असारवे मिथ्या संकल्प के भाजन लोग सार को प्राप्त नहीं होते।'
अगर तुमने सार को असार समझा हैअसार को सार समझा हैअगर ऐसी विपरीत तुम्हारी बुद्धि हैतो फिर तुम कैसे सार को प्राप्त होसकोगेतुम तो फिर असार को सार समझकर खोजते रहोगे
इसलिए तो एक बहुत मजे की घटना जीवन में घटती है। वह घटना यह है कि जब तक तुम्हें धन नहीं मिलता तब तक पता नहीं चलता कि धन असार है। जब मिलता है तब पता चलता है। ठीक भी है। क्योंकि जब तक मिला नहीं तब तक पता कैसे चलेतब तक तो तुम्हें सारदिखायी पड़ता है। जब मिल जाता हैतब बड़ी मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि जिसको सार मानकर इतने दिन खोजाइतना श्रम उठायाइतनी स्पर्धा कीइतने जूझेइतना जीवन गंवायावह जब मिलता हैतब अचानक तुम हैरान हो जाते हो कि सार तो कहीं भी नहीं है। फिर भला तुम दूसरों से न कहो। क्योंकि अब दूसरों से कहकर और फजीहत क्या करवानी है! और दूसरे हंसेंगे। लेकिन तुम्हें समझ में आ जाता है।
इस संसार में जिनको तुम सफल कहते होउनको जितनी अपनी असफलता दिखायी पड़ती है उतनी किसी को भी दिखायी नहीं पड़ती। जिनको तुम अमीर कहते होउनको जितनी अपनी गरीबी का पता चलता है उतना किसी को भी नहीं चलता। जिनको तुम पंडित कहते होउनको जितने अपने अज्ञान का बोध होता हैकिसी को भी नहीं होता। कहें भले न। कहने के लिए हिम्मत चाहिए। कहने के लिए बड़ा दुस्साहस चाहिए। क्योंकि कहने का मतलब यह होगा कि मैं अपने पूरे जीवन को व्यर्थ घोषित करता हूंकि अब तक मैंने जो खोजाजो मैंने श्रम उठायावह दो कौड़ी का साबित हुआ। मैं गलती में था। बड़ा मुश्किल होता है यह मानना कि मैं गलती में था। और सफलता के शिखर पर मानना तो अहंकार के बिलकुल प्रतिकूल हो जाता है।
लेकिन यही कथा है।
असफल ही सोचता है कि सार होगा धन मेंसार होगा पद में। जो पद पर हैंजो धन पर हैंवे नहीं सोचते। सोच ही नहीं सकते। भले दिखावा करते होंलेकिन भीतर से भवन गिर गया है। ऊपर से साज-सजावट बनाए रखते होंनींव खिसक गयी है। अगर तुममें थोड़ी भी समझ हो और गहरे देखने की क्षमता होतो हर सफल आदमी में तुम असफलता को पाओगे। और हर आदमी की यश-कीर्ति में तुम बड़ा संतप्त हृदयपाओगेरोता हुआ हृदय पाओगे। मुस्कुराहटों में अगर झांकने की क्षमता आ जाएतो तुम छिपे हुए आंसू देख पाओगे
'जो असार को सार समझते हैं और सार को असारवे मिथ्या संकल्प के भाजन लोग सार को प्राप्त नहीं होते।'
होंगे भी कैसे!
'जो सार को सार जानते हैं और असार को असारवे सम्यक संकल्प के भाजन लोग सार को प्राप्त होते हैं।'
सार क्या हैइसे जान लेना आधा पा लेना है। क्या है सारअब तक जिंदगी में तुमने जो खोजा हैउसमें से तुम्हें क्या ऐसा लगता है जिसे सार कहा जा सकेधन खोज लियाकल तुम मरोगेवह पड़ा रह जाएगा। जो साथ न जा सके वह सार कैसे होगाप्रशंसा पा लीलोगों नेतालियां बजायीं और गजरे पहना दिए। गजरे क्षणभर बाद कुम्हला जाएंगेतालियों की आवाज हो भी न पाएगी और खो जाएगी। और सारी दुनिया भी ताली बजाएतो भी सार क्या होगामिलेगा क्याउससे तुम्हें कौन सी जीवन-संपदा उपलब्ध होगीऔर फिर भरोसा कहां हैजो आज ताली बजाते हैंवे कल गाली देने लगते हैं।
असल में जिसने भी ताली बजायीवह गाली देगा ही। वह बदला लेगा। जब ताली बजायी थी तो वह कोई प्रसन्नता में नहीं बजा रहा था। लोग दूसरों से अपने लिए ताली बजवाना चाहते हैंतब प्रसन्न होते हैं। तुम भी जब कोई ताली तुम्हारे लिए बजाता है तब तुम प्रसन्न होते हो। जब तुम्हें बजानी पड़ती हैतुम मजबूरी में बजाते हो। शायद इस आशा में बजाते हो कि हम दूसरों के लिए बजाएंगेतो दूसरे हमारे लिए बजाएंगेचलो अभी हम तुम्हारे लिए बजाए देते हैंकल तुम हमारे लिए बजा देना। ऐसा पारस्परिक लेन-देन चलता है। हम तुम्हारी प्रशंसा कर देते हैंतुम हमारी कर देना। लेकिन कौन किसी दूसरे के सुख के लिए चेष्टा कर रहा हैलोग अपने सुख की चेष्टा कर रहे हैं।
इसलिए जो आदमी भी तुम्हारी प्रशंसा करेगावह कभी न कभी बदला लेगा। उसके भीतर कांटा गड़ता ही रहेगा कि प्रशंसा करनी पड़ी।देखेंगे किसी उचित समय परजब हमारा हाथ ऊपर होगा और तुम्हारा नीचे होगा। यहां कौन अपना हैइस जिंदगी का कुल हिसाब इतना है--
कुछ हसीं ख्वाब और कुछ आंसू
उम्र भर की यही कमाई है
कुछ सुंदर सपने और कुछ आंसूउम्रभर की यही कमाई है। सपने देखते रहोसपनों को संजोते रहो और टूटे सपनों के लिए रोते रहो। इधर टूटे सपने इकट्ठे होते जाते हैंतुम नए सपने देखते रहो। अतीत तुम्हारा आंसू बनता जाता हैभविष्य हसीन ख्वाब। बसइन दोनों के बीच में तुम जीते हो। कल जो बीत गया कुछ भी पाया नहींरेगिस्तान हो गया। आने वाले कल में तुम मरूद्यान बसाए होवह भी कल बीता जाता है। वह भी आज हो गयावह भी कल हो जाएगा--वह भी जा रहा है। मरते वक्त तुम पाओगेपूरा जीवन एक रेगिस्तान की यात्रा थी--लंबीथकान भरीधूल-धवांस भरी। हारसंतापचिंता सब थालेकिन और कुछ हाथ न लगा। धूल हाथ लगी।
कुछ अपना नहीं हो पाता। और जो अपना नहीं हैवह सार नहीं हो सकता। सार तो वही है जो तुम्हारा हो जाएतुम्हारे भीतर हो जाए,और कभी तुमसे अलग न हो। जो तुम्हारी सत्ता बन जाएतुम्हारा अस्तित्व बन जाए। सार की हमारी परिभाषा यही है। असार वही हैजो तुमसेबाहर रहे। आज तुम्हारा हैकल पराया हो जाए। हो ही जाएगा। कल किसी और का था। कोई घर यहां मकान नहीं है। सभी सराय हैं। कल कोई और ठहरा थाआज तुम ठहरे होकल कोई और ठहर जाएगा।
दुनिया का एतबार करें भी तो क्या करें
आंसू तो अपनी आंख का अपना हुआ नहीं
अपनी आंख का आंसू भी यहां अपना नहीं होताऔर अपना क्या हो सकता हैजिनको हम अपना कहते हैं वे भी अपने नहीं हैं। अपने अतिरिक्त अपना यहां कुछ भी नहीं। स्वयं के अतिरिक्त और कोई संपत्ति नहीं है।
इसलिए जिसने जीवन को स्वयं की खोज में लगाया हैउसने ही सार की खोज में लगाया है। और जो और कुछ भी खोज रहा हो स्वयं कोछोड़करवह चाहे सारी पृथ्वी की संपदा पा लेसारा साम्राज्य पा लेआखिर में पाएगा हाथ खाली हैं। हृदय एक रोता हुआ भिखारी का पात्र है,जिसमें कुछ भी न पड़ा। और जीवन ऐसे ही गया।
जो जितनी जल्दी जाग जाए उतना समझदार है। बुद्धि की और प्रतिभा की यही कसौटी है कि कितनी जल्दी तुम जागे। और थोड़े ही कोईबुद्धिमाप है। पश्चिम में बुद्धिमाप को नापने का ढंग है वह बहुत सस्ता है। हमने पूरब में एक अलग ढंग निकाला था। हम आदमी की प्रतिभा इस बात से मापते थे कि कितनी जल्दी उसने पहचाना कि असार असार है और सार सार है। कितनी जल्दीजो जितनी जल्दी पहचान लियाउतना ही प्रतिभाशाली है। जो मरते दम तक नहीं पहचान पाताजो आखिरी घड़ी आ जाती है और कहे चला जाता है--
गो हाथ को जुंबिश नहीं आंखों में तो दम है
रहने दे अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे
वह प्रतिभाहीन है। वह मूढ़ है। उसमें कोई समझ नहीं है। वह कितना ही समझदार हो दुनिया की नजरों मेंवह अपने ही भीतर अनुभव करेगा कि उस समझदारी से उसने दूसरों को धोखा भले दिया होअस्तित्व को धोखा नहीं दे पाया। अस्तित्व के सामने तो वह नंगा भिखारी ही रहेगा।
'जो सार को सार जानते हैं और असार को असारवे ही सम्यक संकल्प के भाजन लोग सार को प्राप्त होते हैं।'
पहचानपाने का पहला कदम है। हीरा हीरा समझ में आ जाए तो खोज शुरू होती है। पत्थर पत्थर समझ में आ जाएतो छोड़ना शुरू हो गयाछूट ही गया। ठीक को पहचान लेनामहावीर ने सम्यक ज्ञान कहा है। शंकर ने विवेक कहा है। सम्यक दृष्टि। ठीक से देख लेनाक्या अपना हो सकता है। अपने अतिरिक्त और कुछ अपना नहीं हो सकता है। इसलिए वही खोजने योग्य है।
जीसस ने कहा हैतुम सारे संसार को पा लो और खुद को गंवा दोतो तुमने कुछ भी नहीं पाया। और तुम खुद को पा लो और सारा संसार गंवा दोतो तुमने कुछ भी नहीं गंवाया। जो अपना नहीं थावह अपना था ही नहीं। जो अपना थावही अपना है।
'जिस तरह ठीक प्रकार से न छाए हुए घर में वर्षा का पानी घुस जाता हैउसी प्रकार ध्यान-भावना से रहित चित्त में राग घुस जाता है।'
'जिस प्रकार ठीक से छाए हुए घर में वर्षा का पानी नहीं घुस पाता हैउसी प्रकार ध्यान-भावना से युक्त चित्त में राग नहीं घुस पाता है।'
राग को तुम छोड़ न पाओगे। ध्यान को जगाना पड़ेगा। इतनी पहचान पहले तुम्हें आ जाए कि क्या व्यर्थ है और क्या सार्थक हैफिर तुम ध्यान को जगाओ। फिर राग को छोड़ने में मत लग जाना। क्योंकि वह भूल बहुतों ने की है। राग को पकड़ोतो भी राग से उलझे रहोगेराग कोछोड़ोतो भी राग से उलझे रहोगे। असली सवाल राग का नहीं है।
तो बुद्ध बड़ा ठीक उदाहरण दे रहे हैं। सीधासरलकि ठीक से घर के छप्पर पर इंतजाम न किया गया होखपड़ेल ठीक से न छायी होतो वर्षा का पानी घुस जाता है। फिर ठीक से आच्छादित हो घरखपड़ेल ठीक से साज-संवार कर रखी गयी होवर्षा का पानी नहीं घुस पाता। ध्यान से छायी हुई आत्मा में राग प्रवेश नहीं करता। राग घुस रहा है तो इसका इतना ही संकेत समझना कि आत्मा पर ठीक से छावन नहीं की गयी हैध्यान का छप्पर छेद वाला है।
इसलिए राग को छोड़ने की फिक्र मत करना। वह तो ऐसा ही होगा कि ठीक से घर छाया हुआ नहीं हैवर्षा आ गयीआषाढ़ के मेघ घिरगएपानी बरसने लगा और तुम घर का पानी उलीचने में लगे हो। तुम उलीचते रहो पानीइससे कोई फर्क न पड़ेगा। क्योंकि घर का छप्पर नए पानी को लिए आ रहा है। राग को उलीचने से कुछ भी न होगा। छप्पर को ठीक से छा लेना जरूरी है।
इसलिए समस्त प्रज्ञावान पुरुषों का जोर ध्यान पर है। और जो महात्मा तुम्हें साधारणतया समझाते हैं कि राग छोड़ोगलत समझाते हैं। वे तुमसे कह रहे हैंपानी उलीचो। नाव में छेद हैवे कहते हैंपानी उलीचो। पर तुम पानी उलीचते रहोनाव का छेद नया पानी भीतर ला रहा है। पानी तो उलीचो जरूरपहले छेद को बंद करो। फिर पानी को उलीचने में कोई कठिनाई न होगी। छप्पर को छा दोफिर जो थोड़ा- बहुत पानी बचा रह गया हैउसे बाहर कर देने में क्या अड़चन होने वाली हैध्यान जो साध लेता हैउसका राग अपने आप मिट जाता है। राग से जोलड़ता हैउसका राग तो मिटता ही नहींध्यान भी सधना मुश्किल हो जाता है।
मेरे पास रोज लोग आते हैं। वे कहते हैंकिसी तरह क्रोध चला जाए। मैं उनसे कहता हूंतुम क्रोध की फिकर मत करोतुम ध्यान करो। वे कहते हैंध्यान से क्या होगाआप तो हमें क्रोध छोड़ने की तरकीब बता दें। ऐसे लोग भी आ जाते हैंवे कहते हैंहमें ध्यान-व्यान से कुछ लेना-देना नहींहमारा तो मन अशांत हैयह भर शांत हो जाए। अब वे क्या कह रहे हैंउन्हें पता नहीं!
अभी चार दिन पहले एक वृद्ध सज्जन ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस मेरे मन में चिंता सवार रहती हैसो नहीं सकता ठीक से,कंपता रहता हूंडरता रहता हूंबस यह मेरा मिट जाए। न मुझे मोक्ष चाहिएन मुझे आत्मा के ज्ञान का कुछ लेना-देना हैन मुझे भगवान का कोई प्रयोजन हैबस मेरी चिंता मिट जाए। अब यह आदमी यह कह रहा है कि यह जो वर्षा का पानी घर में भर गया हैयह भर न भरे। मुझे खप्पर छाने नहींमुझे मोक्षपरमात्माआत्मा से कुछ लेना-देना नहीं।
अब कुछ भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि यह समझ ही नहीं रहा है कि बीमारी कहां है।
धन छोड़ने में मत लगनाध्यान को पाने में लगना। क्योंकि छोड़ने में जो शक्ति लगाओगे उतनी ही शक्ति से ध्यान पाया जा सकता है। मुफ्त तो छोड़ना भी नहीं होताउसमें भी ताकत लगानी पड़ती है। वह ताकत व्यर्थ गंवा रहे हो तुम। पहला काम हैघर के छप्पर को ठीक से छालो।
जीवन का एक आधारभूत नियमएक सारभूत नियम कि गलत को छोड़ने में मत लगनाठीक को पाने में लगना। अंधेरे को हटाने में मत लगनादीए को जलाने में लगना। एस धम्मो सनंतनो। यही सनातन धर्म है।

आज इतना ही।