एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग रहा है, वहभी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल न किया हो।खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। आंख बंदकरके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह जाए।हमें ही दिखाई पड़ सकता है।
सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, प्रीतिकरउत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भीबदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए मछलीके मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता है, कांटेतक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती।
एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति एकदम सेबंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे चले! इतनेजोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये के सुख मेंचलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, इसलिए बंद होजाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं चाहिए था, लोहेका फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की उत्तेजना में भी धडकतारहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, तो सुख भी भारी पड़जाता है।
खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भीमात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख कीमात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौरसे उतरता नहीं।
यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को नहींमार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख कोसहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुखमिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दुख को सहना बहुतआसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख केबाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहरनिकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है।
सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते हैं, वहतत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो जाएगी।क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख में द्वारहै, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर पूरामिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय नहींरह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है।
गीता दर्शन
ओशो
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