Friday, March 16, 2018

बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। वह एक द्वार पर भिक्षा मांग रहे हैं और उस द्वार का दरवाजा खुला और गृहिणी ने कहा, आगे हटो! तो वह आगे हट गए। पास का एक पड़ोसी ब्राह्मण यह देख रहा है। दूसरे दिन फिर उसी द्वार पर उन्होंने भिक्षा मांगी, और वह स्त्री अब तो बहुत ही गुस्से में आ गयी। वह कचरा साफ करके कचरा फेंकने जा रही थी, उसने सारा कचरा बुद्ध पर फेंक दिया और कहा कि तुझे कुछ बुद्धि नहीं है! समझ नहीं है! कल मैंने भगाया फिर आ गया, अब यह ले। बुद्ध आगे बढ़ गए।
अब उस ब्राह्मण को भी दया आयी इस पर। ऐसे दया कारण नहीं थी, आनी नहीं थी, क्योंकि ब्राह्मण तो बुद्ध पर बहुत नाराज थे। मगर उसे दया आयी कि बेचारा! मगर यह है क्या बात, कल इसने हटा दिया, मैंने सुना; और आज इस पर कचरा भी फेंक दिया, यह है कैसा आदमी!
और जब उसने तीसरे दिन फिर बुद्ध को उस दरवाजे पर खड़ा देखा तो वह घबड़ाया। उसने कहा, अब तो वह स्त्री कहीं अंगारा न फेंक दे, या कोई और तरह की चोट न कर दे। वह आया, उसने कहा कि महाशय! आपको समझ नहीं है? मैं तीन दिन से देख रहा हूं। पहले दिन उसने इनकार करके हटा दिया अपमानपूर्वक., आप चुपचाप चले गए, दूसरे दिन कचरा फेंका आज आप फिर आ गए ' कचरा फेंका तब आपको कुछ समझ में नहीं आया कि इससे कुछ मिलने वाला नहीं है? बुद्ध ने कहा, उससे ही तो खयाल आया कि चलो कुछ तो दिया, कचरा दिया! पहले दिन भी तो कुछ दिया था—नाराज हुई थी, वह भी तो कुछ देना है। अन्यथा नाराज होने का भी क्या कारण है! कुछ न कुछ लगाव होगा। नाराज ही सही, जो आज नाराज है, कल शायद न नाराज भी रह जाए। आदमी बदलते हैं।
और वह ब्राह्मण तो चकित रह गया। उस स्त्री ने दंरवॉंजा खोला, उसने भी चौंककर देखा! उसने कहा, भिक्षु, कल कचरा फेंका, तुम्हें समझ नहीं आया?
बुद्ध ने कहा, समझ में आया, इतनी मेहनत की कचरा फेंकने की, तो किसी दिन शायद कुछ मिल ही जाए। उस स्त्री की आंखों में आसू आ गए। उस दिन वह भोजन ले आयी।
तो बुद्ध कहते थे, कोई कुछ न भी दे तो भी धन्यवाद देना। क्योंकि किसी पर हमारा कोई अधिकार तो नहीं है। दिया तो धन्यवाद, नहीं दिया तो धन्यवाद। जो दे उसका भला, जो न दे उसका भला, ऐसी भावदशा चाहिए।
'लोग अपनी श्रद्धा— भक्ति के अनुसार देते हैं। जो दूसरों के खान—पान को देखकर सहन नहीं कर सकता।

ओशो.
ऐस धम्मो सनंतनो,प्रवचन-81

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