Wednesday, July 2, 2025

ध्यान की महिमा

वासना, फल की आकांक्षा है। ध्यान, फलाकांक्षा से मुक्‍ति है।
      इसलिए कृष्ण की पूरी गीता एक शब्द पर टिकी है : फलाकांक्षा का त्याग। वासना कहती है, कल क्या होगा, उसको सोचती है। उसी सोचने में आज को गंवा देती है। ध्यान आज जीता है; कल को सोचता नहीं। उसी जीने से कल उमगता है, निकलता है।
      कल एक महिला ने रात मुझे पूछा, सच में ध्यान से शाति मिलेगी? अगर मिलने की पक्की गारंटी हो तो वह ध्यान करने का सोचती है। गारंटी कौन देगा? और मजा तो यह है कि ध्यान का अर्थ ही है कि क्या मिलेगा उसको छोड़ देना। ध्यान में भी अगर फलाकांक्षा है कि क्या शाति मिलेगी? तो फिर ध्यान भी ध्यान न रहा, वासना हो गया।
      ध्यान से शांति मिलती है—मिलेगी, ऐसा नहीं—मिलती है वह उसका परिणाम है। लेकिन ध्यान करने वाले को इतनी वासना भी रखनी खतरनाक है कि शांति मिलनी चाहिए; तब फिर वह ध्यान नहीं कर रहा है, विचार ही कर रहा है। ध्यान में इतना लोभ भी बाधक है। ध्यान भी हो जाए, इतना लोभ भी बाधक है। इसलिए इतने लोग ध्यान करते हैं और चूकते चले जाते हैं, क्योंकि बुनियादी कुंजी ही चूक जाते हैं।
      इस क्षण में परिपूर्ण होना है। इस क्षण से बाहर नहीं जाना है। इस क्षण को पूरा अस्तित्व जानना है। इस क्षण के बाद कुछ भी नहीं है—न पीछे कुछ, न आगे कुछ; यही क्षण है। इसी क्षण में हम पूरे के पूरे घिर हो जाएं, ध्यान हो गया। बड़ी शांति मिलती है। ध्यान रखना, मिलेगी, ऐसा नहीं कह रहा हूं मिलती है। लेकिन उन्हीं को मिलती है, जो मांगते नहीं। जिन्होंने मांगी, वे कुंजी चूक गए। मैली तो वासना हो गई, मांगी तो कल आ गया, मांगी तो फल आ गया।
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही है, फल नहीं है
      जैसे तुम्हें एक बार इसकी झलक मिल जाएगी, फिर कठिनाई न रह जाएगी। पहली झलक अत्यंत कठिन है, क्योंकि पहली झलक करीब—करीब असंभव मालूम होती है। तुम पूछोगे, जब आकांक्षा ही नहीं करनी तो हम ध्यान करें ही क्यों? करेंगे ही कैसे? करेंगे तो आकांक्षा के साथ करेंगे।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुमने अब तक जो भी किया, आकांक्षा के साथ किया। लेकिन तुम अभी तक यह न देख पाए कि आकांक्षा  तो बहुत की, पाया क्या? आकांक्षा  से अभी भी तुम थके नहीं? आकांक्षा  से अब तक तुम्हारे मुंह में कडुवापन नहीं आया? आकांक्षा  से तुम अभी तक ऊबे नहीं? आकांक्षा  ने दिया क्या? देने के भरोसे बहुत दिए, कोई भरोसा पूरा नहीं हुआ। आकांक्षा  ने भ्रम के सिवा और क्या दिया? चलाए चली, पहुंचाया तो कहीं नहीं।
      आकांक्षा को जब तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगे, आकांक्षा से कुछ भी नहीं मिला। आकांक्षा गिर जाएगी उस बोध के क्षण में। और उसी बोध के क्षण में ध्यान उपलब्ध होता है। आकांक्षा  का अभाव ध्यान है।
      पहले ऐसे कभी—कभी घटेगा, फिर—फिर तुम भटक जाओगे। फिर धीरे—धीरे ज्यादा—ज्यादा घटेगा, कम—कम भटकोगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि तुम बिलकुल थिर हो जाओगे। हवाओं के झोंके आएंगे, गुजर जाएंगे, तुम्हारी लौ न कंपेगी। दुख आएंगे सुख आएंगे, तुम निष्कंप चलते रहोगे। सब छूट जाएगा, क्योंकि तुमने अपने को पा लिया होगा।
      वस्तुत: जिसने स्वयं को पा लिया, सब पा लिया। छूटता है, क्योंकि जिसने  —सब पा लिया, अब वह व्यर्थ को पाने के लिए नहीं दौड़ता।
      सत्युरुष ऐसी संपदा का धनी हो जाता है, जो शाश्वत है। ऐसे पद पर विराजमान हो जाता है, जिसके पार कोई पद नहीं।
      निश्चित ही, सब छंद—राग छूट जाते हैं, क्योंकि महाछंद बज उठता है। छंदों का छंद भीतर अहर्निश बजने लगता है। सब गीत—गान बंद हो जाते हैं, क्योंकि गायत्री मुखरित हो उठती है।

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Tuesday, July 1, 2025

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--031)

 तप्रज्ञसत्पुरुष है—(प्रवचन-इक्‍तीसवां)  

 सारसूत्र:

सब्‍बत्थ वे सप्‍परिसा चजान्ति न कामकामा लपयन्ति संतो
सुखेन फुठ्ठा अथवा दुखेन न उच्चावचं पंडिता दस्सयन्ति ।।74।।

न अत्‍तहेतु न परस्स हेतु न पुत्‍तमिच्‍छे न धनं न रठ्ठं ।
नइच्‍छेय्य अधम्मेन समिद्धिमत्तनो स सीलवा पन्जवा धम्मिको सिया ।।75।।

अप्‍पका ते मनुस्‍सेयु ये जना पारगामिनो ।
अथायं इतरा पजा तीरमेवानुधावति ।।76।।
क प्राचीन कथा है जंगल की राह से एक जौहरी गुजरता था। देखा उसने राह मेंएक कुम्हार अपने गधे के गले में एक बड़ा हीरा बांधकर चल रहा है। चकित हुआ! पूछा कुम्हार सेकितने पैसे लेगा इस पत्थर केकुम्हार ने कहाआठ आने मिल जाएं तो बहुत। लेकिन जौहरी को लोभ पकड़ा। उसने कहाचार आने में दे—देपत्थर हैकरेगा भी क्या?

      पर कुम्हार भी जिद बांधकर बैठ गयाछह आने से कम न हुआ तो जौहरी ने सोचा कि ठीक हैथोड़ी देर में अपने आप आकर बेच जाएगा। वह थोड़ा आगे बढ़ गया। लेकिन कुम्हार वापस न लौटा तो जौहरी लौटकर आयालेकिन तब तक बाजी चूक गई थीकिसी और ने खरीद लिया था। तो पूछा उसने कि कितने में बेचाउस कुम्हार ने कहा कि हुजूरएक रुपया मिला पूरा। आठ आने में बेच देताछह आने में बेच देताबड़ा नुकसान हो जाता।
      उस जौहरी की छाती पर कैसा सदमा लगा होगा! उसने कहामूर्ख! तू बिलकुल गधा है। लाखों का हीरा एक रुपए में बेच दिया?
      उस कुम्हार ने कहाहुजूर मैं अगर गधा न होता तो लाखों के हीरे को गधे के गले में ही क्यों बांधतालेकिन आपके लिए क्या कहेंआपको पता था कि लाखों का हीरा है और पत्थर की कीमत में भी लेने को राजी न हुए!
      धर्म का जिसे पता हैउसका जीवन अगर रूपांतरित न हो तो उस जौहरी की भांति गधा है। जिन्हें पता नहीं हैवे क्षमा के योग्य हैंलेकिन जिन्हें पता हैउनको क्या कहें?
      दो ही संभावनाएं हैं : या तो उन्हें पता ही नहीं हैसोचते हैंपता है। और यही संभावना ज्यादा सत्यतर मालूम होती है। या दूसरी संभावना है कि उन्हें पता है और फिर भी गलत चले जाते हैं।
      वह दूसरी संभावना संभव नहीं मालूम होती। जौहरी ने तो शायद चार आने में खरीद लेने की कोशिश की हो लाखों के हीरे कोलेकिन धर्म के जगत में यह असंभव है कि तुम्हें पता हो और तुम उससे विपरीत चले जाओ।
      सुकरात का बड़ा बहुमूल्य वचन है: ज्ञान ही चरित्र है। जिसने जान लियावह बदल गया। और अगर जानकर भी न बदले होतो समझना कि जानने में कहीं खोट है।
      अक्सर मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैंजानते तो हम हैंलेकिन जीवन बदलता नहीं। यह तो उन्होंने मान ही लिया है कि जानते हैंअब जीवन बदलने की राह देख रहे हैं।
      मैं उनसे कहता हूं पहली बात ही बेबुनियाद हैदूसरे की प्रतीक्षा ही न करो। तुमने अभी बुनियाद ही नहीं रखी और भवन उठाने की कोशिश में लग गए हो। पहले फिर से सोचोतुम जानते होक्योंकि ऐसा कभी होता नहीं कि जो जानता हो और बदल न जाए। बदलाहट जानने के पीछे अपने आप चली आती है। वह सहज परिणाम हैउसके लिए कुछ करना भी नहीं पड़ता।
      अगर बदलने के लिए जानने के अतिरिक्त भी कुछ करना पड़े तो समझना कि जानने में कोई कमी रह गई थी। जितनी कमी होउतना ही करना पड़ता है। वह जो कमी हैउसकी पूर्ति ही कृत्य से करनी पड़ती है। बोध की कमी कृत्य से पूरी करनी पड़ती हैअन्यथा बोध पर्याप्त है।
      बुद्ध का सारा संदेश यही है कि बोध पर्याप्त है। ठीक से देख लेना—जिसको बुद्ध सम्यक दृष्टि कहते हैंजिसको महावीर ने सम्यक दर्शन कहा है—ठीक से देख लेना काफी हैकाफी से ज्यादा है। ठीक से देख लेना इतनी बड़ी आग है कि तुम उस में ऐसे जल जाओगेजैसे छोटा तिनका जल जाए। राख भी न बचेगी। तुम बचते चले जाते होक्योंकि आग असली नहीं है। आग—आग चिल्लाते जरूर होलगी कहीं नहीं है। आग शब्द ही है तुम्हारे लिएशास्त्र ही है तुम्हारे लिएसत्य नहीं।
      धर्म तुम्हारे लिए शास्त्र—ज्ञान है। जीवन की किताब से तुमने वे सूत्र नहीं सीखे हैं। और जो भी शास्त्र में भटकावह भटका। पाप भी इतना नहीं भटकाताजितना शास्त्र भटका देते हैं। क्योंकि पाप में हाथ तो जलता है कम से कम। पाप में चोट तो लगती हैघाव तो बनते हैं। शास्त्र तो बड़ा सुरक्षित हैन हाथ जलते हैंन चोट लगती हैउलटे अहंकार को बड़े आभूषण मिल जाते हैं। बिना जाने जानने का मजा आ जाता है। सिर पर मुकुट बंध जाते हैं।
      बुद्ध ने कहा हैजो जान ले स्वयं सेवही शानी हैवही ब्राह्मण है। जो शास्त्र से जानेवह ब्राह्मण—आभासउससे बचना। और स्वयं कभी अपने जीवन में ऐसे उपद्रव मत करना कि जीवन को सीधे न जानकर शास्त्रों में खोजने निकल जाओ। जीवन में तो कोई डुबकी लगाता रहे तो आज नहीं कल किनारा पा जाएगा। शास्त्रों में जिन ने डुबकियां लगायींउनके सपनों का कोई भी अंत नहीं है।
      पृथ्वी पर इतने लोग धार्मिक दिखाई देते हैंइतने लोग जानते हुए मालूम पड़ते हैं। क्या कमी है जानने कीअंबार लगे हैं। लोगों ने ढेर लगा लिए हैं जानने के। और उनकी तरफ नजर करो तो उनका जानना उनके ही काम न आया। जो जानना अपने आप काम न आ जाएउसे जानना ही न जानना।
      अब हम इन सूत्रों में उतरने की कोशिश करें। बुद्ध ने इन्हें जीवन से सीखा था। शास्त्र से सीखना होता तो राजमहल में शास्त्र स्वयं आ जाते। पंडितों से सीखना होतापंडित तो हाथ जोड़ेकतार बाघे सदा ही खड़े थे।
      बुद्ध जीवन में उतरेमहल की सीढ़ियों से नीचे आए। वहां गएजहा कच्चा जीवन है। वहां गएजहां जीवन असुरक्षित है। जहां जीवन अपनी पूरी आग में तपता है। जीवन से सीधा संपर्क साधातब उन्होंने कुछ जाना। वह जानना बुद्धि का न रहा फिर। वह जानना उनकी समग्रता का हो गया।
      और जब तुम्हारे रोम—रोम से जानना निकलता हैतुम्हारी श्वास—श्वास में गंध आ जाती है जानने कीजब तुम्हें चेष्टा भी नहीं करनी पड़ती कि तुम जो जानते हो उसे याद रखोजब वह तुम्हारा होना ही हो जाता हैजिसे मूलने का ही उपाय न होगाजिसे तुम कहीं भूलकर रख आ न सकोगेजो तुम्हारे भीतर की अंतर—ध्वनि हो जाती हैजो तुम्हारी आवाज हो जाती हैतभी—तब इन सूत्रों का अर्थ बिलकुल और होता है। अगर इन्हें तुमने शास्त्र की दृष्टि से देखा तो इनके अर्श बदल जाते हैं। समझने की कोशिश करो। पहला सूत्र है :
      'सत्युरुष सभी त्याग देते हैं। वे कामभोगों के लिए बात नहीं चलाते। सुख मिले या दुखपंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।'
      इसे तुम बुद्धि से पढ़ सकते हो—जैसा कि पढ़ा गया है सदियों से—और तब भयंकर हानि हो गई है। क्योंकि बुद्धि से तुम पढ़ोगे तो यह समझ में आएगा : सत्युरुष सभी त्याग देते हैं। तो जोर लगता है त्याग पर। साफ हैवक्तव्य में कहीं कोई भूल—चूक नहीं हैसीधा है।
      'सत्युरुष सभी त्याग देते हैं।'
      तुम जब इसे सुनोगेतुम जब इसे गुनोगे—जीवन से नहींशास्त्र सेजब शब्द ही तुम्हारे भीतर एक तरंग बनकर विचार का जन्म देगा तो तुम्हें भी समझ में आएगा—सब छोड़ना होगातब तुम सत्युरुष हो सकोगे। बसभूल हो गई।
      बुद्ध कह रहे हैंसत्युरुष सब छोड़ देते हैं। बुद्ध यह नहीं कह रहे हैं कि जो सब छोड़ देते हैंवे सत्युरुष हो जाते हैं। बुद्ध यह कह रहे हैंसत्युरुष हो जाओसब छूट जाता है। छूटनाछाया की तरह परिणाम है। छूटनाछोड़ना नहीं है।
फिर से दोहराऊं, 'सत्युरुष सभी त्याग देते हैं।
      अब सोचने का यह है कि त्यागने के कारण सत्युरुष होते हैंया सत्युरुष होने के कारण त्याग देते हैं?
      अगर बुद्ध को यही कहना था कि सब छोड़ने वाले सत्युरुष हो जाते हैंतो ऐसा ही कहा होता कि जो सब छोड़ देते हैंवे सत्युरुष हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैंसत्युरुष सब छोड़ देते हैं। सत्युरुष होनाछोड़ने से कोई अलग बात है। छोड़ना पीछे—पीछे आता हैजैसे गाड़ी चलती है तो चाक के निशान बन जाते हैं।
      तुम चलते होतुम्हारी छाया तुम्हारे पीछे चली आती है। उसको लाना थोड़े ही पडता है। तुम लौट—लौटकर देखते थोड़े ही हो कि छाया कहीं छूट तो नहीं गईआती है कि नहीं आतीतुम छोड़ना भी चाहो तो भी छोड़ न सकोगे। छाया आती ही है। छाया तुम्हारी हैजाएगी कहां?
त्याग ज्ञान के पीछे ऐसे ही आता हैजैसे तुम्हारे पीछे छाया आती है—परिणाम है। और जिन्होंने शास्त्र से पढ़ाउन्होंने समझाकारण है। कारण नहीं है त्याग। त्याग कर—कर के तुम बिलकुल सूख जाओहड्डियां हो जाओसत्पुरुष न होओगे। भोजन का अभाव तुम्हें पीला कर जाएलेकिन सत—बोध से उठी हुई स्वर्णिम आभा उससे प्रगट न होगी।
जो—जो पीला हैसभी सोना नहीं है। रोग से भी आदमी पीला पड़ जाता है : उसे पीतल समझना। बोध से भी आदमी के जीवन में स्वर्ण आभा प्रगट होती हैपर वह बात और। उसके सामने सूरज लजाते हैंशर्माते हैं।
      तो ध्यान रखनात्याग पर जोर बुद्ध पुरुषों का बिलकुल नहीं हैऔर उनकी हर वाणी में त्याग का उल्लेख है। और जिन्होंने भी पंडितों की तरह शास्त्रों में खोजा हैवे एक अरण्य में खो गए। कितना सुगम है अरण्य में खो जाना!
      'सत्युरुष सभी कुछ त्याग देते हैं।'
      कितनी जल्दी मन में खयाल उठता हैसूत्र मिल गया। सभी कुछ त्याग दोसत्युरुष हो जाओगे। काशइतनी आसान बात होती! तब तो जो भिखारी हैंजिनके पास कुछ भी नहीं हैवे सत्पुरुष हो गए होते। जिनके पास कुछ भी नहीं हैवे सत्युरुष हो गए होते। तुम भी छोड़ दोगे तो तुम्हारे पास भी कुछ नहीं होगालेकिन इससे तुम सत्युरुष न हो जाओगे।
      मैंने सुना हैएक भिखारी एक संदूक वाले की दुकान में चला गया। रंग—बिरंगे संदूक देखकर उसे बड़ा रस आया। वह घूम—घूमकर संदूक देखने लगा। दुकानदार भी दिखाने लगा। कोई और ग्राहक थे भी नहीं। ऐसे तो संदेह लगा कि यह क्या संदूक खरीदेगा! क्योंकि संदूक में रखने के लिए कुछ चाहिए भी। लेकिन कोई ग्राहक था भी नहींतो दुकानदार ने उसमें रस लियाउसे घुमायादिखाया। सब देखकर जब वह चलने लगा तो उसने कहाखरीदेंगे नहींउसने कहाये किस काम में आते हैंवह तो रंगआकृतियां देखकर अंदर चला आया था। उसने पूछाये किस काम में आते हैंउस दुकानदार ने कहाहद हो गई। कपड़े—लत्ते रखने के काम आते हैंखरीद लोकपड़े—लत्ते रखना। तो उसने कहाकपड़े—लत्ते इसमें रख लेंगे तो पहनेंगे क्यातेरी ऐसी—तैसीऔर तो कुछ है ही नहीं। यही कपड़े—लत्ते हैंजो पहने हुए हैं।
      लेकिन ऐसी अवस्था में भी तो तुम कहीं पहुंच नहीं जाते। नग्न होकर भी तो तुम कहीं नहीं पहुंच जाते। तुम्हारे होने मेंतुम्हारे पास क्या हैइससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम दीन हो तो दीन होतुम धनी हो तो दीन रहते हो। तुम्हारे पास चीजें हों तो तुम वही होचीजें हट जाएं तो तुम वही हो। तुम्हारा होना चीजों पर निर्भर नहीं है।
      और तुम्हारे तथाकथित त्यागी भी यही समझाते हैं और तथाकथित भोगी भी यही समझाते हैं। दोनों का भरोसा चीजों में है। भोगी कहते हैंचीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ जाएगीतुम्हारा सुख बढ़ेगाआनंद बढ़ेगा। त्यागियों की भाषा भी यही है। वे कहते हैंचीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी।
      अगर दोनों में ही चुनना हो तो भोगी थोड़ा गणित—पूर्ण मालूम होता है। वह कहता हैचीजों को बढ़ाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। त्यागी कहता हैचीजों को घटाओ तो तुम्हारी आत्मा बढ़ेगी। अगर तर्क से ही चलना हो तो भोगी ही ठीक कहता होगा। लेकिन भोगी का तर्क तुम्हें ठीक नहीं लगताक्योंकि तुमने चीजें बढ़ाकर देख लीं और आत्मा नहीं बढ़ी। और त्यागी का तर्क ठीक लग जाता है—अपरिचित है। तुम सोचते होबढ़ाकर देख लियाआत्मा नहीं बढ़ीअब घटाकर देख लें। तो लोग त्याग में लग जाते हैं।
      न तो चीजों के बढ़ने से बढ़ती है आत्मान चीजों के घटने से बढ़ती है आत्माआत्मा का चीजों से कुछ संबंध नहीं है। तुम्हारी छाया के बढ़ने से तुम बड़े होते होया कि तुम्हारी छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते हो? ''
      मैंने सुना हैएक दिन सुबह एक लोमड़ी अपनी मांद के बाहर निकली। सुबह का उगता सूरज थाबड़ी लंबी छाया बनी लोमड़ी कीदूर तक जाती थी। उसने सोचाआज तो बड़ी मुश्किल हुई। नाश्ते के लिए कम से कम एक ऊंट की जरूरत पड़ेगी। इतनी बड़ी छाया! इतनी बड़ी मैं हूं। ऊंट से कम में काम न चलेगा।
      वह ऊंट की तलाश में लग गई। दिनभर खोजती रहीभर दोपहरी में जब सूरज सिर पर आ गयाअभी भी भूखी थी। ऊंट तो मिला न थामिल भी जाता तो भी करती क्याउसने लौटकर फिर छाया देखीछाया सिकुड़कर बिलकुल पैरों के पास आ गई थी। उसने कहाअब तो चींटी भी मिल जाए तो भी चल जाएगा।
      छाया से तुम चलोगे तो यही गति होगी। न तो छाया के बड़े होने से तुम बड़े होतेन छाया के छोटे होने से तुम छोटे होते। परिग्रह यानी छाया। वस्तुएं यानी छाया। तुम्हारा मकानतुम्हारी धन—दौलतयानी छाया।
      मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि भोगी का तर्क तो गलत है हीत्यागी का तर्क भी गलत है। बुद्ध पुरुषों ने यह तर्क नहीं दिया। बुद्ध पुरुष ऐसे तर्क देकर बुद्ध बनेंगे क्यायह तो बात ही बुनियादी रूप से गलत है। यह तो आत्मा को वस्तुओं से गौण कर देना हुआ। अगर वस्तुओं के घटने—बढ़ने से आत्मा बढ़ती—छोटी होती हो तो आत्मा गौण हो गईवस्तुएं प्रमुख हो गयीं।
      नबुद्ध पुरुषों ने कुछ और ही बात कही है। चूक हो गई है सुनने मेंशास्त्र पढ्ने में।
      'सत्युरुष सभी त्याग देते हैं।'
      इसलिए नहीं कि त्याग सत्पुरुष होने का मार्ग हैबल्कि जब तुम देखना शुरू करते होजब तुम्हारे भीतर सदबुद्धि का जन्म होता हैजब तुम ध्यान की अवस्था को उपलब्ध होते होजब तुम्हारे भीतर तरंगें विचारों की थोड़ी शांत होती हैंआंखों की धूल थोड़ी झड़ती हैचेतना के बादल थोड़े हटते हैंतुम्हारे भीतर थोड़ी जगह होती है जहा जागरण हो सकेभीतर का दीया थोड़ा जलता हैअंधेरा थोड़ा कटता हैवहां तुम अचानक देखते हो कि तुम जिन चीजों को मूल्य दे रहे थेउनमें कोई भी मूल नहीं। जिन चीजों को तुमने अपना सारा जीवन समर्पित किया थाउन चीजों में कोई भी मूल्य नहीं। तुम छाया के लिए आत्मा गंवा रहे थे। मरते दम तक लोग गंवाए चले जाते हैं छाया के लिए आत्मा। मरते दम तक आदमी भिखारी बना रहता है। वस्तुओं की मांग जारी रहती है।
      मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे—लाली में
      अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
      आदमी गिड़गिड़ाए ही चला जाता है कि अभी तेरे शराब के प्याले में थोड़ी और बाकी हैथोड़ी और बाकी है।
      मुझे पीने दे पीने दे कि तेरे जामे—लाली में
      अभी कुछ और है कुछ और है कुछ और है साकी
      जिंदगी खोती चली जाती हैमौत की मूर्च्छा आने लगीमौत की नींद घेरने लगी। और आदमी चिल्लाए चला जाता हैमुझे पीने देमुझे पीने दे।
      मरते हुए आदमी को देखो। अभी भी जार—जार आंसू रो रहा है—उस जिंदगी के लिएजिसमें कुछ भी न पायाउस भाग—दौड़ के लिएजो कहीं न पहुंचाई। और दौड़ना चाहता है। अगर कहीं कोई परमात्मा हो तो और मांग लेना चाहता है—चार दिन और मिल जाएं। जो मिले थे दिनवे ऐसे ही गंवाए। और भी मिल जाएंगे तो ऐसे ही गंवाए। जिंदगी को हम छाया के मंदिरों में समर्पित किए हैं।
      बहे जाते हो रवानी के साथ
      उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
      संभलकर कदम रखने वाले बहुत हैं
      पाने को सब कुछ गंवाओ तो जानें
      लेकिन सब कुछ गंवाने के लिए वही राजी होता हैजिसे सब कुछ में कुछ भी नहीं हैयह दिखाई पड़ता है। हीरा उसी दिन तुम्हारे हाथ से छूटकर गिर जाता हैजिस दिन कंकड़ दिखाई पड़ता है। कंकड़ उसी क्षण उठकर आत्मा में विराजमान हो जाता हैजिस क्षण हीरा मालूम पड़ता है। अंततः तुम्हारा बोध निर्णायक है। तुम मूल्य देते होउठा लेते हो। तुम मूल्य नहीं देतेगिर जाता है। सारी बात तुम्हारे बोध की हैतुम्हारी दृष्टि की हैतुम्हारी प्रतीति की है।
      चारों तरफ करोड़ों लोगों की भीड़ हैवह छाया के सहारे चल रही है। उसी में तुम पैदा होते हो। बचपन से तुम भी उसी की भाषा सीखने लगते हो। फिर इस भीड़ में एक छोटा सा तबका है त्यागियों का भीवह भी इसी भीड़ में है। भला भीड़ पैर के बल चलती होवे सिर के बल शीर्षासन करते खड़े हैंलेकिन भीड़ में हैं। भला भीड़ पूरब को जाती होवे पश्चिम को जाते हैंलेकिन भीड़ में हैं। कुछ भेद नहीं है उनमें। भाषा उनकी भी वही है।
      जिंदगी आधी से ज्यादा गुजर जाती हैजब तुम्हें थोड़ा सा समझ में आना शुरू होता है कि यह तो कुछ सार न हुआ। कमायावह कुछ गंवाया जैसा लगता है। जो पायावह सिर्फ मुंह में एक कडुवा स्वाद छोड़ गया है। कोई प्रतीति नहीं होती उपलब्धि की। ऐसा नहीं लगता कि जीवन की नियति पूरी हुई। ऐसा नहीं लगता कि हम कहीं पहुंचेकोई मंजिल करीब आई। कोई बीज टूटावृक्ष बनाऐसा मालूम नहीं होता। कोई दीया जलारोशन हुआऐसा मालूम नहीं होता। हाथ खाली के खाली लगते हैं।
तो स्वभावत: उस क्षण तुम्हें विपरीत तर्क पकड़ में आना शुरू होता है कि भोगकर देख लियागलत था यहसंसारी गलत थेअब त्यागियों की सुनना शुरू करते हो। आधी जिंदगी लोग संसार में गंवा देते हैंकभी अगर होश भी आया तो आधी फिर संन्यास में गंवा देते हैं। तर्क वही है। पहले वस्तुएं इकट्ठी करते थेअब वस्तुएं छोड़ते हैंलेकिन  नजर वस्तुओं पर लगी होती है।
      नजर का भीतर जाना जरूरी है।
      बहे जाते हो रवानी के साथ
      उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
      और जब नजर भीतर की तरफ चलती है तो उलटे पतवार घूमते हैं। जब तक नजर बाहर की तरफ जाती हैतब तक तुम भीड़ के साथ चल रहे हो 1 तब तक तुम हो ही नहींभीड़ है। तुम नहीं होभीड़ है अंधों कीभीड़ है बहरों कीभीड़ है मुर्दों कीतुम नहीं हो। तब तक तुम धक्के—मुक्के में चलते चले जाते हो।
तुमने कभी मेलों में देखा कि अगर भीड़ की रवानी में पड़ जाओ तो तुम न भी जाना चाहो तो भी चलना पड़ता हैनहीं तो कुचल दिए जाओगे। सारी भीड़ जा रही हैभागी जा रही हैतुम्हें भी भागना पड़ता है। अगर खड़े होओगे तो गिरोगे। उलटे जाना मुश्किल हैखड़े होना मुश्किल हैचलना ही एकमात्र सहारा मालूम पड़ता है। इसलिए नहीं कि तुम चलना चाहते हो।
      हजारों लोगों के भीतर झांककर मैंने पाया कि वे चलना नहीं चाहतेथक गए हैं। लेकिन चारों तरफ से भीड़ है—पली हैबच्चे हैंपति हैमां हैबाप हैमित्र हैपरिवार हैदुकान हैबाजार है—सारी भीड़ भागी जा रही है। सारा संसार भागा जा रहा है। उस भागने के साथ न भागो तो कुचल दिए जाओगे।
      बहे जाते हो रवानी के साथ
      उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
      जिंदगी में जो पहली महत्वपूर्ण घटना घटती है किसी व्यक्ति केवह है कि आंख बंद हो और भीतर की तरफ पतवार घूमने लगे। चेतना की नाव भीतर की तरफ बहने लगे। संसारी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ—पूरबतुम्हारा त्यागी भी भागा जा रहा है बाहर की तरफ—पश्चिमधार्मिक व्यक्ति न तो पूरब जाता हैन पश्चिमधार्मिक  व्यक्ति भीतर की तरफ जाता है।
      उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
      आंख बंद करता हैताकि वस्तुओं का संसार खो जाए। और उसको जानने में लग जाता हैउसकी खोज में लग जाता हैजो मैं हूं। और वहा ऐसे हीरे हैंवहां ऐसे मोती हैंवहां ऐसे स्वर्ण की वर्षा हैकि अगर बाहर के स्वर्ण व्यर्थ हो जाएंआश्चर्य नहीं।
आश्चर्य तो तभी होगा कि जिसने भीतर झांका हो और उसे बाहर के मूल्य अभी भी मूल्य बने रहें। यह असंभव है। जिसने एक बार भीतर झांकाजिसने बड़ी संपदा में अनुभूति पा लीबाहर की संपदाएं अपने आप थोथी और व्यर्थ हो जाती हैं। तुलना पहली दफा पैदा होती है। पहली बार रोशनी मिलती है तो तुम जान पाते हो कि बाहर अंधेरा है। इसके पहले छोड़ने की बात ही गलत है।
      भीतर रोशन हो जाने का नाम सत्युरुष हो जाना है।
      'सत्युरुष सभी छंद—राग आदि त्याग देते हैं।'
      जब भीतर का छंद बजने लगे तो कौन बाहर के छंदों का उपद्रव लेता हैजब भीतर की वीणा बजने लगे तो बाहर के सब स्वर शोरगुल हो जाते हैं।
      श्री अरविंद ने कहा है कि जिसे पहले मैंने प्रकाश जाना थाभीतर के प्रकाश को जानकर पाया कि वह तो अंधेरा था। और जिसे मैंने पहले जीवन जाना थाभीतर के जीवन को जानकर पाया कि वह तो मृत्यु का ही बसेरा था। जिसे मैंने पहले अमृत जाना थाभीतर झांककर पाया कि वह तो जहर था। मैं किसके धोखे में पड़ा थापहली बार जीवन में क्रांति का सूत्रपात होता हैजब तुम भीतर की तरफ झांकते हो।
      उलटे पतवार घुमाओ तो जानें
      चेतना की सहज धारा बाहर की तरफ हैक्योंकि तुम उनके बीच पैदा होते होजो सब बाहर की तरफ बहे जा रहे हैं। बच्चा तो अनुकरण करता है।
      और इसलिए जीवन में बड़ी से बड़ी बात बुद्ध ने कही हैकल्याण मित्र खोज लेना है। कल्याण मित्र का अर्थ है : ऐसे लोगजो भीतर की तरफ बहे जा रहे हैंजिन्होंने उलटी पतवार चलानी शुरू की। उनके पास बैठकर शांति मेंमौन मेंउनके चप्‍पुओं की भीतर जाती आवाज को सुनकर तुम्हारे भीतर भी भीतर जाने का भाव उदित होगा। तुम्हारे भीतर भी कोई सोई आकांक्षा जगेगी।
      जैसे किसी पिंजड़े में बंद पक्षी कोआकाश में उड़ते पक्षी को देखकर उड़ने की आकांक्षा का जन्म होता है। पंख फड़फड़ाता है। याद आती हैमैं भी उड़ सकता था। यह आकाश की नीलिमा मेरी भी हो सकती थी। यह ओर—छोर हीन विस्तार मेरा ही था। पहली दफा कटघरा दिखाई पड़ता है। पहली बार चारों तरफ के सींखचे दिखाई पड़ते हैं। कल तक तो वह इसे घर ही समझा थाइसी में उछल—कूद लेता था। इसे ही जीवन समझा थाइसी में थोड़ी चहलकदमी कर लेता थाशोरगुल कर लेता था। समझा थायही सब है।
      कल्याण मित्रों के पास. बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनायासिर्फ इसीलिएकोई संगठन के लिए नहीं। संगठन से धर्म का क्या लेना—देना! संगठन तो धर्म का विरोधी है। बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ बनाया—एक परिवारजिसमें कारागृह में बंद व्यक्तियों को कारागृह के बाहर के पक्षियों का थोड़ा साथ मिल जाए। इसको हमने सत्संग कहा है। ताकि किसी और को देखकर तुम्हें भी अपने घर की याद आ जाए।
      तुमने कभी खयाल किया! अगर तुम परदेश में होवर्षों से परदेश में होअपनी भाषा भी नहीं बोल सकतेभूल ही गए होऔर अचानक किसी दिन तुम्हें अपने देश का कोई वासी मिल जाए कैसे गले मिलकर तुम मिलते हो! कोई परिचय भी नहीं है इससे। इसे तुमने कभी देखा भी न था पहले। अपने देश में भी तुमने इसे कभी न जाना था। लेकिन वही रूप—रंगवही आंखवही ढंग—तत्क्षण तुम्हारी भाषा लौट आती है। तुम कैसे घुल—मिलकर इससे बात करते होजैसे जन्मों—जन्मों का बिछुड़ा कोई प्यारा मिल गया हो। अपरिचित आदमी हैलेकिन तुम्हारे देश का हैतुम्हारी भाषा बोलता है।
      ठीक ऐसी ही घटना घटती हैजब तुम किसी सत्संग की धारा में पड़ जाते हो। तुम्हें अपने देश के लोग मिल गए। तुम्हें घर की तरफ लौटते लोग मिल गए। इनकी मौजूदगी तुम्हारे भीतर सोई हुई यादों को जगा देगी। तुम्हारे पंख फड़फड़ाने लगेंगे। तुम्हारे जीवन में तुलना पैदा होगी। और तुम अब तक जिसे जीवन कहते थेवह व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा। लेकिन थोड़ा स्वाद चाहिए। भीतर का स्वाद मिल जाएबाहर व्यर्थ हो जाता है।
      निश्चित ही सत्युरुष सभी छंद—राग छोड़ देते हैं। भीतर का छंद मिल गयाछंदों का छंद मिल गया।
      जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
      तिश्नगी खुद है छलकता हुआ पैमाना लिए
      और जब जिंदगी खुद नाच रही हो भीतर!
      जिंदगी रक्स में है दोश पे मैखाना लिए
      और अपने कंधे पर ही मयखाना लिए
      जिंदगी खुद भीतर नाचती हो!
      तिश्नगी खुद है...
      और प्यास खुद हाथों में छलकता पैमाना लिए खड़ी होफिर बाहर की मधुशालाएंफिर बाहर के नृत्य धीरे—धीरे दूर होते जाते हैंदूर की आवाज होते जाते हैं। धीरे—धीरेजैसे तारों जितना फासला तुम्हारे और उनके बीच हो जाता है। वह आवाज फिर तुम तक नहीं पहुंचती।
      पहुंचती है अभीक्योंकि तुम्हारा रस है वहां। जहां तुम्हारा रस हैवही तुम्हें सुनाई पड़ जाता है। जब रस भीतर बहने लगता हैबाहर के छंद खो जाते हैंबाहर का राग—रंग खो जाता है। लेकिन ध्यान रखनायह परिणाम है।
      सत्यषरूत्व को पाना कारण हैत्याग परिणाम है।
      स्वयं को पाना कारण हैसंन्यास परिणाम है।
      संन्यास से किसी ने कभी स्वयं को नहीं पाया। स्वयं को पाने की यात्रा शुरू होती है तो संन्यास घटने लगता है।
      'वे कामभोगो के लिए बात नहीं चलाते।'
      जो आत्मभोग में लगा होवह क्यों कामभोग की बात चलाएजिसका अपने से मिलन हो रहा होजो उस परम आनंद में डूब रहा होजिसके कूल—किनारे खोते जा रहे होंजिसकी सरिता सागर में गिर रही होअब वह क्या बातें करे किनारों कीअब बूंद क्यों चिंतित हो अपनी सीमाओं के लिएलेकिन सम्हलकर चलनाकामभोग छोड़ने से कोई आत्मभोग को उपलब्ध नहीं होता। आत्मभोग को उपलब्ध होने से कामभोग छूट जाते हैं।
      इसे सदा याद रखनाक्योंकि दूसरा तर्क बड़ा सुविधापूर्ण है। और तुम्हें लगता हैअभी कर सकते हो। कामभोग छोड़ना हैछोड़ सकते हो। पकड़ा तुमने हैछोड़ भी सकते हो। पकड़ने से कुछ नहीं पायाछोड़ने से भी कुछ न पाओगे। पकड़ने से दुख पायाछोड़ने से भी दुख पाओगे। क्योंकि दु:ख तो उस बाहर जाती दृष्टि में ही समाया हुआ है।
तो मैं यहां भोगियों को दुखी देखता हूं और त्यागी होने के लिए आतुर देखता हूं। त्यागियों को दुखी देखता हूं और भोगी होने के लिए आतुर देखता हूं। जो स्थिति तुम्हारी हैवहीं दुख मालूम होता है।
      इसे तुम ऐसा समझो तो आसान होगा। तुम अकेले थेतब भी तुम दुखी थे। तब तुम किसी का साथ खोजते थेविवाह कर लेंकोई संगी—साथी मिल जाए। फिर विवाह कर लियाअब तुम विवाहित होकर दुखी हो। अब तुम सोचते होइससे तो अकेले ही होना अच्छा था। पता ही न था कि कितना सुख था अकेले होने में। मगर तुम यह मत सोचना कि संयोग से पत्नी मर जाए तो तुम बड़े सुखी हो जाओगे। पत्नी के मरते ही तुम अचानक दूसरी पत्नी की तलाश करने लगोगे। दों—चार दिन शायद तुम राहत ले लोविश्राम कर लोथक गए होओ ज्यादालेकिन जल्दी ही तुम पाओगे कि अकेले होने में बड़ी पीड़ा है। फिर तुम दो होना चाहते हो।
      तुम्हारे भीतर भी त्याग और भोग का खेल चलता रहता है। अलग—अलग व्यक्ति ही त्याग और भोग का खेल करते हैंऐसा नहीं। तुम्हारे भीतरप्रत्येक के भीतर त्याग और भोग का खेल साथ—साथ चलता रहता है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आत्म—जागरण न तो त्याग हैन भोग हैक्योंकि आत्म—जागरण बाहर से मुक। होने की कला है। आत्म—जागरण स्व में ठहरने कीस्वस्थ होने की कला है। सत्युरुषबुद्ध उसी को कहते हैंजिसने अपने होने में थिरता पा लीजिसकी लौ अकंप जलने लगी।
'सुख मिले या दुखपंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।'
      अभी तो दुख मिलेगा तो तुम कैसे प्रगट करने से बचोगे अपनी प्रतिक्रियादुख मिलेगातुम दुखी हो जाओगेचाहे तुम छिपाने की कोशिश भी करो। यह भी हो सकता है कि दूसरे को तुम पता भी न चलने दोपर इससे कोई पार्क नहीं पड़तातुम दुखी हो जाओगे। सुख मिलेगातुम सुखी हो जाओगे।
      अभी ऐसा होता हैजो भी घटना घटती हैउसके साथ तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। तुम दूर नहीं रह पाते। दुख आता है तो तुम दुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते होमैं दुखी। कहो न कहोभीतर तुम जानने लगते होमैं दुखी। सुख आता हैतुम सुख के साथ एक हो जाते हो। तुम कहने लगते होमैं सुखी। सुख आता हैतुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता हैतुम्हारी चाल बदल जाती है। दुख आता हैतुम ऐसे चलने लगते होजैसे मुर्दा। सुख 'आता हैतुम ऐसे नाचने लगते होजैसे जीवंत। अभी सुख और दुख तुम्हें पूरा का पूरा घेर लेते हैं। अभी तुम्हारा होना सुख—दुख के पार नहीं हैसुख—दुख के भीतर है।
      सत्पुरुष वही हैजिसके पास अपना होना हैप्रामाणिक होना है। सुख होता है तो वह जानता है कि सुख आयालेकिन मैं सुख नहीं हूं। दुख आता है तो वह जानता हैदुख आयालेकिन मैं दुख नहीं हूं। उसकी चाल में कोई भी फर्क नहीं पड़ता। उसके भीतर के छंद वैसे ही बने रहते हैं। उसके भीतर कुछ भी भेद नहीं पड़ता। वह दर्पण की भांति होता है। दर्पण के सामने कोई न रहे तो दर्पण खाली होने में भी प्रसन्न है। दर्पण के सामने कोई सुंदर छबि आ जाए तो भी ठीककोई कुरूप व्यक्ति आ जाए तो भी ठीक। दर्पण इससे कुछ विचलित नहीं होता। दर्पण अपने होने में थिर होता है।
      सुबह होती हैशाम होती है। ऐसे ही दुख आते हैंसुख आते हैंचले जाते हैं। तुम्हारे पास से गुजरते हैंरास्ते पर चलने वाले राहगीर हैंतुम नहीं हो। जिसे जैसे ही इस बात का स्मरण आना शुरू हुआ कि मैं पृथक —हूं सारे अनुभवों सेअनुभव मात्र मुझसे अलग हैंमैं साक्षी हूंउसके जीवन में सत्पुरुष की सीढ़ी लगी। 
      'सुख मिले या दुखपंडित विकार नहीं प्रदर्शित करते।'
      यह पंडित की परिभाषा हुईकि बाहर कुछ भी घट जाएउनके भीतर आकाश वैसा का वैसा निराकार बना रहता हैकोई भेद नहीं आता। बादल आ जाएं आकाश में तो आकाश निर्विकार रहता है। बादल चले जाएं तो निर्विकार रहता है। आकाश को कुछ छूता ही नही—अस्पर्शित!
      इसलिए ठीक सत्युरुष संसार से भयभीत नहीं होगा। संसार उसे कलुषित नहीं कर सकता। वह जंगल में जाकर छिप न जाना चाहेगा। अगर जंगल में पहले छिप भी गया होगा तो वापस लौट आएगा। क्या फर्क पड़ता है अबजंगल हो कि बस्ती होमरघट हो कि बाजार होकोई फर्क नहीं पड़ता। जिस दिन तुम ऐसे हो जाते हो कि बाहर के द्वंद्व तुम्हें भीतर खंडित नहीं करते?..
      तुमने कभी खयाल कियापानी पर लकीर खींचोखिंचती हैलेकिन खिंचते ही मिट जाती है। रेत पर लकीर खींचोखिंचती हैथोड़ी देर टिकती हैजब हवाएं आएंगीकोई मिटाएगातब मिटेगी। पत्थर पर लकीर खींचोटिक जाती हैसदियों तक टिकी रहती है। आकाश में लकीर खींचोखिंचती ही नहींमिटने का सवाल ही नहीं है।
      इसी तरह के चार तरह के लोग होते हैं। पत्थर की तरह लोगजिन पर कुछ खिंच जाता है तो मिटता ही नहींमिटाए नहीं मिटता। क्रोधित हो गए तो जिंदगीभर क्रोध को खींचते रहते हैं। किसी से दुश्मनी बन गई तो बन गई। अपने बच्चों को भी दे जाएंगे दुश्मनी वसीयत मेंकि हम नहीं निपटा पाएतुम निपटा लेना। हम नहीं मार पाए दुश्मन कोतुम मार डालना।
      एक आदमी मर रहा था तो उसने अपने बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मरते आदमी की इच्छा पूरी करो। तुम्हारा बाप—मैं मर रहा हूं। छोटी सी इच्छा हैवचन दे दो। बड़े बेटे तो जानते थे कि यह आदमी खतरनाक है। बाप हो तो क्यायह जरूर कोई उपद्रव करवा जाएगा। और मरते को वचन दे दियापीछे पूरा न कियावह भी ठीक न रहेगा। तो वे तो चुप रहे सिर झुकाए। छोटे बेटे को कुछ ज्यादा अंदाज न था बाप कादूर पढ़ता था विश्वविद्यालय में। वह पास आ गया। उसने कहा कि आप जो कहें। बाप ने उसके कान में कहा कि बसएक इच्छा रह गई हैकि जब मैं मर जाऊं तो मेरी लाश के टुकड़े करके पड़ोसियों के घर में डाल देना और पुलिस में रिपोर्ट कर देना कि जिंदा—जिंदा तो इन लोगों ने हमारे बाप को सताया हीमरकर भी उसकी लाश के टुकड़े कर दिए। उसने अपने बेटे से कहा कि मेरी आत्मा स्वर्ग की तरफ जाती हुई बड़ी प्रसन्न होगी यह देखकर कि पड़ोसी थाने की तरफ बंधे चले जा रहे हैं।
      लोग अपनी दुश्मनियांअपनी घृणाएंअपने क्रोध वसीयत में दे जाते हैं। खुद तो जीवन भर जलते ही हैंपीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनियां चलती हैंशत्रुता चलती है। पारिवारिकपुश्तैनी दुश्मनियां चलती हैं। लकीर जैसे पत्थर पर खिंच जाती है। यह अधिकतम जड़ स्थिति है चैतन्य की। जैसे तुम बिलकुल ही सोए हुए होतुम्हें होश ही नहीं है।
      फिर कुछ लोग हैंजो रेत की तरह हैं—खिंचती हैआज खिंचती हैकल मिट जाती है। कुछ देर चलती हैघंटे—घड़ीफिर शांत हो जाते हैंठीक हो जाता है। फिर कुछ लोग हैंछोटे बच्चों की तरहखींची भी नहीं—खिंचती है—इधर तुमने खींची भी नहींमिट जाती है। बच्चा क्रोधित होता हैउछल—कूद लियाशोरगुल मचा लियाभूल गया। अभी घड़ीभर पहले दूसरे बच्चे से कह रहा थाजिंदगीभर तुम्हारा मुंह न देखूंगाऔर फिर पांच मिनट बाद दोनों साथ हाथ में हाथ डाले बैठे गपशप कर रहे हैं। बात आई—गई हो गई—पानी की तरह।
      फिर सत्युरुष हैंजिनको हम संत कहें—आकाश की तरह। कुछ खिंचता नहींमिटने का सवाल ही नहीं है। संतत्व बच्चों से भी ज्यादा निर्दोष है।
जीसस से कोई ने पूछाकौन तुम्हारे स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के अधिकारी होंगेउन्होंने चारों तरफ नजर डाली उस भीड़ में और एक छोटे बच्चे को उठाकर कंधे पर रख लिया और कहाजो इस बच्चे की भांति होंगे।
      लेकिन बच्चे से भी आगे की बात है। बच्चे की भांति तो होना ही पड़ेगालेकिन बच्चे से भी ज्यादा निर्दोष होना पड़ेगा—आकाश की भाति।
      'सुख मिले या दुखपंडित विकार प्रदर्शित नहीं करते।'
      साधारण आदमी तो ऐसे जीता हैजैसे कभी कोई छिछला झरना देखा तुमनेकितना शोरगुल! गहराई कुछ भी नहींशोरगुल बहुत। कभी तुमने यह खयाल किया कि जितनी गहराई बढ़ जाती हैउतना ही शोरगुल कम हो जाता है। अगर नदी बहुत गहरी हो तो शोरगुल होता ही नहीं। अगर नदी बहुत—बहुत गहरी हो तो पता ही नहीं चलता कि चलती भी है! चाल भी इतनी धीमी और शांत हो जाती है।
      कह रहा है शोरे—दरिया से समंदर का सुकूत
      जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
      जितनी जिसकी गहराई हैउतना ही वह खामोश है।
      तुम जब अपने भीतर जाओगेतब तुम्हारी गहराई बढ़ेगी। तुम बाहर रहोगे तो तुम छिछले रह जाओगेउथले रह जाओगे। बाहर रहने का अर्थ ही है कि तुम गहराई को छू ही न पाओगे। तुम छोटे—मोटे छिछले झरने रह जाओगेतुम कभी सागर न हो पाओगे। और तुम्हारी संभावना थी प्रशांत महासागर हो जाने कीकि तुम एक ऐसी गहराई पा लो जो असीम हैजो शुरू तो होती है और अंत नहीं होती।
      कह रहा है शोरे—दरिया से समंदर का सुकूत
      जिसका जितना जर्फ है उतना ही वो खामोश है
      अपने को थोड़ा देखोतुम्हारी जिंदगी कैसी ऊपर—ऊपरसतह—सतह पर है! जरा—जरा सी बातें कितना दुख दे जाती हैं! जरा—जरा सी बातें तुम्हें कैसा मस्त कर जाती हैं!
      तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
      मये—सरजोश अभीदुदें—तहे—जाम अभी 
      अभी तो लगता है कि उफनता तूफान है मस्ती काजैसे शराब की प्याली ऊपर से बही जा रही हो। और क्षणभर बाद खाली प्यालीजिसमें सिर्फ तलहट बची है। तुमने इंसान की फितरत पे कभी गौर किया
      मये—सरजोश अभीदुर्दे—तहे—जाम अभी
      क्षण में ऐसा होता रहता हैजैसे हवा में डोलता एक पत्ता हो। तुम्हारा कोई व्यक्तित्व नहीं। तुम्हारी कोई आत्मा नहीं। तुम हो ही नहीं अभी। अभी तुम हवाओं के थपेड़े हो। अभी नदी की लहरें तुम्हें जहा ले जाती हैंतुम चले जाते होबहते हुए सूखे पत्ते हो। अभी अस्तित्व में तुम्हारी कोई जड़ें नहीं। अन्यथा जिंदगी तुम्हें इतनी आसानी से न हिला पाएगी।
      और जड़ें जिसे खोजनी होंउसे भीतर जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम भीतर से ही जुड़े हो परमात्मा सेसत्य सेअस्तित्व से। वृक्षों के तो पैर जमीन में गड़े हैंतुम्हारे प्राण परमात्मा में गड़े हैं। अपने भीतर तुम जितने गहरे जाओगेउतना ही तुम पाओगे कि बाहर की बातें अब कमऔर कमऔर कम प्रभावित करती हैं।
      एक घड़ी ऐसी आती है कि तुम पर ही घटना घटती है और तुम ऐसे खड़े देखते रहते होजैसे किसी और पर घट रही है—बससत्युरुष का जन्म हुआ। तुम्हारे ही घर में आग लगी है और तुम खड़े देख रहे होजैसे किसी और के घर में आग लगी है। तुम्हारी ही पत्नी चल बसी है और तुम खड़े ऐसे होजैसे किसी और की पत्नी चल बसी। सब तुम्हारा लुट गया और तुम खड़े ऐसे होजैसे किसी और का लुट गया।
      आल्डुअस हक्सले अमरीका का बड़ा विचारशील व्यक्ति था। कैलीफोर्निया में उसने अपने सारे जीवन एक बड़ा संग्रहालय बनाया था। दूर—दूर से बड़ी कीमती पुस्तकें लायासुंदर मूर्तियांप्राचीन पुरातत्व की चीजेंशिलालेखअपने सारे जीवन की संपत्ति उसने उसी में लगाई थी। चालीस साल की मेहनत थी उस आदमी की। और कहते हैंएक अनूठा संग्रह था उसके पास। और अचानक एक दिन उसमें आग लग गई। पर इसी पुरातत्व की खोज में लगा—लगाधीरे—धीरे इन्हीं सत्यों की खोज में लगा हुआउसके जीवन में एक क्रांति भी घट गई थी। उसे हम आधुनिक जगत का एक ऋषि कह सकते हैं। उस दिन उसने प्रमाण दिया। उसकी पत्नी ने समझा कि वह पागल हो जाएगाक्योंकि सारा जीवन मिट्टी में गया। आग इतनी भयंकर थी कि कोई उपाय न रहा बचाने का कुछ भी। खुद की लिखीं किताबेंखुद की हस्तलिखित पांडुलिपियांवे भी सब जल गयीं।
      वह अपना खड़ा हैमकान को जलते देख रहा है। पत्नी घबड़ाई क्योंकि न तो वह कुछ बोल रहा हैन परेशान दिख रहा है। सोचा कि क्या पागल हो गयारो लेचिल्ला लेचीख लेतो हल्का हो जाए। और आल्डुअस हक्सले ने कहा कि मुझे सिर्फ ऐसा लगा कि एक बोझ हल्का हुआ। और जल जाने के बाद जब मैंने दूसरे दिन अपने मकान को देखातो मुझे ऐसा लगाजैसे एक सफाई हो गई. स्नान कर लिया हो।
      जैसे ही तुम भीतर जाओगेवैसे ही बाहर की घटनाएं कम से कम मूल्य की रह जाएंगी। धीरे—धीरे उनमें कोई मूल्य नहीं रह जाता। जैसे सांप अपनी केंचुल को छोड़कर सरक जाता हैऐसे ही तुम अपने बाहर को छोड़कर  भीतर सरक जाते हो। बाहर केंचुली ही पड़ी रह जाती हैउसका कोई भी मूल्य नहीं है।
      'जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्रधन या राज्य नहीं चाहता और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता हैवही शीलवानप्रज्ञावान और धार्मिक है।
'जो अपने लिए या दूसरों के लिए।'
      क्योंकि हम बड़े धोखेबाज हैं। हम कहते हैंअपने लिए तो हमें कुछ भी नहीं चाहिएबच्चों के लिए कर रहे हैं। हम कहते हैंअपने लिए तो क्या करना हैअपने लिए तो हम संन्यासी ही हैंलेकिन अब पत्नी हैबच्चे हैंघर—द्वार है। हमारी बेईमान का अंत नहीं है। हम बड़ी तरकीबें निकालते हैं। हम दूसरों के कंधों पर रखकर बंदूकें चलाते हैं।
      तो बुद्ध कह रहे हैं, 'जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्रधन या राज्य नहीं चाहता।
      जो महत्वाकांक्षी नहीं है। जिसके मन में प्रतिस्पर्धा की दौड़ नहीं है।
      ध्यान रखनाजब भी तुम कुछ चाहते हो बाहर के संसार में तो तुम्हें आत्मा से मूल्य चुकाना पड़ता है। कौड़ी—कौड़ी भी तुम बाहर से लाते हो तो कुछ गंवाकर लाते हो। ऐसे मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता। और बड़ा महंगा सौदा है।
      पांच रुपए कमा लेते हो जरा सा झूठ बोलकरतुम सोचते होइतने से झूठ में क्या बिगड़ेगालेकिन उतने झूठ में तुमने आत्मा का एक कोना गंवा दिया। तुमने भीतर की एक स्वच्छता गंवा दी। तुमने भीतर की एक शांति गंवा दी। क्योंकि एक झूठ हजार झूठ लाएगाफिर कोई अंत नहीं है। हजार झूठकरोड़ झूठ लाएंगे। एक छोटा सा झूठ बोलकर देखो कि झूठ में कैसी संतानें पैदा होती हैं। झूठ की बड़ी श्रृंखला पैदा होती हैबच्चे पर बच्चे पैदा होते चले जाते हैं। झूठ संतति—निग्रह को मानता ही नहीं। वह पैदा ही किए चला जाता है।
      सत्य बिलकुल बांझ है। खयाल करोजब भी तुम एक सत्य बोलते होबात खतम हो गईपूर्णविराम आ गया। झूठ का सिलसिला अंत होता ही नहीं। सच बोलते होयाद भी नहीं रखना पड़ता। झूठ के लिए बड़ी याददाश्त चाहिए। सच के लिए याददाश्त की भी जरूरत नहींउतना बोझ भी जरूरी नहीं। झूठ के लिए तो याददाश्त चाहिए ही। किसी से कुछ बोलाकिसी से कुछ बोला। इस आदमी से झूठ बोल दिया आजअब यह कल फिर पूछे तो कल का झूठ भी याद रखना चाहिए। और झूठ खिसकता हैक्योंकि झूठ की कोई जगह नहीं होती है ठहरने की। झूठ सरकता है। अगर तुम याद न रखोबार—बार लौट—लौटकर याद न करोतो तुम खुद ही भूल जाओगे। तुम खुद ही झंझट में पड़ जाओगे।
      सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं। जो हैउसे याद रखने की क्या जरूरतवर्षों बाद भी याद आ जाएगा। जब जरूरत होगी याद आ जाएगा। उससे अन्यथा याद आने का कोई कारण नहीं। सत्य बोलने वाले आदमी का मन निर्भार होता है। जो निर्भार होता हैवह आकाश में उड़ सकता है।
      झूठ बोलने वाला आदमी अपने गले में पत्थर लटकाए चला जाता है। फिर आकाश में उड़ना चाहता है तो कैसे उड़ेये पत्थर जान ले लेते हैं।
      एक झूठ बोलेतुमने आत्मा का एक कोना खराब कर दिया। मंदिर में तुम गंदगी ले आए। फूल को तुमने पत्थर से ढांक दिया। सड़ेगा यह फूल अबइसके जीवन में अब तुमने अवरोध खड़ा कर दिया। तुमने झरने की सहज धारा को खंडित कर दिया। तुमने एक चट्टान अड़ा दी।
      जरा सी चोरी कर लो—और ध्यान रखनाचोरी जरा सी और बड़ी नहीं होती। जरा सीबड़ी ही है। सभी चोर यही सोचकर चोरी करते हैं कि इतनी सी से क्या बनता—बिगड़ता हैतुमने कभी खयाल कियाचोरी काझूठ का गणित क्या हैझूठ सदा यही कहता हैइतना सा हैक्या बनता—बिगड़ता हैऔर आज बोल लिएकोई सदा थोड़े ही बोलना है! एक दफा सम्हल गई बातसम्हल गई। चोरी भी यही कहती हैइतनी सी है।
      दो पैसे की चोरी और दो करोड़ रुपए की चोरी में कोई फर्क नहीं है। चोरी—चोरी हैछोटी—बड़ी नहीं होती। छोटा—बड़ा झूठ भी नहीं होता। झूठ सिर्फ झूठ हैछोटा—बड़ा कैसे होगासत्य—सत्य हैन छोटा होता हैन बड़ा होता है। न झूठ छोटा होता हैन बड़ा होता है। न चोरी बड़ी होती हैन छोटी होती है।
      मगर मन समझाए चला जाता है कि इतना सा झूठ हैक्या बनता—बिगड़ता हैइतनी सी चोरी हैकर लोकल दान कर देंगे। और ध्यान रखनाफिर तुम कितना ही भला करोबुरे को अनकिया करने का उपाय नहीं है। भले से अच्छा नहीं होगा वह।
यह तो ऐसे ही हुआमैंने सुना हैइंग्लैंड का सम्राट अपने एक वजीर को राजदूत बनाकर क्रौस भेजना चाहता था। वजीर का नाम मूर था। लेकिन वह डरा हुआ थाक्योंकि वह फ्रांस का सम्राट जो थाथोड़ा झक्की किस्म का था। और तनाव की अवस्था थी इंग्लैंड और क्रौस में। तो मूर ने कहा कि आप. मुझे भेज तो रहे हैंलेकिन वह आदमी ऐसा पगला है कि किसी भी दिन भरे दरबार में गर्दन उतार ले सकता है मेरी।
तो इंग्लैंड के सम्राट ने कहातू बिलकुल फिक्र मत कर। अगर तेरी गर्दन काटी गई तो जितने फ्रांसवासी इंग्लैड में हैंसबकी गर्दन उसी दिन काट डाली जाएगी। तू बिलकुल फिक्र मत कर।
      उसने कहावह मैं समझा कि आप यह करोगे। आप उससे कुछ पीछे नहीं होलेकिन उनमें से कोई भी गर्दन मेरे सिर पर बैठेगी न। मैं तो गया! तुम मेरी एक गर्दन के लिए हजार फ्रांसीसियों की गर्दन काट दोगे मानालेकिन उनमें से कोई भी मुझे जिंदा न कर पाएगी इससे क्या फर्क पड़ता है फिर कि मेरे मरने के बाद तुमने कांटे या न काटेमैं गया!
      तुमने एक झूठ बोलाइससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम कितने सच बोलोगे इसके बाद। तुमने एक आदमी को छुरी मार दीइससे क्या फर्क पड़ता है कि फिर तुमने फूलमाला पहना दी! तुमने किसी को गाली दे दीइससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम गए और स्तुति कर आए!
      लेकिन जीवन में निरंतर तुम्हारा मन तुम्हें ये बातें समझाए जाता है कि कोई हर्जा नहींचोरी कर लीफिर पुण्य कर देंगे। पाप कर लियाफिर तीर्थयात्रा कर आएंगेहज हो आएंगेहाजी हो जाएंगे। ये सब तरकीबें हैं मन की। इनसे सजग रहना। जो कियावह कियाउसे अनकिया करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि अतीत में वापस जाने का कोई उपाय नहीं है। जो हो गयाहो गया।
      हांउससे पार होने का उपाय हैउसको अनकिया करने का उपाय नहीं है। तुमने अगर एक आदमी की गर्दन काट दीअब तुम क्या करोगेतुम लाख मंदिर बनवाओतुम लाख पूजा चढ़वाओतुम हजारों ब्राह्मणों को भोजन करवाओइससे क्या होगाजो हो गयाहो गया। हीयह हो सकता है कि तुम बोधपूर्ण हो जाओजाग जाओतो पार हो जाओगेअतिक्रमण हो जाएगा। लेकिन जो किया जा चुकाउसको अनकिया नहीं किया जा सकता।
      इसलिए जब झूठ और बेईमानी तुम्हारे मन को पकड़े और तुम्हें दलीलें दे कि यह तो छोटी सी बात हैकर लोतब थोड़े सावधान रहना। कोई बात छोटी नहीं। क्योंकि हर घड़ी तुम्हारी आत्मा दाव पर है। और यहां मुफ्त कुछ भी नहीं हैहर चीजकी कीमत चुकानी पड़ती है। और मजा तो यह है कि कीमत बहुत चुकानी पड़ती हैमिलता कुछ भी नहीं। पूरी जिंदगी के बाद हाथ तो खाली होते हैंआत्मा भी खो गई होती है।
      'जो अपने लिए या दूसरों के लिए पुत्रधन या राज्य नहीं चाहतावही सत्युरुष है।
      अचाह सत्युरुष की सुगंध है। अचाह! क्योंकि जैसे ही तुमने कुछ चाहावैसे ही तुम किसी से छीनने को तत्पर हो जाओगे। अगर बहुत धन चाहिए तो छीनना पड़ेगा। अगर बहुत प्रतिष्ठा चाहिए तो छीननी पड़ेगी। अगर बड़े पद चाहिए तो किन्हीं को हटाना पड़ेगाकोई वहां मौजूद है। सब में हिंसा होगी।
      जो बिना छीने मिल जाएउसे ही संपदा मानना। जो बिना मांगे मिल जाएउसे
स्थितप्रज्ञ सत्पुरुष है ही वरदान मानना। और तुम्हारे मिलने से किसी का कम न होउसे ही धर्म मानना।
      तो कुछ ऐसी संपदाएं हैंजो तुम्हें मिल जाती हैं और किसी की छिनतीं नहीं। समझोतुम्हारे जीवन में प्रेम बढ़ जाए तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इस जमीन पर कुछ लोगों का प्रेम छिन जाएगा क्योंकि तुम्हारे पास ज्यादा प्रेम की संपदा आ गईकि कुछ लोगों के प्रेम के सिक्के छिन जाएंगे। नहींउलटी हालत हैतुम्हारे पास अगर प्रेम बढ़ जाए तो दूसरों के पास भी प्रेम के बढ़ने की संभावना बढ़ जाएगी। क्योंकि तुम इस जगत के एक अनिवार्य हिस्से हो। तुम्हारा दीया अगर भीतर का जलने लगे तो बहुतों को दीया जलाने की आकांक्षा जग जाएगीभरोसा आ जाएगा। तुम्हारा अगर ध्यान बढ़ जाए तो ऐसा थोड़े ही है कि किसी की अशांति बढ़ेगी तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से! तुम्हारे ध्यान के बढ़ने से किसी का कुछ छिनता नहीं। और अगर कोई समझदार हो तो तुम से बहुत कुछ पा सकता है। अन्यथा—
      कली कोई जहां पर खिल रही है
      वहीं एक फूल मुरझा रहा है
      अगर तुमने इस संसार की संपदा में बहुत रस लियातो तुम कहीं एक कली खिला लोगे तो तुम पाओगे कि कोई फूल कहीं दूसरी जगह मुर्झा गया। तुम तिजोड़ी भर लोगे तो तुम पाओगेकिन्हीं की तिजोडियां खाली हो गयीं। तुम पदों पर पहुंच जाओगे तो तुम पाओगे कि कोई पराजित कर दिए गएकोई पदों से नीचे गिर गए। तुम्हारे सुख में न मालूम कितने लोगों का दुख छिपा होगा।
      ऐसा सुख दो कौड़ी का हैजिसमें दूसरे का दुख छिपा हो। ऐसा सुख व्यर्थ हैजिसमें दूसरे के खून के दाग हों।
और मजा यह है कि ना—कुछ के लिए! मिलता कुछ भी नहीं है। पद पर बैठ जाओ तो भी तुम—तुम ही हो। कितने ही ऊंचे पद पर बैठ जाओतुम—तुम ही हो। चांद—तारों पर बैठ जाओतो भी तुम बदल न जाओगे।
      तुम बदलो तो तुम जहां बैठे होवहीं सिंहासन हो जाते हैं। और वे सिंहासन किसी से छीनने नहीं पड़ते। तुम बदलो तो तुम जहा चलते होवहीं तीर्थ बन जाते हैं। तुम बदलो तो तुम्हारे चारों तरफ का माहौल भी तुम अपने साथ बदल लेते हो। तुम एक नई दुनिया का सूत्रपात हो जाते हो।
      हांखाइयो मत फरेबे—हस्ती
      हरचंद कहें कि हैनहीं है
      इस जिंदगी के धोखे में मत आना। कितना ही यह जिंदगी कहे कि मैं हूं नहीं है। मौत इस सब को छीन लेती है। एक सपना है खुली आंख देखा गया।
      तुमसे पहले बहुत लोगों ने यह सपना देखा है। कहा हैं वे सारे लोगमिट्टी में खो गए। तुम भी उन्हीं जैसे सपने देख रहे होउन्हीं जैसे मिट्टी में खो जाओगे। समय रहते कुछ कर लो। कुछ ऐसे सूत्र को पा लोजो खोता नहींजो शाश्वत है—एस धम्मो सनंतनो। कुछ ऐसी बात पा लोजो सनातन हैजिसे मृत्यु मिटा नहीं पाती। 
      'और न अधर्म से अपनी उन्नति चाहता हैवही शीलवानप्रज्ञावान और धार्मिक है।
      जब—जब इसे सोचा है दिल थाम लिया मैंने
      इंसान के हाथों से इंसान पे क्या गुजरी
      आदमी ने आदमी के साथ क्या नहीं कियाऔर तुम थोड़ा सोचोकिसलिएपाया क्याहिटलर ने कितने लोग मारे! चंगेज खां ने कितने लोग समाप्त किए! हम भी सब छोटे—मोटे पैमाने पर वही करते हैंपाते क्या हैं?
      पाते कुछ भी नहीं। बच्चों के खेल हैं जैसे! बड़े महल बनाते हैं सपनों केएक दिन सब पड़ा रह जाता है।
      मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि तुम बिना समझे इस सब से भाग खड़े होना। भागने की बात नहीं हैतुम इसे समझना। जब तुम एक कलम उठाओ प्रतिस्पर्धा का तो सोचनाक्या होगाजब तुम्हारे मन में आकांक्षा पकड़े बहुत धन इकट्ठा कर लेने की तो सोचनाइससे क्या होगाइस पर मनन करनाचिंतन करनाध्यान करना। जब कोई तुम्हें गाली दे और अपमानित हो उठो और हत्या तुम्हारे मन को पकड़ने लगेहिंसा के बादल तुम्हें घेर लें तो सोचनाइससे क्या होगाइससे क्या सार हैजब तुम व्यर्थ की चीजों को इकट्ठा करने में विक्षिप्त होने लगो तो सोचना—
      इससे क्या फायदा रंगीन लबादों के तले
      रूह जलती रहेघुलती रहेपजमुर्दा रहे
      इससे क्या फायदाकितने ही रंगीन लबादे हों और भीतर आत्मा सड़ती रहे—किसको धोखा दे रहे होइस धोखे का सार क्या हैऔर किसी भी घड़ी श्वास बंद हो सकती है। यह जो एक महान अवसर मिला थाजिसमें कि तुम जाग सकते थेउसको व्यर्थ के खिलौने इकट्ठे करने में गवांओगे?
      रेत की सी दीवार है दुनिया
      ओछे का सा प्यार है दुनिया
      रेत की सी दीवार है दुनिया
      बनाओबहुत बनाओबड़ा श्रम उठाओखून—पसीना करोसब गंवाओ बनाने में और फिसल—फिसल जाती है। छोटे बच्चे ही जाकर रेत में घर नहीं बनातेतुम भी वही कर रहे हो। समय की रेत पर बनाए सभी घर गिर जाने वाले हैं। समय की रेत पर बनाया गया कुछ भी ठहरेगा नहीं।
      जैन शास्त्रों में एक कथा है। एक चक्रवर्ती हुआतो जैन शास्त्र कहते हैं कि जब कोई चक्रवर्ती हो जाता है—चक्रवर्ती यानी सारे जगत का सम्राट हो जाता हैसभी का अकेला मालिक हो जाता हैवही सभी होना चाहते हैंजिसका चक्र सारे जगत में घूमने लगता है—तो उसके लिए एक विशेष सुविधा मिलती है। स्वर्ग में कैलाश पर्वत हैवहां चक्रवर्ती को अधिकार है दस्तखत करने का उस पर्वत पर। उस पर्वत पर जो भी दस्तखत किया जाता हैवह अरबों—खरबों वर्षों तक टिकता है। वह कोई ऐसा पर्वत नहीं है कि यहां जैसा पर्वत होदस्तखत किया और कुछ सैकड़ों वर्षों में खो जाएगाटिकता है अरबों—खरबों वर्षों तक।
      तो एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गयावह बड़ा प्रसन्न थाआकांक्षा पूरी हुई और उस पर्वत पर दस्तखत करने जा रहा है। तो उसने सोचा था कि बड़े—बड़े अक्षर में दस्तखत कर आऊंगा। लेकिन जब वह पर्वत के पास पहुंचा तो उसकी आंख आंसुओ से भर गई। पर्वत पर जगह ही न थीइतने लोग पहले दस्तखत कर चुके थे। बड़े की तो बात औरएक कोना खाली न थाइतने चक्रवर्ती हो चुके थे समय की अनंत धारा में। कोई हिसाब है! सोचा थाउस विराट पर्वत पर बड़े—बड़े अक्षर में दस्तखत कर आएंगे।
      फिर मजबूरी में कोई जगह न पाकर पुराने दस्तखतों को मिटाकर अपने दस्तखत किए। लेकिन तब उसका मन दीन—जीर्ण हो गया कि अगर यह हालत हैतो कोई हमारा भी मिटाकर दस्तखत कर जाएगा। यह कितनी देर टिका!
      जब वह भीतर जा रहा था तो वह अपनी पत्नी को भी साथ ले जाना चाहता था। लेकिन द्वारपाल ने कहाभलेमानस! इसकी आशा नहीं हैअकेले ही भीतर जाना पड़ता है। पर मजा ही क्या अगर पत्नी न देख पाए पति का गौरव कि वह दस्तखत कर रहा है!
      उसने बड़ी जिद की थीलेकिन द्वारपाल ने कहा थामात्र तू! लौटकर तू प्रसन्न होगा कि पत्नी को नहीं ले गया तो अच्छा हुआ। और ऐसा कुछ तेरे साथ ही हुआ हैऐसा नहीं हैमेरे पिता भी यही काम करते थे द्वारपाल का। वह भी कहते थेजब भी कोई आता हैवह पत्नी को साथ ले जाना चाहता है। उनके पिता ने भी उनसे यही कहा था। यह सदा से होता रहा है। और यह भी मुझे पता है कि लौटकर तू धन्यवाद देगा—ऐसा सदा से होता रहा है—कि अच्छा हुआपत्नी को साथ न ले गया। मिट्टी पलीत हो जाती है।
      लौटकर उसने धन्यवाद दिया कि बड़ी कृपा है कि यहां पहरा बिठाया है। अब लौटकर अपनी ज्ञान तो कह सकूंगा। अगर पत्नी भी देख लेती कि यहां तो कोई जगह ही खाली नहीं हैयह कोई बड़ा गौरव नहीं है।
      चक्रवर्ती भी हो जाओक्या मिलने वाला हैकितने लोग हो चुके हैं! और स्वर्ग के पर्वतों पर भी दस्तखत करने का मौका मिल जाएवे भी रेत पर ही किए गए दस्तखत हैं। सब हस्ताक्षर रेत पर हैं।
      सिर्फ एक तुम होजो समय के पार हो। सिर्फ एक तुम्हारा होना हैजो समय की धार में नहीं है। अगर उसे पा लिया तो कुछ पायाअगर उसे गंवाया तो सब गंवाया।
      'पार जाने वाले मनुष्यमनुष्यों में थोड़े ही हैं। ये इतर लोग तो किनारे—किनारे ही दौड़ने वाले हैं।
      पार जाने वाले मनुष्यसंसार से पार जाने वाले मनुष्यसमय से पार जाने वाले मनुष्य थोड़े ही हैं। इतर लोग तो किनारे—किनारे ही दौड़ते रहते हैं।
      किनारे तुम कितने ही दौडोकुछ न पाओगे। पार जाना होगाअतिक्रमण करना होगा। उस अतिक्रमण की कीमिया का नाम ही धर्म है। उस अतिक्रमण के लिए जो नौका बनाई जाती हैउसी का नाम ध्यान है। पार जाने के लिए जो सीढ़ी लगाई जाती हैउसी का नाम निर्विचार है।
      कैसे यह निर्विचार की सीढ़ी लगेकैसे यह नौका बने ध्यान कीकि तुम पार जा सकोसमय के पार! इसे थोड़ा समझ लेंयह बहुत बहुमूल्य सूत्र है।
      वासना सदा कहती है—कल। तृष्णा सदा कहती है—कल। चाह सदा कहती है—कल। ध्यान कहता है—आजअभीयहीं। ध्यान के लिए वर्तमान के अतिरिक्त कोई क्षण नहीं है। चाह के लिए वर्तमान को छोड़कर सब है—भविष्य हैअतीत है। ध्यान के लिए न अतीत हैन भविष्य हैबस यही क्षण है। और इसी क्षण में से समय के पार जाने का द्वार है।
      वर्तमान के क्षण में वह सुविधा है कि अगर तुम ठहर जाओतुम सरक जाते हो समय के पार। मगर वहीं मन ठहरने नहीं देता। मन कहता हैकल मकान बनाना हैपरसों धन कमानाफिर यह करनाफिर वह करना। मन योजनाएं बनाता है। उन्हीं योजनाओंके कारण वह जो संकरा सा द्वार हैअति संकरा.।
      जीसस ने कहा हैद्वार बहुत संकरा हैलेकिन बिलकुल सीधा है। सरल हैसुगम हैलेकिन बहुत संकरा है। इतना संकरा है कि अगर तुम बहुत बारीकी से न देखो तो तुम चूकते ही चले जाओगे।
      वर्तमान का क्षण कितना छोटा हैकभी तुमने सोचान के बराबर है। तुम जब सोचते हो वर्तमान का क्षणतभी वह अतीत हो जाता हैइतना छोटा है। इधर तुमने कहा वर्तमानइधर वह वर्तमान न रहा—गया! जानते ही अतीत हो जाता है। तो या तो भविष्य होता है या अतीत होता है। जब तक नहीं जानतेतब तक भविष्यजैसे ही जानाअतीत। जब तक आशा करते होआ रहा है... आ रहा है.. तब तक आया नहींजैसे ही जानाआ गया—जा चुका!
      वर्तमान के क्षण को विचार कभी पकड़ ही नहीं पाता।
      इसे थोड़ा समझना। विचार की पकड़ बड़ी बोथली हैवर्तमान का क्षण बड़ा सूक्ष्म है। या तो विचार भविष्य को पकड़ता हैजो अभी आया नहींया अतीत को पकड़ता हैजो जा चुका—दोनों व्यर्थ हैं।
      सत्य का तो अर्थ है : वहीजो हैजो न कभी आताजो न कभी जाता। एस धम्मो सनंतनो—जो धर्म सदा हैअभी हैकल भी थाकल भी होगा। इसलिए कल की बात ही उठानी व्यर्थ है। वह सदा ही आज है।
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही हैफल नहीं है
      डाल कोंपल फूल किसलय
      एक केवल आवरण हैं
      भूलता इसमें कभी क्या
      बीज निज को एक क्षण है?
      आज का अंतिम चरण तो
      आज ही हैकल नहीं है
      दिवस रजनी मास वत्सर
      ताप हिम मधुमास पतझर
      लय कभी इनमें हुआ क्या
      आज के अस्तित्व का स्वर?
      पंथ की अंतिम शरण तो
      पंथ ही हैमंजिल नहीं है
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही हैफल नहीं है
      बीज फिर बीज हो जाता है सारी यात्रा के बाद। अंकुरण होतावृक्ष बनताफूल लगतेफल लगतेबीज फिर आ जाता है। पहले भी बीजअंत में भी बीज।
तो बीच में सब खेल है। तो बीच में जितने रूप लिएवे सब आवरण हैं। तो बीच में जो बहुल लिएजो बहुरुपिया बना बीज—कभी फूलकभी पत्तीकभी वृक्ष—वह वास्तविक नहीं है। वह जो प्रथम है और फिर अंत में हो जाता हैवही वास्तविक है।
      वर्तमान ही केवल वास्तविक है। वही सदा—सदा लौट आता है। कल फिर आज आ जाएगा। जब कल आएगा तो कल न होगाकल जब आएगाफिर आज हो जाएगा। परसों जब आएगा तब आज हो जाएगा। जिसे तुम बीता कल कह रहे होवह भी आज ही थाऔर किसी समयातीत लोक में आज भी आज ही है।
      हमारे देखने की सीमा है। हम अखंड विस्तार को नहीं देख पातेखंड कर—कर के देखते हैं।
      जैसे तुम एक रास्ते पर खड़े हो। एक आदमी गुजरातुम्हारे सामने आया तो दिखाई पड़ाफिर आगे के मोड़ पर मुड़ गया तो दिखाई नहीं पड़ता। पीछे के मोड़ पर जब तक नहीं मुड़ा थादिखाई नहीं पड़ता था। जब तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता थातब भी वह था। अब जब तुम्हें नहीं दिखाई पडताआगे के मोड़ पर मुड़ गयातब भी है। तुम्हारे देखने की सीमा हैउसके होने की सीमा नहीं है। तुम्हारे देखने की सीमा ही उसके होने की सीमा नहीं है।
      फिर एक आदमी झाडू पर चढ़ा बैठा हैउसको वह दूर तक दिखाई पड़ता है। नीचे खड़े आदमी को जब दिखाई पड़ना बंद हो जाता हैतब भी उसे दिखाई पडता है। फिर कोई आदमी हवाई जहाज पर सवार हैतो उसे और भी दूर तक दिखाई पड़ता है। जितनी तुम्हारी चैतन्य की ऊंचाई बढ़ती जाती हैउतना ही तुम पाते होतुम्हारी दृष्टि बड़ी होती जाती है।
      तो जिसे तुम अतीत कहते होवह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है। जिसे तुम भविष्य कहते होवह भी ज्ञानी को वर्तमान ही दिखाई पड़ता है।
      इतनी के लिए बीज ही सत्य है। क्योंकि वही—वही लौट आता है। वर्तमान ही सत्य हैक्योंकि वही—वही पुनरुक्त होता है। अतीत और भविष्य हमारी सीमाओं के द्योतक हैं।
      समय अविभाज्य है। न तो कुछ अतीत हैन तो कुछ भविष्य। जो हैवह सदा है। ध्यान से जिन्होंने देखा हैउन्होंने कहा हैजो सदा हैवही है। जो हैवह सदा है।

      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही हैफल नहीं है
      डाल कोंपल फूल किसलय
      एक केवल आवरण हैं
      भूलता इसमें कभी क्या
      बीज निज को एक क्षण है?
      आज का अंतिम चरण तो
      आज ही हैकल नहीं है
      दिवस रजनी मास वत्सर
      ताप हिम मधुमास पतझर
      लय कभी इनमें हुआ क्या
      आज के अस्तित्व का स्वर?
      पंथ की अंतिम शरण तो
      पंथ ही हैमंजिल नहीं है
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही हैफल नहीं है

      वासनाफल की आकांक्षा है। ध्यानफलाकांक्षा से मुक्‍ति है।
      इसलिए कृष्ण की पूरी गीता एक शब्द पर टिकी है : फलाकांक्षा का त्याग। वासना कहती हैकल क्या होगाउसको सोचती है। उसी सोचने में आज को गंवा देती है। ध्यान आज जीता हैकल को सोचता नहीं। उसी जीने से कल उमगता है, निकलता है।
      कल एक महिला ने रात मुझे पूछासच में ध्यान से शाति मिलेगीअगर मिलने की पक्की गारंटी हो तो वह ध्यान करने का सोचती है। गारंटी कौन देगाऔर मजा तो यह है कि ध्यान का अर्थ ही है कि क्या मिलेगा उसको छोड़ देना। ध्यान में भी अगर फलाकांक्षा है कि क्या शाति मिलेगीतो फिर ध्यान भी ध्यान न रहावासना हो गया।
      ध्यान से शांति मिलती है—मिलेगीऐसा नहीं—मिलती है वह उसका परिणाम है। लेकिन ध्यान करने वाले को इतनी वासना भी रखनी खतरनाक है कि शांति मिलनी चाहिएतब फिर वह ध्यान नहीं कर रहा हैविचार ही कर रहा है। ध्यान में इतना लोभ भी बाधक है। ध्यान भी हो जाएइतना लोभ भी बाधक है। इसलिए इतने लोग ध्यान करते हैं और चूकते चले जाते हैंक्योंकि बुनियादी कुंजी ही चूक जाते हैं।
      इस क्षण में परिपूर्ण होना है। इस क्षण से बाहर नहीं जाना है। इस क्षण को पूरा अस्तित्व जानना है। इस क्षण के बाद कुछ भी नहीं है—न पीछे कुछन आगे कुछयही क्षण है। इसी क्षण में हम पूरे के पूरे घिर हो जाएंध्यान हो गया। बड़ी शांति मिलती है। ध्यान रखनामिलेगीऐसा नहीं कह रहा हूं मिलती है। लेकिन उन्हीं को मिलती हैजो मांगते नहीं। जिन्होंने मांगीवे कुंजी चूक गए। मैली तो वासना हो गईमांगी तो कल आ गयामांगी तो फल आ गया।
      बीज का अंतिम चरण प्रिय
      बीज ही हैफल नहीं है
      जैसे तुम्हें एक बार इसकी झलक मिल जाएगीफिर कठिनाई न रह जाएगी। पहली झलक अत्यंत कठिन हैक्योंकि पहली झलक करीब—करीब असंभव मालूम होती है। तुम पूछोगेजब आकांक्षा ही नहीं करनी तो हम ध्यान करें ही क्योंकरेंगे ही कैसेकरेंगे तो आकांक्षा के साथ करेंगे।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। तुमने अब तक जो भी कियाआकांक्षा के साथ किया। लेकिन तुम अभी तक यह न देख पाए कि आकांक्षा  तो बहुत कीपाया क्याआकांक्षा  से अभी भी तुम थके नहींआकांक्षा  से अब तक तुम्हारे मुंह में कडुवापन नहीं आयाआकांक्षा  से तुम अभी तक ऊबे नहींआकांक्षा  ने दिया क्यादेने के भरोसे बहुत दिएकोई भरोसा पूरा नहीं हुआ। आकांक्षा  ने भ्रम के सिवा और क्या दियाचलाए चलीपहुंचाया तो कहीं नहीं।
      आकांक्षा को जब तुम गौर से देखोगे तो तुम पाओगेआकांक्षा से कुछ भी नहीं मिला। आकांक्षा गिर जाएगी उस बोध के क्षण में। और उसी बोध के क्षण में ध्यान उपलब्ध होता है। आकांक्षा  का अभाव ध्यान है।
      पहले ऐसे कभी—कभी घटेगाफिर—फिर तुम भटक जाओगे। फिर धीरे—धीरे ज्यादा—ज्यादा घटेगाकम—कम भटकोगे। फिर एक दिन ऐसा आएगा कि तुम बिलकुल थिर हो जाओगे। हवाओं के झोंके आएंगेगुजर जाएंगेतुम्हारी लौ न कंपेगी। दुख आएंगे सुख आएंगेतुम निष्कंप चलते रहोगे। सब छूट जाएगाक्योंकि तुमने अपने को पा लिया होगा।
      वस्तुत: जिसने स्वयं को पा लियासब पा लिया। छूटता हैक्योंकि जिसने  —सब पा लियाअब वह व्यर्थ को पाने के लिए नहीं दौड़ता।
      सत्युरुष ऐसी संपदा का धनी हो जाता हैजो शाश्वत है। ऐसे पद पर विराजमान हो जाता हैजिसके पार कोई पद नहीं।
      निश्चित हीसब छंद—राग छूट जाते हैंक्योंकि महाछंद बज उठता है। छंदों का छंद भीतर अहर्निश बजने लगता है। सब गीत—गान बंद हो जाते हैंक्योंकि गायत्री मुखरित हो उठती है।