Thursday, September 15, 2016

आत्मा तो अपनी ही है फिर पाने की क्या जरूरत??

एक प्रश्न है-  ओशो, अपने को, अपनी आत्मा को पाने की क्या जरूरत है? जो अपना है उसको ही कैसे पाना है?

बड़ा अच्छा प्रश्न है। बड़ी समझदारी का और बड़ी नासमझी का भी।

लिखा है ' अपने को अपनी आत्मा को पाने की क्या जरूरत है?'
बिलकुल ही ठीक लिखा है। जो अपनी है उसको पाने की क्या बात है? उसको पाने का कोई सवाल नहीं है। जो अपना ही है उसको पाना क्या है? तो जो आत्मा है उसे क्या पाना है? यह तो बिलकुल ठीक बात है। आत्मा को पाने की बिलकुल जरूरत नहीं है।
लेकिन आत्मा आपके पास है? जो अपना है वह है आपके पास? यानी आपको लगता है कि आत्मा आपमें है?
अगर है तो जरूर ही बिलकुल नहीं पाना है। और अगर नहीं लगता तो फिर? अगर आपको लगता है सुनिश्चित कि मेरे भीतर आत्मा है, तो सच में ही नहीं पाना है। फिर पाने की क्या बात है! लेकिन आपको लगता है कि आत्मा है? लगता नहीं होगा। लगता इतना ही होगा यह देह है, ज्यादा से ज्यादा मन है, और क्या है?
तो मैं आपको कहूं जो अपना है वह अपना होने की वजह से ही ज्ञात नहीं हो पाता। जो बहुत निकट होता है वह स्मरण में नहीं रह जाता। दूर की चीजें दिखाई पड़ती हैं, पास, बहुत पास की चीजें फिर दिखाई नहीं पड़ती। जो बिलकुल ही निकट है वह इसीलिए नहीं दिखाई पड़ता कि वह बहुत निकट है। और जो बिलकुल अपना है उसे हम इसीलिए भूल जाते हैं। अपना इसीलिए भूल जाता है कि वह बिलकुल अपना है। वह चौबीस घंटे सतत, सोते— जागते, उठते—बैठते हमारे भीतर है। वह इतना हमारे साथ है कि जन्म हमारा नहीं हुआ तब वह था जब हमने जन्म पाया तब है, जब हम मरेंगे तब होगा। तो और सब तो दिखता है जो परिवर्तित होता रहता है, जो परिवर्तित नहीं होता वह दिखता नहीं है।
आप यह जान कर हैरान होंगे, जो चीज बिलकुल परिवर्तित नहीं होती वह आपको दिखेगी नहीं, जो. चीजें परिवर्तित होती हैं वे दिखाई पड़ेगी। परिवर्तन उनको हमारी आंख में स्पष्ट कर देता है। जो बिलकुल ही मौजूद है और कभी बदलता नहीं और हमेशा साथ है, वह भूल जाता है। असल में हम उसी को याद रख पाते हैं जिसे पाना है। आप समझ लें। हम उसी को याद रख पाते हैं जिसे पाना है। जो मिला नहीं है उसकी याद रहती है, जो मिल जाता है वह भूल जाता है।
इसलिए जगत में जो चीजें आप पा लेंगे वे आपको भूल जाएंगी। जो आपने नहीं पाई हैं वे आपको स्मरण बनी रहेंगी। सारी वासना, सारी डिजायर यही तो करती है। जो मिल गया वह भूल जाएगा। आपके पास एक बड़ा भवन है वह आपको भूल जाएगा। जो बड़े भवन आपके पास नहीं हैं वे आपकी याद में होंगे। जो प्रेम आपको मिला वह आपको भूल जाएगा, जो नहीं मिला वह आपके स्मरण में होगा। जो नहीं है वह दिखता रहता है और जो है वह दिखना बंद हो जाता है।
तो आत्मा इसीलिए आपको उपलब्ध होकर भी अनुपलब्ध हो जाती मालूम होती है, क्योंकि वह निरंतर उपलब्ध है, उसका स्मरण नहीं रहता। उसे पाना नहीं है न, इसलिए स्मरण नहीं रहता। उसे खोजना नहीं है, इसलिए स्मरण नहीं रहता।
इसलिए साधक को एक बार एक बड़ी अबूझ पहेली में से गुजरना पड़ता है। उसे उसको फिर से पाना होता है, जिसे वह कभी खोया नहीं। उस सत्य को उसे फिर से पाना होता है, जिसे उसने कभी खोया नहीं। उस भूमि पर पैर रखने होते हैं, जिस भूमि से पैर कभी हटाए ही नहीं थे। उसके प्रति आंख खोलनी होती है, जो निरंतर आंख में था, इसलिए दिखना बंद हो गया था।
यह बात विपरीत लगती है, लेकिन विपरीत नहीं है। बहुत स्वाभाविक है। बहुत स्वाभाविक है। अगर आपको लगता हो कि आत्मा मेरे भीतर है, तब तो कोई सवाल ही नहीं है और कोई प्रश्न भी नहीं है—पूछने न पूछने, जानने न जानने, पाने न पाने का कोई प्रश्न नहीं है। लेकिन अगर न लगता हो, तो अभी तो आपको पता ही नहीं है कि आत्मा है भी या नहीं। जिस दिन आपको पता लगेगा आत्मा मैं हूं उस दिन पाने जैसा कुछ भी नहीं है। जब तक यह नहीं पता लगा है तब तक तो सब पाने जैसा है।
तो अगर कोई यह सोच ले कि आत्मा तो है ही, इसलिए पाना क्या है? तो जीवन नष्ट कर लेगा। यह केवल बातचीत थी, सुन लिया कि आत्मा तो है ही, इसलिए पाना क्या है? यह केवल एक लाजिकल कनवर्जन था। सुन लिया कि लोग कहते हैं आत्मा भीतर है। जब यह सुन लिया, तो हमने सोचा कि फिर पाना क्या है? पाना क्या है, यह हमारा निष्कर्ष है। यह हमारी तरकीब है बचने की। और वह दूसरे का निष्कर्ष है कि आत्मा है। आत्मा है, यह दूसरे का निष्कर्ष है। अब पाना क्या है, पाने की कोई जरूरत नहीं, यह हमारा निष्कर्ष है। आप समझ लें! इस वाक्य में दो व्यक्तियों के निष्कर्ष हैं, एक के नहीं। अगर एक के हों तो बात हल हो जाएगी। आत्मा है, यह महावीर का होगा, बुद्ध का होगा, कृष्ण का होगा। फिर पाना क्या है जब हमारे भीतर है ही, यह हमारा है। अगर पहला भी आपका है, तो फिर कोई दिक्कत नहीं। अगर पहला दूसरे का है, तो दूसरे के अनुभव से आप निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। अपना अनुभव अपना निष्कर्ष होगा।दूसरे का अनुभव आपके लिए निष्कर्ष नहीं हो सकता।


ओशो

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