बुद्धत्व उस क्षण में घटित होता है जब तुम्हारे भीतर कोई शिकायत नहीं, जब तुम कहीं नही जा रहे, कोई वासना नहीं, कोई निंदा नहीं, कोई आलोचना नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं। सिर्फ तुम होते हो और पूर्ण स्वीकृति के साथ होते हो, उसी क्षण बुद्धत्व वहां है।
बुद्धत्व बहुत साधारण बात है। वह कुछ असाधारण बात नहीं -- क्योकि विशेषता अहंकार की खोज है।
कोई मांग नही, किसी के लिए कोई ललक नही, कोई पकड़ नहीं। तुम सिर्फ हो, और तुम प्रसन्न हो--अकारण प्रसन्न हो।
इसे याद रखो। प्रसन्नता और आनंद मे यही अंतर है। तुम्हारी प्रसन्नता सकारण है। कभी कोई मित्र आ गया है और तुम प्रसन्न हो। मित्र के साथ कितनी देर तुम प्रसन्न रह सकते हो ? कुछ घड़ीयां। यह सकारण है। आनंद अकारण प्रसन्नता है।
एक बुद्ध पुरुष वैसे ही सिर्फ सुखी है जैसे तुम सिर्फ दुखी हो। जब कभी जूता काटता है, वह दुख नहीं है, वह मात्र शारीरिक पीड़ा है - एक असुविधा, लेकिन दुख नहीं।
बुद्ध पुरुष को भी कष्ट हो सकता है, लेकिन दुख कभी नही होता - क्योंकि दुख कैसे हो सकता है? अगर उसके आनंद का कोई कारण नहीं है, तो दुख असंभव है।
आनंद का कोई विपरीत नहीं है। वह बिल्कुल अकारण है। इसी कारण वह शाश्वत है। क्योंकि एक सकारण वस्तु शाश्वत नही हो सकती -- जब कारण मिट जाता है, कार्य भी मिट जाता है।
वास्तविकता को पूर्णरूपेण स्वीकार करना ही बुद्धत्व है।
ओशो
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