Sunday, March 25, 2018

सुख अगर पूरा मिल जाये...

एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग रहा है, वहभी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल न किया हो।खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। आंख बंदकरके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह जाए।हमें ही दिखाई पड़ सकता है।

सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, प्रीतिकरउत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख से भीबदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए मछलीके मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता है, कांटेतक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती।

एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति एकदम सेबंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे चले! इतनेजोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये के सुख मेंचलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, इसलिए बंद होजाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं चाहिए था, लोहेका फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की उत्तेजना में भी धडकतारहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, तो सुख भी भारी पड़जाता है।

खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भीमात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख कीमात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौरसे उतरता नहीं।

यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को नहींमार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख कोसहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुखमिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दुख को सहना बहुतआसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख केबाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहरनिकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है।

सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते हैं, वहतत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो जाएगी।क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख में द्वारहै, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर पूरामिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय नहींरह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है।

गीता दर्शन 

ओशो

याचना से जो मिला वो दो कौड़ी का है

याचना से कुछ मिले, दो कौड़ी का है। मांग कर कुछ मिले, मूल्य न रहा। बिन मांगे मिले, तो ही मूल्यवान है।
ध्यान रखना, इस जगत में भिखारी की तरह तुम अगर मांगते रहे, मांगते रहे,.. वही तो वासना है। वासना का अर्थ क्या है? मांग। तुम कहते हो : यह मिले, यह मिले, यह मिले! तुम जितना मांगते हो, उतना ही बड़ा भिखमंगापन होता जाता है, और उतना ही जीवन तुम्हें लगता है विषाद से भरा हुआ। तुम जो मांगते हो, मिलता नहीं मालूम होता।
स्वामी राम ने कहा है कि एक रास्ते से मैं गुजरता था। एक बच्चा बहुत परेशान था। सुबह थी, धूप निकली थी, सर्दी के दिन थे और बच्चा अपान में खेल रहा था। वह अपनी छाया को पकड़ना चाहता था। तो उचक—उचक कर छाया को पकड़ रहा था। बार—बार थक जाता था, दुखी हो जाता था, उसकी आंख में आंसू आ गए, फिर छलांग लगाता। लेकिन जब तुम छलांग लगाओगे, तुम्हारी छाया भी छलांग लगा जाती है। वह छाया को पकड़ने की कोशिश करता है, छाया नहीं पकड़ पाता है। राम खड़े देख रहे हैं, खिलखिला कर हंसने लगे। उस बच्चे ने राम की तरफ देखा। वे बड़े प्यारे संन्यासी थे, अदभुत संन्यासी थे! वे उस बच्चे के पास गए। उन्होंने कहा, जो मैं करता रहा जन्म—जन्म, वही तू कर रहा है। फिर मैंने तो तरकीब पा ली, मैं तुझे तरकीब बता दूं?
वह छोटा—सा बच्चा रोता हुआ बोला : बताएं, कैसे पकडूं?
राम ने उसका हाथ उठा कर उसके माथे पर रख दिया। देखा उधर छाया पर भी उसका हाथ माथे पर पड़ गया। वह बच्चा हंसने लगा। वह प्रसन्न हो गया।
उस बच्चे की मां ने राम से कहा, आपने हद कर दी! आपके बच्चे हैं?
राम ने कहा, मेरे बच्चे तो नहीं। लेकिन जन्मों—जन्मों का यही अनुभव मेरा भी है। जब तक दौड़ो, पकड़ो—हाथ कुछ नहीं आता। जब अपने पर हाथ रख कर बैठ जाओ, हाथ फैलाओ ही मत, मांगो ही मत, दौड़ो ही मत, छीना—झपटी छोड़ो—सब मिल जाता है।

Friday, March 16, 2018

बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है। वह एक द्वार पर भिक्षा मांग रहे हैं और उस द्वार का दरवाजा खुला और गृहिणी ने कहा, आगे हटो! तो वह आगे हट गए। पास का एक पड़ोसी ब्राह्मण यह देख रहा है। दूसरे दिन फिर उसी द्वार पर उन्होंने भिक्षा मांगी, और वह स्त्री अब तो बहुत ही गुस्से में आ गयी। वह कचरा साफ करके कचरा फेंकने जा रही थी, उसने सारा कचरा बुद्ध पर फेंक दिया और कहा कि तुझे कुछ बुद्धि नहीं है! समझ नहीं है! कल मैंने भगाया फिर आ गया, अब यह ले। बुद्ध आगे बढ़ गए।
अब उस ब्राह्मण को भी दया आयी इस पर। ऐसे दया कारण नहीं थी, आनी नहीं थी, क्योंकि ब्राह्मण तो बुद्ध पर बहुत नाराज थे। मगर उसे दया आयी कि बेचारा! मगर यह है क्या बात, कल इसने हटा दिया, मैंने सुना; और आज इस पर कचरा भी फेंक दिया, यह है कैसा आदमी!
और जब उसने तीसरे दिन फिर बुद्ध को उस दरवाजे पर खड़ा देखा तो वह घबड़ाया। उसने कहा, अब तो वह स्त्री कहीं अंगारा न फेंक दे, या कोई और तरह की चोट न कर दे। वह आया, उसने कहा कि महाशय! आपको समझ नहीं है? मैं तीन दिन से देख रहा हूं। पहले दिन उसने इनकार करके हटा दिया अपमानपूर्वक., आप चुपचाप चले गए, दूसरे दिन कचरा फेंका आज आप फिर आ गए ' कचरा फेंका तब आपको कुछ समझ में नहीं आया कि इससे कुछ मिलने वाला नहीं है? बुद्ध ने कहा, उससे ही तो खयाल आया कि चलो कुछ तो दिया, कचरा दिया! पहले दिन भी तो कुछ दिया था—नाराज हुई थी, वह भी तो कुछ देना है। अन्यथा नाराज होने का भी क्या कारण है! कुछ न कुछ लगाव होगा। नाराज ही सही, जो आज नाराज है, कल शायद न नाराज भी रह जाए। आदमी बदलते हैं।
और वह ब्राह्मण तो चकित रह गया। उस स्त्री ने दंरवॉंजा खोला, उसने भी चौंककर देखा! उसने कहा, भिक्षु, कल कचरा फेंका, तुम्हें समझ नहीं आया?
बुद्ध ने कहा, समझ में आया, इतनी मेहनत की कचरा फेंकने की, तो किसी दिन शायद कुछ मिल ही जाए। उस स्त्री की आंखों में आसू आ गए। उस दिन वह भोजन ले आयी।
तो बुद्ध कहते थे, कोई कुछ न भी दे तो भी धन्यवाद देना। क्योंकि किसी पर हमारा कोई अधिकार तो नहीं है। दिया तो धन्यवाद, नहीं दिया तो धन्यवाद। जो दे उसका भला, जो न दे उसका भला, ऐसी भावदशा चाहिए।
'लोग अपनी श्रद्धा— भक्ति के अनुसार देते हैं। जो दूसरों के खान—पान को देखकर सहन नहीं कर सकता।

ओशो.
ऐस धम्मो सनंतनो,प्रवचन-81