Wednesday, October 19, 2016

❣ !!प्रेम परमात्मा!! ❣

💗  प्रेम सच्चा हो तो तुम्हारे जीवन में
सब तरफ सच्चाई आनी शुरू हो जाएगी।
क्योंकि प्रेम तुम्हें बड़ा करेगा, फैलाएगा।
और धीरे-धीरे अगर तुमने एक व्यक्ति
के प्रेम में रस पाया तो तुम औरों को
भी प्रेम करने लगोगे।
मनुष्यों को प्रेम करोगे–
प्रेम की लहर बढ़ती जाएगी–
पौधों को प्रेम करोगे,
पत्थरों को प्रेम करोगे।
अब सवाल यह नहीं है कि
किसको प्रेम करना है,
अब तुम एक राज समझ लोगे कि
प्रेम करना आनंद है।
किसको किया, यह सवाल नहीं है।
अब तुम यह भूल ही जाओगे कि
प्रेमी कौन है।
नदी, झरने, पहाड़, पर्वत,
सभी प्रेमी हो जाएंगे।

लेकिन जैसे झील में कोई पत्थर फेंकता है
तो छोटा सा वर्तुल उठता है
लहर का, फिर फैलता जाता,
फैलता जाता, दूर तटों तक चला जाता है;
ऐसे ही दो व्यक्ति जब प्रेम में पड़ते हैं
तो पहला कंकड़ गिरता है
झील में प्रेम की,
फिर फैलता चला जाता है।
फिर तुम परिवार को प्रेम करते हो,
समाज को प्रेम करते हो,
मनुष्यता को, पशुओं को,
पौधों को, पक्षियों को, झरनों को,
पहाड़ों को, फैलता चला जाता है।
जिस दिन तुम्हारा प्रेम
समस्त में व्याप्त हो जाता है,
अचानक तुम पाते हो
परमात्मा के सामने खड़े हो।

प्रेम पकता है
तब सुवास उठती है प्रार्थना की।
जब प्रार्थना परिपूर्ण होती है
तो परमात्मा द्वार पर आ जाता है।
तुम उसे न खोज पाओगे।
तुम सिर्फ प्रेम कर लो;
वह खुद चला आता है........

💜 ताओ-उपनिषाद-भाग-6-प्रवचन-107  💜

💞🌿💖ओशो 🙏🌿💞

💓💓💓💓💓💓💓💓💓💓💓

आश्रम बन जाना चाहिए

मेरे हर संन्यासी का घर आश्रम बन जाना चाहिए वहां से सुगंध उठनी चाहिए..
वहां से दूर -दूर तक सुवास पहुंचानी चाहिए । इतना मैं तुम्हें कह देना चाहता हूं कि करोड़ो लोग प्यासे हैं ।
तुम जहां भी जाओ, मेरी खबर ले जाओ।
तुम इस ढंग से जीओ, तुम इस आनंद और मस्ती से जीओ; तुम इस पागलपन से जीओ और श्रद्धा से जीओ कि दूसरे भी तुम्हारे पास आकर मस्त होने लगें..उनके जीवन में नृत्य की शुरुआत हो जाए .

|| ❤ओशो ❤||

प्रभु की खोज-कहा से शुरू करु

प्रश्न ; - आपकी बातें सुनता हूं , तो प्रभु खोज के विचार उठते हैं । लेकिन समझ नहीं पड़ता कि कहां से शुरु करुं ।

अगर तुम मेरी सलाह मानना चाहते हो तो मैं कहूंगाः प्रकृति से शुरु करो । क्योंकि प्रकृति मे ही परमात्मा छिपा है ।
वृक्षों-फूलों को देखो ; चांद-तारों को देखो ; नदी सागरों को देखो ।
परमात्मा इन सब में छिपा है । यहीं तलाशो ।
तो पहला परमात्मा का कदम प्रकृति से उठाओ । प्रकृति में दिख जाये , तो फिर सब जगह दिखाई पड़ने लगेगा ।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि टेनीसन ने कहा है ....
एक फूल को देखा खिला हुआ । एक पत्थरों की दीवाल में ,
जरा-सी पत्थरों के बीच में संध थी , उसमें से फूल निकल आया था । चौंककर खड़े हो गये टेनीसन और उन्होंने अपनी
डायरी में लिखाः अगर मैं इस एक फूल को समझ लूं पूरा-पूरा
तो मुझे सारा अस्तित्व समझ में आ जायेगा ।
और परमात्मा की सारी लीला भी ।
एक फूल में सब छिपा है ।
एक फूल में ।

हम इस प्रकृति के हिस्से हैं । हम भी एक पौधें है ।
हमारी भी यहां जड़ें हैं । यह जमीन जितनी वृक्षों की है , उतनी
हमारी है । ये वृक्ष जैसे जमीन से पैदा हुए , हम भी पैदा हुए हैं
सागर में जो जल लहरें ले रहा है , वही जल हमारे भीतर भी
लहरें ले रहा है । वृक्षों में जो हरियाली है , वही हमारा जीवन भी है ।

जिसने कभी फूल खिलते नहीं देखा , वह अभी पूरा आदमी
नहीं । और जिसने कभी पक्षियों के गीत शांति से बैठकर
नहीं सुने , और जो आदमियों की आवाज ही सुनता रहा है ,
वह आदमी नहीं । और जिसने कभी रात के चांद-तारों से गुफ्तगु न की , वह आदमी आदमी नहीं , वह आदमी बहुत
अधूरा है ।

और जिसने प्रकृति को देखा , उसी को देखने के नए कोण   नई दृष्टियां , नए दर्शन उपलब्ध होते हैं । और जिसने प्रकृति को देखा , वही शाश्वतता को प्रेम कर पायेगा , क्योंकि वह देखेगा ; यहां शाश्वत है ।
गुलाबों के फूल बहुत हुए और गए , लेकिन गुलाब का फूल
बना है । कुछ फर्क नहीं  पड़ता -- एक फूल जाता है ,
दूसरा उसकी जगह भर देता है ।
परमात्मा का सृजन अनंत है ।

और इस प्रकृति को तुम देखोगे  , तो तुम्हें समझ में आयेगा ;
यहां कितने-कितने ढंग के फूल हैं !
कितने रंग , कितने ढंग ! कितने अद्वितीय !
कहां गुलाब , कहां  गेंंदा , कहां कमल , कहां चंपा , कहां चमेली ! सब कितने अलग ! और सब में एक का ही वास है
और सब में एक की ही सुवास है !

ऐसे ही लोग भी अलग-अलग है ! ऐसे ही लोग भी भिन्न-भिन्न हैं । उनकी प्रार्थनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी ।
उनकी भावनाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी ।

प्रकृति को देखोगे , तो तुम्हें भिन्नता में एकता दिखाई पड़ेगी ।
और जिसको भिन्नता में एकता दिखाई पड़ गई , उसको मनुष्य का अन्तस्तल दिखाई पड़ गया ।

मैं कहता हूं ; प्रकृति से शुरु करो ।
प्रकृति में डूबने लगो ।
एक घंटा तो कम से कम खोज ही लो , जो आदमियों से दूर ,
एक दूसरी भाषा में , एक दूसरे जगत में तुम्हें ले जाये ।

मैं तुमसे यह भी नहीं कहता हूं  कि तुम सदा के लिए वृक्षों और पौधों के हो जाओ । वह भी गलती होगी ।
क्योंकि ऐसे तो जिस दिन तुम्हें समझ आयेगी , तुम पाओगे ;
आदमी भी उसी की अभिव्यक्ति है ।
उसकी सबसे बड़ी अभिव्यक्ति आदमी है ।
फूलों में कुछ भी नहीं फूला है -- आदमी में चैतन्य फूला है ।

मगर शुरुआत करो -- अ ब स से । आदमी को शायद तुम अभी समझ भी न पाओ ।

मनुष्य की चेतना तो आत्यंतिक , आखिरी फूल है -- जगत का , अस्तित्व का ।
इसलिए मैं यह नहीं कहता कि आदमी से सदा के लिए भाग जाओ ।
मैं  यह कहता हूं ; आदमी को जानना हो तो थोड़ी देर के लिये
आदमी से मुक्त हो जाओ ; थोड़ी दूरी बनाओ ;
थोड़े वृक्षों से दोस्ती करो ; पशु -- पौधों - पक्षियों से दोस्ती करो ।
और तब तुम एक दिन जब आदमी पर लौट कर आओगे ; और
ये पक्षियों , पौधों , वृक्षों  से जो तुम पाठ लेकर आओगे
और तुम्हारा हृदय , तुम्हारी भावनाएं सभ्य हो गई होंगी ;
तुम किसी काव्य से , अभिनव काव्य से भरे जब आदमी को फिर से देखोगे , तब तुम पहचानोगे कि आदमी परमात्मा की
प्रतिलिपि है ।

प्रकृति से शुरु करो !

ओशो

Monday, October 10, 2016

गीता दर्शन--(प्रवचन--002)


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