Wednesday, July 2, 2025

ध्यान की महिमा

वासना, फल की आकांक्षा है। ध्यान, फलाकांक्षा से मुक्‍ति है।
      इसलिए कृष्ण की पूरी गीता एक शब्द पर टिकी है : फलाकांक्षा का त्याग। वासना कहती है, कल क्या होगा, उसको सोचती है। उसी सोचने में आज को गंवा देती है। ध्यान आज जीता है; कल को सोचता नहीं। उसी जीने से कल उमगता है, निकलता है।
      कल एक महिला ने रात मुझे पूछा, सच में ध्यान से शाति मिलेगी? अगर मिलने की पक्की गारंटी हो तो वह ध्यान करने का सोचती है। गारंटी कौन देगा? और मजा तो यह है कि ध्यान का अर्थ ही है कि क्या मिलेगा उसको छोड़ देना। ध्यान में भी अगर फलाकांक्षा है कि क्या शाति मिलेगी? तो फिर ध्यान भी ध्यान न रहा, वासना हो गया।
      ध्यान से शांति मिलती है—मिलेगी, ऐसा नहीं—मिलती है वह उसका परिणाम है। लेकिन ध्यान करने वाले को इतनी वासना भी रखनी खतरनाक है कि शांति मिलनी चाहिए; तब फिर वह ध्यान नहीं कर रहा है, विचार ही कर रहा है। ध्यान में इतना लोभ भी बाधक है। ध्यान भी हो जाए, इतना लोभ भी बाधक है। इसलिए इतने लोग ध्यान करते हैं और चूकते चले जाते हैं, क्योंकि बुनियादी कुंजी ही चूक जाते हैं।
      इस क्षण में परिपूर्ण होना है। इस क्षण से बाहर नहीं जाना है। इस क्षण को पूरा अस्तित्व जानना है। इस क्षण के बाद कुछ भी नहीं है—न पीछे कुछ, न आगे कुछ; यही क्षण है। इसी क्षण में हम पूरे के पूरे घिर हो जाएं, ध्यान हो गया। बड़ी शांति मिलती है। ध्यान रखना, मिलेगी, ऐसा नहीं कह रहा हूं मिलती है। लेकिन उन्हीं को मिलती है, जो मांगते नहीं। जिन्होंने मांगी, वे कुंजी चूक गए। मैली तो वासना हो गई, मांगी तो कल आ गया, मांगी तो फल आ गया।
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही है, फल नहीं है
      जैसे तुम्हें एक बार इसकी झलक मिल जाएगी, फिर कठिनाई न रह जाएगी। पहली झलक अत्यंत कठिन है, क्योंकि पहली झलक करीब—करीब असंभव मालूम होती है। तुम पूछोगे, जब आकांक्षा ही नहीं करनी तो हम ध्यान करें ही क्यों? करेंगे ही कैसे? करेंगे तो आकांक्षा के साथ करेंगे।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुमने अब तक जो भी किया, आकांक्षा के साथ किया। लेकिन तुम अभी तक यह न देख पाए कि आकांक्षा  तो बहुत की, पाया क्या? आकांक्षा  से अभी भी तुम थके नहीं? आकांक्षा  से अब तक तुम्हारे मुंह में कडुवापन नहीं आया? आकांक्षा  से तुम अभी तक ऊबे नहीं? आकांक्षा  ने दिया क्या? देने के भरोसे बहुत दिए, कोई भरोसा पूरा नहीं हुआ। आकांक्षा  ने भ्रम के सिवा और क्या दिया? चलाए चली, पहुंचाया तो कहीं नहीं।
      आकांक्षा को जब तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, आकांक्षा से कुछ भी नहीं मिला। आकांक्षा गिर जाएगी उस बोध के क्षण में। और उसी बोध के क्षण में ध्यान उपलब्ध होता है। आकांक्षा  का अभाव ध्यान है।
      पहले ऐसे कभी—कभी घटेगा, फिर—फिर तुम भटक जाओगे। फिर धीरे—धीरे ज्यादा—ज्यादा घटेगा, कम—कम भटकोगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि तुम बिलकुल थिर हो जाओगे। हवाओं के झोंके आएंगे, गुजर जाएंगे, तुम्हारी लौ न कंपेगी। दुख आएंगे सुख आएंगे, तुम निष्कंप चलते रहोगे। सब छूट जाएगा, क्योंकि तुमने अपने को पा लिया होगा।
      वस्तुत: जिसने स्वयं को पा लिया, सब पा लिया। छूटता है, क्योंकि जिसने  —सब पा लिया, अब वह व्यर्थ को पाने के लिए नहीं दौड़ता।
      सत्युरुष ऐसी संपदा का धनी हो जाता है, जो शाश्वत है। ऐसे पद पर विराजमान हो जाता है, जिसके पार कोई पद नहीं।
      निश्चित ही, सब छंद—राग छूट जाते हैं, क्योंकि महाछंद बज उठता है। छंदों का छंद भीतर अहर्निश बजने लगता है। सब गीत—गान बंद हो जाते हैं, क्योंकि गायत्री मुखरित हो उठती है।

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