Sunday, June 22, 2025

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--022)

बुद्धिबुद्धिवाद ओर बुद्ध—(प्रवचन—बाईसवां)

 


पहला प्रश्‍न:
      भगवान बुद्ध का मार्ग संदेह के स्वीकार से शुरू होता है। क्या उनका बग भी आज के युग जैसा ही बुद्धिवादी थासंदेहवादी थाऔर क्या आज के समय में धम्मपद सबसे ज्यादा प्रासांगिक है?

      हीं—बुद्ध का युग तो बुद्धिवादी नहीं थान ही संदेहवादी था। बुद्ध अपने समय से बहुत पहले पैदा हुए थे। अब ठीक समय था बुद्ध के लिए—पच्चीस सौ साल बाद।
      बुद्ध जैसे व्यक्ति सदा ही अपने समय के पहले होते हैं। जमाने को बड़ी देर लगती है उस जगह पहुंचने मेंजो बुद्ध पुरुषों को पहले दिखाई पड़ जाता है। बुद्धत्व का अर्थ है देखने की ऊंचाइयां। जैसे कोई पहाड़ पर चढ़कर देखेदूर सैकड़ों मील तक दिखाई पड़ता है। और जैसे कोई जमीन पर खड़े होकर देखे तो थोड़ी ही दूर तक आंख जाती है।

      बुद्ध पुरुष सदा ही अपने समय के पहले होते हैं। और इसलिए बुद्ध पुरुषों को सदा ही उनका समयउनका युग इंकार करता हैअस्वीकार करता है। बुद्ध ने जो बातें कहीं हैंअभी भी उनके लिए पूरा—पूरा समय नहीं आया। कुछ आया है अभी भी पूरा नहीं आया।
      समझने की कोशिश करें।
      बुद्ध ने एक ऐसे धर्म को जन्म दियाजिसमें ईश्वर की कोई जगह नहीं है। एक ऐसी प्रार्थना सिखाईजिसमें परमात्मा का कोई स्थान नहीं। अड़चन है—आज भी अड़चन है। आज भी तुम बिना परमात्मा के प्रार्थना कैसे करोगेआज भी तुम्हें कठिनाई होगी। प्रार्थना बिना परमात्मा के होगी कैसेतुम वस्तु में आधार खोजते होबाहर सहारा खोजते हो। परमात्मा भी बाहर ही तुम कल्पित करते हो।
      तुम्हें प्रार्थना भी करनी हो प्रार्थना तो भीतर की भावदशा है। उसके लिए भी बाहर कोई निमित्त चाहिए!
      बुद्ध ने सब निमित्त छुड़ा लिए। बुद्ध ने कहाप्रार्थना पर्याप्त हैपरमात्मा की कोई जरूरत नहीं। अभी भी देर है मनुष्य के इतने धार्मिक होने मेंजहां प्रार्थना परमात्मा के बिना पर्याप्त होगी। इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य परिपूर्ण रूप से अंतर्मुखी हो। यह परमात्मा की बात भी बाहर देखने की ही बात है। जब भी तुम परमात्मा शब्द का उपयोग करते होतब तुम्हारी आंख बाहर गई। यहां तुमने कहा परमात्मावहा मंदिर बने। यहां तुमने कहा परमात्मावहा प्रतिमा बनी। इधर तुम्हारे मन में परमात्मा का खयाल आया कि कहीं आकाश में तुम्हारी आंख उसे खोजने लगी। कहा परमात्माऔर परमात्मा एक व्यक्ति हो गया—स्रष्टापृथ्वी कोजगत को बनाने वाला हो गया। फिर तुम झुकते हो।
      तुम किसी के सामने झुकते हो। तुम्हारा झुकना शुद्ध नहीं। तुम मजबूरी में झुकते हो। झुकना तुम्हारा आनंद नहीं। तुम कारण से झुकते होअकारण नहीं।
      बुद्ध ने कहाप्रार्थना पर्याप्त है। प्रतिमा की कोई जरूरत नहीं। झुकना इतना आनंदपूर्ण है कि किसी के सामने झुकने का बहाना भी क्यों खोजना?
      इसे थोड़ा समझो। कठिन हैबड़ी दूर की बात है। अभी भी युग आया हुआ नहीं मालूम होता। रोज किताबें बुद्ध पर लिखी जाती हैं। करीब—करीब सभी किताबें जो बुद्ध पर लिखी जाती हैंवे यही परेशानी अनुभव करते हैं लेखक उनकेकि धर्म और बिना ईश्वर केतो फिर नास्तिकता क्या है?
      बुद्ध ने एक ऐसा धर्म दियाजिसमें नास्तिक होकर भी तुम धार्मिक हो सकते हो। आस्तिकता को शर्त न बनाया। बेशर्त धर्म दिया। आस्तिकता में तो सीमा बन जाती है कि केवल वे ही बुलाए जाएंगेजो मानते हैं। बुद्ध ने कहामानने या न मानने का कोई सवाल नहीं है। जो झुकने को तैयार हैंवे बुला ही लिए गए।
      और झुकने का कोई संबंध किसी के सामने झुकने से नहीं है। यह हमारी आदत गलत है। यह सोचने का ढंग गलत है। क्या तुम अकारण नहीं झुक सकतेक्या झुकना अपने आप में अपना अंत नहीं हो सकतासाधन न होसाध्य होमार्ग न होमंजिल होनारद ने जैसे कहा हैभक्ति फलरूपा हैक्या झुकना अपने आप में सांध्यरूप नहीं हो सकता किसी के सामने।
      बुद्ध कहते हैंकोई सामने होगा तो तुम पूरे झुक ही कैसे पाओगेअड़चन पड़ेगी। किसी की मौजूदगी बाधा डालेगी। तुम पूरे मुक्त न हो पाओगे। दूसरे की मौजूदगी सीमा बनाएगी। कटघरा खड़ा करेगी। दूसरा देखता है। बुद्ध ने कहाअगर परमात्मा है तो मनुष्य कभी स्वतंत्र न हो पाएगा। मोक्ष कैसे होगादूसरा बना ही रहेगा बना ही रहेगा। दूसरा देखता ही रहेगा। उसकी आंखेंटकटकी तुम पर लगी ही रहेगी। तुम कभी खुलकर सहज न हो पाओगे।
      बुद्ध ने एक धर्म दियाजो परमात्मा से मुक्त है। बुद्ध ने एक मोक्ष दियाजिसमें परमात्मा की कोई आवश्यकता नहीं। इतनी ऊंचाई पर कोई धर्म कभी नहीं पहुंचा। थोड़ा सोचो तो! धर्म की इतनी ऊंचाईकि परमात्मा भी अनावश्यक हो जाए। प्रार्थना की इतनी बुलंदी कि परमात्मा भी आवश्यक न रह जाए। झुकना अपने आप में इतना परिपूर्ण आनंद है कि इसे दूसरे के सहारे की जरूरत नहीं। सहज—स्फूर्त! आत्म—भाव!
      लेकिन अगर यहीं तक बात होतीतो इतनी बात तो महावीर ने भी कर दी थी। बुद्ध की कुछ विशेषता न थी। और महावीर बुद्ध से कुछ वर्ष पहलेउम्र में बुजुर्ग थे। वे कोई तीस—चालीस साल बड़े थे। यह बात तो महावीर ने कह दी थी। और महावीर ने कोई नई बात न कही थी। जैन परंपरा में महावीर के पहले तेईस तीर्थंकर और हो चुके थे। बड़ी पुरानी परंपरा थी ईश्वर—रहित धर्म की भी। छोटी धारा थीजैन कभी बड़े विस्तार रूप में नहीं फैल पाए—फैल नहीं सकते। उनका भी ठीक समय नहीं आया। उनकी भी बात बड़ी समय के पहले हो गई। क्षीण धारा रहीलेकिन थी। यह कोई नई बात न थी।
      अगर बुद्ध ने इतना ही कहा होता तो बुद्ध भी जैन धारा के एक अंग हो जाते। लेकिन बुद्ध ने बुलंदी और भी ऊंची ली। बुद्ध ने पंख और भी बड़े आकाश की तरफ उठाए। और बुद्ध ने ऐसी बात कहीजिसको समझना तो दूरकोई कहेगा इस पर भी भरोसा नहीं आता।
      बुद्ध ने कहाआत्मा भी नहीं है। परमात्मा तो है ही नहीं। जिसकी तुम प्रार्थना करो वह तो है ही नहींजो प्रार्थना करता हैवह भी नहीं हैसिर्फ प्रार्थना ही है। तुम प्रेम करो वह तो है ही नहींजो प्रेम करता है वह भी नहीं है। प्रेम—पात्र भी नहीं हैप्रेमी भी नहीं है। ध्यान का विषय भी नहीं है और ध्यानी भी नहीं है। बसध्यान है। दोनों किनारे नहीं हैं। द्वैत बिलकुल नहीं है। द्वंद्व बिलकुल नहीं हैं। बुद्ध ने कहाशून्य है। न परमात्मा हैन प्रार्थी है। परमात्मा के कारण बाधा पड़ती है। और तम परमात्मा को तब तक न छोड़ पाओगेजब तक तुम हो। तुम्हारे कारण भी बाधा पड़ती है। अब इसे हम समझें।
      जब तक तुम होतब तक तुम यह न मान पाओगे कि परमात्मा नहीं है। तुम्हारे होने की धारणा में ही परमात्मा के होने की धारणा का बीजारोपण है। मैं हूं तो तू भी होगा। इस विराट तू का नाम ही परमात्मा है। अगर तू नहीं है तो मैं कैसे हो सकता हूंमैं और तू साथ—साथ ही सार्थक हैंअलग—अलग व्यर्थ हो जाते हैं।
      तो बुद्ध ने पहले तो कहापरमात्मा नहीं है। वहां तक महावीर का संग—साथ रहा। इसलिए जैन बुद्ध को महात्मा कहते हैंभगवान नहीं। आदमी भला हैथोड़ी दूर तक गया है। महात्मा हैभगवान नहीं है। अभी पूरा नहीं पहुंचा है। आधी बात तक तो साथ गया हैफिर इसका मार्ग अलग हो गया है। फिर इसने तो जड़ ही तोड़ दी। परमात्मा नहीं था यह तो कहा हीआत्मा भी नहीं है.! इसने होने की धारणा ही बदल दी। इसने होने की सब सीमाएं उखाड़ दीं।
      बड़ी अड़चन होती है बुद्धि को। कुछ भी नहीं है तो फिर इतना सब है और इस सब के नीचे कुछ भी नहीं हैऔर बुद्ध कहते हैंयह सब जो हैइस सब के भीतर कहीं भी कोई सीमा नहीं है। यह विराट हैलेकिन यह विराट कहीं भी बँटा हुआकटा हुआ नहीं है। न मैं में बंटा हैन तू में बंटा है। अविच्छिन्न है यह धारा। इसमें आत्मा कहीं भी नहीं है। इसमें कहीं भी मैं कहने की गुंजाइश नहीं है। जहां मैं कहावहीं असत्य हुआ।
      और ये जो बातें बुद्ध ने कहींये कोई दार्शनिक की बातें न थींएक अनुभव सिद्ध पुरुष के वचन थे। तुम भी जब गहरे ध्यान में जाओगे तो न परमात्मा को पाओगेन स्वयं को पाओगे। अस्तित्व होगा निर्विकारजिस पर कोई सीमा न होगीकोई सरहद न होगी। अस्तित्व होगा निर्विकारजैसे कोरा आकाश! बदलियों के रूप भी न होंगे। इस परम शून्य को बुद्ध ने निर्वाण कहा।
      संदेह से शुरू की यात्रा और शून्य पर पूर्ण की। संदेह और शून्य के बीच में बुद्ध का सारा बोध है। अभी भी समय नहीं आया। संदेह को धर्म का आधार बनाया और शून्य को धर्म की उपलब्धि। बाकी सारे धर्म विश्वास को आधार बनाते हैं और पूर्ण को उपलब्धि। यह तो बिलकुल उलटा हो गया। नाव उलटा दी। इतने उलटे धर्म को समझने के लिए बड़ी गहन प्रज्ञा चाहिए। सीधा—सीधा धर्म समझ में नहीं आताजहां विश्वास से शुरुआत होती है और जहां पूर्ण पर अंत होता है। सीधा—सीधा धर्म भी समझ से छूट—छूट जाता है। जो तुमसे ज्यादा मांग भी नहीं करता। कहता हैसिर्फ श्रद्धा करो। वह भी नहीं हो पाता। हम ऐसे अभागे! उतना भी नहीं सधता। श्रद्धा ही करने को कहता है साधारण धर्ममान लो। खोज की बात ही नहीं कहता।
      बुद्ध कहते हैंमानने से न चलेगा। बड़ी खोज करनी पड़ेगी। पहले कदम के पहले भी बडी यात्रा है। साधारण धर्म कहता हैपहला कदम बस तुम्हारे भरोसे की बात हैउठा लो। इससे ज्यादा कुछ करना नहीं। तुमसे ज्यादा मांग नहीं करता।
      लेकिन बुद्ध का धर्म तो तुमसे पहले कदम पर पहुंचने के लिए भी बड़ी लंबी यात्रा की मांग करता है। वह कहता हैसंदेह की प्रगाढ़ अग्नि में जलना होगाक्योंकि तुम जो भरोसा करोगे वह तुम्हीं करोगे न! तुम जो भरोसा करोगेवह तुम्हारी बूद्धि ही करेगी न! तुम्हारी बुद्धि अगर बाधा है तो तुम्हारी बुद्धि से आया भरोसा सीढ़ी कैसे बनेगातुम्हारी बुद्धि में ही अगर रोग है तो उस रोग से जन्मा हुआ विश्वास भी बीमारी ही होगा।
      इसलिए तो सारी दुनिया पर मंदिर हैंमस्जिद हैंगुरुद्वारे हैं—इतना विश्वास फैला हुआ हैलेकिन कहीं खबर मिलती धर्म कीकहीं सुगंध उठती धर्म कीकहीं दीए जलते धर्म केगहन अंधकार है। कहीं कोई चिराग नहीं। मंदिर अंधेरे पड़े है। मंदिर अंधेरे ही नहीं पड़े हैंअंधेरे के सुरक्षा—स्थल बन गए हैं। मस्जिदों में अंधेरा शरण पा रहा है। आस्था के नाम पर सब तरह के पाप पलते हैं। विश्वास के नीचे सब तरह का झूठ चलता है। धर्म पाखंड हैक्योंकि शुरुआत में ही चूक हो जाती है। पहले कदम पर ही तुम कमजोर पड़ जाते हो। पहले कदम पर ही साहस से खोज नहीं करते। तुम्हारा विश्वास तुम्हारा ही होगा। तुम्हारा विश्वास तुम्हें तुमसे पार न ले जा सकेगा।
      इसलिए बुद्ध ने कहातोड़ो विश्वासछोड़ो विश्वास। सब धारणाएं गिरा देनी तै। संदेह की अग्नि में उतरना है। दुस्साहसी चाहिएखोजी चाहिएअन्वेषक चाहिए—अभियान पर जाने की जिनकी क्षमता होचुनौती स्वीकार करने का जिनके भीतर साहस हो।
      और बुद्ध कहते हैंआश्वासन कोई भी नहीं है। क्योंकि कौन तुम्हें आश्वासन दे यहां कोई भी नहीं है जो तुम्हारा हाथ पकड़े। अकेले ही जाना है। मरते वक्त भी बुद्ध ने कहाअप्प दीपो भव। अपने दीए बनो। मैं मरा तो रोओ मत। मैं कौन हूंज्यादा से ज्यादा इशाराकर सकता था। चलना तुम्हें था। मैं रहूं तो तुम्हें चलना हैमैजाऊं तो तुम्हें चलना है। मेरे ऊपर झुको मत। मेरा सहारा मत लो। क्योंकि सब सहारे अंततः तुम्हें लंगड़ा बना देते हैं। सब सहारे अंततः तुम्हें अंधा बना देते हैं। सहारे धीरे—धीरे तुम्हें कमजोर कर जाते हैं। बैसाखियां धीरे—धीरे तुम्हारे पैरों की परिपूर्ति हो जाती हैं। फिर तुम पैरों की फिक्र ही छोड़ देते हो।
      बुद्ध ने कहासंदेह करो। बुद्ध का धर्म वैज्ञानिक है। संदेह विज्ञान का प्राथमिक चरण है।
      इसलिए भविष्य में जैसे—जैसे लोकमानस वैज्ञानिक होता जाएगावैसे—वैसे समय बुद्ध के अनुकूल होता जाएगा। जैसे—जैसे वैज्ञानिक चित्त का विस्तार होगाजैसे—जैसे लोग सोचने और विचारने की गहनता में उतरेंगे और उधार और बासे विश्वास न करेंगेहर किसी की बात मान लेने को राजी न होंगेबगावत बढ़ेगीलोग हिम्मती होंगेविद्रोही होंगेवैसे—वैसे बुद्ध की बात लोगों के करीब आने लगेगी।
      पश्चिम में आज जितना बुद्ध का आदर हैकिसी और का नहीं। जीसस का भी नहीं। साधारण आदमियों की बात छोड़ देंलेकिन पश्चिम में जो भी विचारक हैंचिंतक हैंवैज्ञानिक हैंउनके मन में बुद्ध का आदर रोज बढ़ता जाता है। बाकी लोगों के आदर रोज कम होते जाते हैं। बाकी लोग हारती बाजी लड़ रहे हैंबुद्ध बिना लड़े जीतते चले जाते हैं। क्योंकि जो बड़ी बात बुद्ध ने कहीवह यह हैकि हम तुमसे मानने को नहीं कहतेखोजने को कहते हैं। यह सूत्र है विज्ञान का। जब खोज लेंगे तो मानेंगे। बिना खोजे कैसे मान लेंगे?
      किसी दूसरे के बताए कहीं सत्य मिला हैसत्य इतना सस्ता नहीं है। सत्य कोई संपत्ति नहीं है कि पिता मरे और बेटे के नाम वसीयत कर जाए। न ही सत्य कोई प्रसाद है कि गुरु अनुकंपा करे और दे दे। देने—लेने की बात ही नहींखोजना पड़ेगा। कंटकाकीर्ण मार्गों पर चलना पड़ेगा। लहूलुहानथके—हारे पहुंच जाओसौभाग्य! जरूरी नहीं है कि पहुंच ही जाओ। क्योंकि भटकाव बहुत हैं खाई—खड्ड बहुत हैंभ्रम—जाल बहुत हैंमाया—मरीचिकाएं बहुत हैंकहीं भी खो जा सकते हो।
      और तुम्हारे भीतर भी कमजोरियां बहुत है। थक जाओ तो कहीं भी भरोसा करके रुक सकते हो। किसी भी मंदिर के सामनेकिसी भी मस्जिद के सामने पस्त हिम्मतथके—हारे सिर झुका सकते हो। इसलिए नहीं कि तुम्हें कोई जगह मिल गईजहां सिर झुकाने का मुकाम आ गया थाबस सिर्फ इसलिए कि अब तुम थक गएअब और नहीं खोजा जाता। तुम खयाल करनातुम्हारे झुकने में कहीं पस्त—हिम्मती तो नहीं है! कहीं सिर्फ हार गए पराजित हो गएऐसा तो नहीं हैहारे को हरि नाम—कही ऐसा तो नहीं हैकि हार गएअब करें क्यातो हरिनाम जपने लगे। कहीं ऐसा तो नहीं है कि धर्म तुम्हारी मजबूरी हैअसहाय अवस्था है?
      बुद्ध तुम्हें कोई जगह नहीं देते। तुम्हारी कमजोरी के लिए वहा कोई जगह नहीं है। बुद्ध कहते हैंज्ञान तो मिलता है आत्म—परिष्कार सेशास्त्र से नहीं। सत्य कोई धारणा नहीं है। सत्य कोई सिद्धात नहीं है। सत्य तो जीवन का निखार है। सत्य तो ऐसा हैजैसे सोने को कोई आग में डालता है तो निखरता हैजलता हैपिघलता हैतड़फता हैनिखरता है। व्यर्थ जल जाता हैसार्थक बचता है। सत्य तो तुममें हैकूड़े—करकट में दबा है। और जब तक तुम आग से न गुजरोतुम उस सत्य को कैसे खोज पाओगे?
जल्दी मत करना—बुद्ध कहते हैं—भरोसा कर लेने की। भरोसा तभी करनाजब संदेह करने की जगह ही न रह जाए।
      इस फर्क को खयाल में लो। दूसरे धर्म कहते हैंभरोसा कर लो संदेह के विपरीत। संदेह को ओझल कर दो आंख से। उपेक्षा कर दो। संदेह है मानातुम भरोसा कर लो। संदेह को दबा दो भरोसे की राख में। संदेह को भूल जाओ भरोसे की आडू में। भरोसे की छाया में टिक जाओ। ढांक लो अपना सिरजैसे शुतुर्मुर्ग दुश्मन को देखकर रेत में सिर छूपा लेता है। ऐसे चारों तरफ संदेह ने तुम्हें घेरा है। तुम अपने सिर को आस्था के रेत में दबा लो। भूल जाओ। देखो ही मत आंख खोलकर क्योंकि आंख खोलकर। देखोगे तो संदेह उठेंगे।
      और धर्म कहते हैं कि श्रद्धा कर लो संदेह के विपरीत। बुद्ध कहते हैंसंदेह कर लो। पूरी तरह कर लो। इतना कर लो कि संदेह गिर जाए और श्रद्धा का आविर्भाव हो। वह बड़ी अलग बात है। वह बिलकुल ही अलग बात है। और धर्मों की श्रद्धा संदेह के विपरीत है। बुद्ध की श्रद्धा संदेह का अभाव है। जब संदेह नहीं बचता तो जो बचती हैवही श्रद्धा है।
      इसलिए पहले संदेह से जूझ लो। अगर संदेह के रहते श्रद्धा कर ली तो ऊपर—ऊपर श्रद्धा होगीभीतर—भीतर संदेह होगा। और जो भीतर हैवही निर्णायक है। किसे धोखा देना हैऊपरी वस्त्रों से कुछ भी न होगा।
      क्या फायदा रंगीन लबादों के तले
      रूह जलती रहेघुलती रहेपजमुर्दा रहे
      क्या फायदावह तुम्हारे भीतर जो दबा हैवही तुम हो। बुद्ध कहते हैंउसे बाहर निकाल लो। उससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय हैउसे रोशनी में ले आओ।
      ऐसा नहीं कि बुद्ध श्रद्धा के विरोधी हैं। वस्तुत: तो बुद्ध ही श्रद्धा के पक्षपाती है। लेकिन उनकी श्रद्धा हिम्मतवर की श्रद्धा हैकमजोर की नहींकायर की नहीं। उनकी श्रद्धा साहसी कीदुस्साहसी की श्रद्धा है। उनकी श्रद्धा वैज्ञानिक की श्रद्धा हैअंधविश्वासी की नहीं।
      अभी समय नहीं आया। आता लगता हैपहली पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगींपहली किरण सुबह की फूटी। उनका समय आता लगता है। भविष्य बुद्ध का है। जब राम और कृष्णक्राइस्ट और जरथुस्त्र के दीए बुझने—बुझने को होंगेजब उनके दीए आखिरी घड़ियां गिनते होंगेतब बुद्ध का सूरज उगेगा। बुद्ध इस पृथ्वी पर रहने वाले हैं। ऐसी तो घड़ी की मैं कल्पना कर सकता हूं जब लोग जीसस को भूल जाएं। इसकी संभावना है। ऐसी घड़ी की कल्पना भी करनी मुश्किल हैजब बुद्ध को भूल जाएं। क्योंकि रोज—रोज लोग चिंतनशील बनेंगे। रोज—रोज हिम्मतवर होंगे। रोज—रोज आदमी बड़ा हो रहा हैप्रौढ़ हो रहा हैबचपने की बातें खो रहीं हैं। तो आज नहीं कलकल नहीं परसोंबुद्ध के दिन करीब आते चले जाएंगे। आ ही रहे हैं।
      बुद्ध ने एक अनूठी श्रद्धा को जन्म दिया है। श्रद्धा की बात ही नहीं की। क्योंकि श्रद्धा की बात क्या करनी! जब बीमारी नहीं होती तो तुम स्वस्थ होते हो। जब संदेह नहीं होता तो तुम श्रद्धालु होते हो। तो बुद्ध कहते हैंश्रद्धा का आरोपण नहीं करना हैन श्रद्धा का आचरण करना हैन श्रद्धा का अनुशासन अपने ऊपर थोपना है। श्रद्धा की बात ही भूल जाओ। तुम तो ठीक संदेह कर लो। क्योंकि संदेह करने से ही मिटता है। संदेह कर—कर के ही जाता है। जो नहीं करताउसमें ही बचा रहता है। जो कर लेता हैवह एक न एक दिन संदेह की सीमांत पर आ जाता है।
      तर्क—तर्क से ही जाता हैजैसे काटे—काटे से निकाले जाते हैं और जहर—जहर से मिटाया जाता है। तर्क—तर्क से ही जाता है। तर्क ठीक से ही कर लो। बुद्ध कहते हैंजल्दी मत करना। तर्क की परिपक्वता चाहिए। परिपक्वता सब कुछ है।
      फिर एक दिन तुम उस घड़ीउस सीमा पर आ जाते होजहा तर्क के पार के आकाश दिखाई पड़ने शुरू होते हैं। तर्क ही वहां ले आता है। फिर तर्क को छोड़ना नहीं पड़ता। जब और पार के आकाश दिखाई पड़ने लगते हैंतर्क छूट जाता है। संदेह में कोई जी नहीं सकताअगर ठीक से संदेह करे 1 क्योंकि संदेह नकारात्मक है। नकार में जीओगे कैसेजीने के लिए विधेय चाहिए। बीमारी में जीओगे कैसेजीने के लिए स्वास्थ्य चाहिए। संदेह तो मृत्यु जैसा हैश्रद्धा जीवन जैसी है। संदेह में कोई सदा के लिए ठहर नहीं सकता।
      लेकिन लोग ठहर गए हैं। चमत्कार घट गया है। और चमत्कार इसलिए घट गया है कि लोगों ने झूठी श्रद्धा ओढ़ ली है। उस झूठी श्रद्धा में वे खुद ही नहीं छिप गए हैंउनके सारे संदेह भी सुरक्षित हो गए हैं।
      तुमने आस्तिक को देखा—तथाकथित आस्तिक कोबाजार भरे हैं। नगर उससे भरे हैं। मंदिरो और गिरजों में प्रार्थना कर रहा है। तुमने उसे गौर से देखाकितना डरा हुआ हैउसकी आस्था कितनी डगमगाती हुई हैतुमने कभी उससे बात कीडरता है। उसकी श्वास फूल आती है अगर संदेह की बात करो। अगर प्रार्थना करते तुम उससे पूछो कि सच में तुम्हें पक्का भरोसा है कि ईश्वर है?
      मेरे एक शिक्षक थे। बूढ़े हो गए। जब गांव जाता थाउनके पास जाता था। आखिरी बार गया तो उन्होंने खबर भेजी कि मत आना। फिर भी मैं गया। मैंने उनसे पूछा कि अब कभी न आऊंगा। जब आपने खबर भेजी तो न आऊंगा। लेकिन कारण पूछने आया हूं कि मुझे क्यों इंकार किया हैवे कहने लगेइंकार का कोई कारण नहीं है। वर्षों तुम्हारी प्रतीक्षा करता हूं जब आते हो। लेकिन अब डरने लगा हूं। तुम्हारी बातों से संदेह पैदा हो जाता है। मंत्र लड़खड़ाने लगते हैं। अब मौत मेरी करीब है। अब मुझे आस्था से मर जाने दो।
      मैंने कहायह आस्था जो इतनी लड़खड़ाती हैजो जिंदगी में भी जिंदा नहीं हैयह मौत में काम आएगीये मंत्र जो इतने लड़खड़ाते हैंजिनकी कोई जड़ें नहींजो मेरे हिलाए हिल जाते हैंये कितने दूर साथ देंगे मौत मेंये कहो तब साथ जाएंगे?
तब तोमैने कहामुझे आना ही पड़ेगा। फिर अब मैं तुम्हारे इंकार को न सुनूंगा। आता ही रहूंगा। क्योंकि मौत करीब हैइसलिए जल्दी करो। जिंदगी यूं ही गंवाई। इन संदेहों से छुटकारा हो सकता था। इनको तुम छुपाए बैठे रहे। इनको तुमने पानी दिया। इनको तुमने भोजन दिया। इनको तुमने बचाया। तुम्हारी आस्था इनके लिए शक्तिदाई हुई। तुम्हारी आस्था ने इनके ऊपर कंबल लपेटा। ये मुर्झा गए होतेये मर गए होतेलेकिन तुमने इन्हें न मरने दिया। और अब मौत करीब आती है। तुम मरने के करीब हो तो भी तुम इनको बचा रहे हो। अब तो जल्दी करो। अब तो इनको उभर आने दो। कोई हर्जा नहींकि तुम संदेह करते हुए ही मर जाओ। उतना साहस तो कम से कम साथ होगा। उतना आत्मविश्वास तो कम से कम साथ होगा। उस परमात्मा के सामने प्रार्थना करते हुए मर रहे होजिस पर तुम्हें भीतर भरोसा ही नहीं। तुम्हारी प्रार्थना झूठी। तुम्हारा प्रेम झूठा। झूठ से कहीं कोई सत्य तक पहुंचा है?
      बुद्ध ने संदेह दिया। इसलिए नहीं कि बुद्ध का युग बुद्धिवादी थानहींबुद्ध बूद्धिवादी थे। वे प्रगाढ़ संदेह से ही श्रद्धा तक पहुंचे थे। उन्होंने लंबे और कठिन मार्ग से यात्रा की थी। लेकिन लंबे और कठिन मार्ग से ही यात्रा होती है। कोई शार्ट कट है ही नहीं। तुम जिसको श्रद्धा माने होवह शार्ट कट है। तुम बिना गएबिना कहीं पहुचेबिना कुछ हुए श्रद्धा कर लिए हो। तुम्हारी श्रद्धा नपुंसक है।
      तुम जानते हो भलीभांति। इसलिए तुम ऐसे लोगों की बातें सुनते फिरते होजहां तुम्हारी श्रद्धा में थोड़ा बल आ जाएथोड़ी ताकत आ जाए। तुम भयभीत हो। तुम्हारे शास्त्रों में लिखा हैनास्तिकों की बातें मत सुनना। नास्तिक कुछ कहे तो कान में उंगलियां डाल लेना।
      इन शास्त्रों को छुट्टी दो। ये शास्त्र कमजोरी सिखाते हैं। ये शास्त्र परमात्मा. तक कैसे ले जाएंगेजो आस्था इतनी डरपोक हो कि नास्तिक की बात सुनने से कंपती होइससे तो नास्तिक बेहतर। कम से कम उसके शास्त्रों में कहीं तो नहीं लिखा है। कि आस्तिक की बात सुनने से डरना। लगता हैउसकी नास्तिकता में उसका भरोसा ज्यादा हैतुम्हारी आस्तिकता से। और जिस पर तुम्हें ही भरोसा नहीं है उससे क्या— क्या सिद्ध हो सकता है?
      तो ध्यान रखनाबुद्ध ने संदेह दिया। संदेह प्रक्रिया है श्रद्धा को पाने की। संदेह करते—करते तुम संदेह से मुका हो जाते हो। संदेह में चलते—चलते तुम उस जगह आ जाते हो जहा श्रद्धा का सूरज उगता है।
      थी वह शायद अपनी ही बेचारगी की एक पुकार
      जिसको अपनी सादालौही से खुदा समझा था मैं
      तुमने जिसे परमात्मा समझा हैकहीं वह तुम्हारी असहाय अवस्था की पुकार ही तो नहीं!
      थी वह शायद अपनी ही बेचारगी की एक पुकार
      असहाय अवस्था में भयभीतपीड़ितदुखी आदमी परमात्मा को पुकारने लगता है। कहीं वह तुम्हारी बेचारगी की पुकार ही तो नहीं है?
      जिसको अपनी सादालौही से खुदा समझा था मैं
      जिसको अपनी नासमझी सेबालपन से तुमने परमात्मा समझा हैवह कहीं असहाय अवस्था की पुकार ही तो नहीं! जिसको तुमने झुकना समझा हैवह कहीं तुम्हारे कंपते और भयभीत पैरों की कमजोरी ही तो नहीं! जिसको तुमने समर्पण समझा हैवह कहीं तुम्हारी कायरता ही तो नहीं!
      समर्पण के लिए संकल्प चाहिए। झुकने के लिए खड़े होने वाला बल चाहिए। परमात्मा को पुकारने के लिए बेचारगी नहींभीतर की एक असहाय अवस्था नहींभीतर का परम संतोषपरम अहोभाव चाहिए।
      बुद्ध ने परमात्मा नहीं छीनातुमसे तुम्हारी बेचारगी छीनी। तुमने बेचारगी को ही परमात्मा का नाम दे दिया था। बुद्ध ने तुमसे मंदिर नहीं छीनेतुम्हारे कमजोरी के शरणस्थल छीने। और बुद्ध ने कहातुम्हें खुद ही चलना है। बुद्ध ने तुम्हारे पैरों को सदियों—सदियों के बाद फिर से खून दिया। तुम्हें अपने पैरों पर खड़े करने की हिम्मत दी।
      बुद्ध सदगुरु हैं। और बुद्ध उसी को सदधर्म कहते हैंजो तुम्हें तुम्हारे भीतर छिपे हुए सत्य से परिचित कराए। झूठी आस्थाओं में नहींधारणाओं में नहींशास्त्रों में नहींव्यर्थ के शब्दजालों में न भटकाए। जो तुम्हें तुमसे ही मिला दे।
      और जब तुम अपने से मिलोगे तो तुम पाओगेविराट शून्य है वहा। तुम्हारे ठीक भीतर कोई भी नहीं है। इससे हमें ऐसा लगता हैकोई भी नहीं है तो फिर सार क्या खोजने का कोई भी नहीं है तो फिर आत्म—ज्ञान आत्मा को पाने की बातें?
      जो जानते हैंउन्होंने आत्मा के स्वरूप को भी शून्य ही कहा हैनिर्गुण ही कहा है। बुद्ध ने उसे ठीक—ठीक अभिव्यक्ति दी। उन्होंने आत्मा शब्द में भी खतरा देखा। क्योंकि उससे लगता है कि तुम किसी चीज की तलाश में होजो भीतर रखी है। जब तुम कहते होमेरे भीतर आत्मा हैतुमने खयाल किया—ऐसे हीजैसे तुम्हारे घर में कुर्सी रखी हैतुम्हारे भीतर आत्मा रखी है! आत्मा कोई वस्तु है कि गए भीतर और पा गए?
      गौर से देखोकौन भीतर जाएगाअगर आत्मा भीतर रखी है तो फिर यह भीतर जाने वाला कौन हैअगर आत्मा भीतर रखी है तो फिर यह बाहर कौन गयाबुद्ध कहते हैंन बाहरन भीतर। वह जो यात्रा हैवह जो बाहर और भीतर आने वाला जाने वाला चैतन्य हैवही है। और वह चैतन्य वस्तु नहीं हैप्रवाह है। वह चैतन्य कोई ठहरा हुआ जल का सरोवर नहीं हैगंगा की सागर की तरफ भागती धारा है। बुद्ध ने आत्मा शब्द का उपयोग नहीं कियाक्योंकि आत्मा से जड़ता का पता चलता है। तुम बड़े हैरान होओगेक्योंकि तुम तो आत्मा का उपयोग जड़ता के विपरीत करने के आदी हो। तुम तो कहते होयह पत्थर जड़ हैइसमें कोई आत्मा नहीं। तुम तो कहते होआदमी में आत्मा है। आदमी जड़ नहीं।
      बुद्ध ने कहाआत्मा शब्द में ही जड़ता है। आत्मा शब्द का मतलब यह हुआ
कि कुछ तुम्हारे भीतर ठहरा हुआ हैरुका हुआ है। कुछ तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। तो जो मौजूद ही हैवह जड़ है।
      तुम्हारे भीतर कुछ हो रहा है—सतत। उसको आत्मा कैसे कहेंप्रवाहमान हैहोने की अवस्था है, 'हैनहीं। सदा हो रहा है। चैतन्य एक यात्रा है। तीर्थयात्रा कहो! 'कोई ठहराव नहीं हैकोई मुकाम नहीं है। चलते जाने का नाम हैहोते जाने का नाम है। और यह होना कभी पूरा नहीं होताक्योंकि जो पूरा हो जाए तो फिर जड़ता। इसलिए बुद्ध की बात को समझना कठिन है। बुद्ध हुए बिना समझना कठिन है। लेकिन बुद्ध कहते हैंमानना मत। समझना हो तो तैयारी रखना यात्रा की। मानना हो तो किसी और द्वार पर जाकर सो रहना। बुद्ध का द्वार तुम्हारे लिए नहीं है।
      'भगवान बुद्ध का मार्ग संदेह के स्वीकार से शुरू होता है। क्या उनका युग आज के युग जैसा ही बुद्धिवादी था?
      नहींयुग से कोई संबंध नहीं है। बुद्ध अपने युग के बहुत पहले आ गए थे। बुद्ध पुरुष सदा ही अपने युग के पहले होते हैं। बुद्ध पुरुष कभी भी समसामयिक। हीं होतेकंटेम्प्रेरी नहीं होते। जहां होते हैंवहा से आगे होते हैं। इसलिए जब भी होते हैंजहा भी होते हैंवहीं समझे नहीं जाते। वे जो भी कहते हैंवही दीवालों पर। पड़ता हैकानों पर नहीं। वे जो भी बताते हैंअंधी आंखें  पर पड़ता हैआंखें  पर नहीं। हम उन्हें सुन लेते हैंसमझ नहीं पाते।
      इतना ही होता तो भी कुछ बुरा नहीं था। हम उन्हें गलत समझ पाते हैं। इतना ही होता कि हम कहते कि हम नहीं समझ पाएतो भी कोई हर्जा न थाहम उन्हें
गलत समझ पाते हैं। क्योंकि यह तो हम मान ही नहीं सकते कि हम समझ नहीं सकते। ठीक नहीं समझ सकते तो गलत समझ लेते हैं। लेकिन यह धारणा तो मन में परिपोषित करते ही चले जाते हैं कि समझ लिया।
      जिन्होंने बुद्ध को सुनाजिन्होंने बुद्ध को मानाजो बौद्ध बन गएउन्होंने भी समझा नहीं। उन्होंने परमात्मा को छोड़ दियाबुद्ध को पकड़ लिया। वे बुद्ध की पूजा करने लगे। बात कुछ बनी नहीं। पुराने मंदिर हट गएनया मंदिर आ गया। पुरानी परंपरा चली गईनई परंपरा ने जगह ले ली। पुराने शास्त्रवेद और गीता हट गए तो बुद्ध के वचन शास्त्र बन गए। समझे नहीं लोग।
      बुद्ध ने तुम्हें तुम पर फेंका था। बुद्ध ने कहा थातुम ही तुम्हारे शास्ता हो। तुम हो तुम्हारे गुरु हो। तुम ही तुम्हारे शास्त्र हो और तुम्हारे चैतन्य के सिवाय कहीं कोई सहारा मत खोजना। चैतन्य को जगाना। उसी जागने में तुम एक दिन पाओगेकि इधर तुम भी खो गएउधर परमात्मा भी खो गयामात्र चैतन्य का सागर बचा। उसको बुद्ध ने निर्वाण कहा है। जहां बूंद सागर से एक हो जाती है। जहां बूंद पाती है कि सागर ही है।
लेकिन बुद्ध ने सभी शब्द नकारात्मक उपयोग किए। वह भी तुम्हारी वजह से। कोई अड़चन न थी कि वे शून्य की जगह पूर्ण कह देते। कोई अड़चन न थी। तुम्हारे कारण। क्योंकि जैसे ही कोई विधायक शब्द उपयोग किया जाएतुम तत्‍क्षण श्रद्धा करने को तैयार हो। तुम चलने को राजी नहीं होतुम विश्वास करने को राजी हो। तो बुद्ध ने सब नकारात्मक शब्दों का उपयोग किया। मोक्ष तक का उपयोग नहीं किया। क्योंकि मोक्ष शब्द को सुनते ही तुम्हें ऐसा लगता है कि कोई ऐसा वक्त आएगा जहां हम परिपूर्ण रूप से मुक्त होंगे—मगर होंगे। जहां मैं रहूंगामुक्त होकर रहूंगाबंधन न होंगेमैं होऊंगा।
      बुद्ध ने कहातुम्हीं बंधन हो। जब बंधन न होंगे तो तुम भी न होओगे। कुछ होगाजिसका तुम्हें कोई भी पता नहीं है। उसे मैं मत कहोऔर आज कोई उपाय नहीं है उसे समझने का। आज तक तो तुमने जो जाना है वे बंधन ही बंधन जाने हैं। अब तक तो तुम बंधनों का जोड़ हो। तुम एक कारागृह हो।
      तो बुद्ध ने कहामैं मुक्त होकर रहेगाऐसा नहींमैं से मुक्‍ति हो जाएगी। इसलिए बुद्ध ने मोक्ष शब्द का उपयोग न किया। नया शब्द गढ़ा—निर्वाण। निर्वाण का अर्थ होता हैजैसे तुम दीए को फूंक देते होदीया बुझ जाता हैतो कहते हैं दीए का निर्वाण हो गया। निर्वाण का अर्थ हैजैसे दीया बुझ जाता है। फिर तुम खोजकर भी न पा सकोगे कि ज्योति कहां गईतुम फिर बता न सकोगे कि पूरब गई ज्योति कि पश्चिम गई। फिर तुम बता न सकोगे कि आकाश में ठहर गई कि पाताल में ठहर गई। फिर तुम कह न सकोगे कहां है ज्योति। विराट में खो गई। नहीं हो गई।
      तो बुद्ध ने एक अनूठा शब्द गढ़ा : निर्वाण। निर्वाण के दो अर्थ हैं। एक अर्थ हैदीए का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ गयाऐसे ही तुम बुझ जाओगे। फिर मत पूछो कि कहां रहोगे—मोक्ष में स्वर्ग में परियों से घिरेपरियों के झुरमुट में कल्पतरु के नीचे बैठेजो—जो वासनाएं त्याग दी थीं उनका भोग करते हुएया नर्क में पापों का कष्टदंड पाते हुए कहा क्‍या होगा आगेबुद्ध ने कहामत पूछो यह बात। जैसे दीया बुझ जाता हैनिर्वाण में ऐसे ही तुम बुझ जाओगे।
निर्वाण का दूसरा अर्थ होता है—वाण का अर्थ होता हैवासना—निर्वाण का अर्थ होता हैवासना का बुझ जाना। जैसे दीया बुझ जाता हैऐसी वासना बुझ जाएगी। और तुम एक वासना हो। दूसरे धर्म कहते हैं कि तुम अलग होवासनाओं ने तुम्हें घेरा। बुद्ध कहते हैंतुम सभी वासनाओं का जोड़ मात्र हो। यह बड़ा क्रांतिकारी विचार है। दूसरे धर्म कहते हैंतुम हो और वासनाएं हैं। बुद्ध कहते हैंवासनाएं हैंउनके जोड़ का नाम तुम हो।
जैसे हम लकड़ियों का एक गट्ठर बांधते हैं। दस लकड़ियां पड़ी थींउनकोबांधकर एक गट्ठर बना लिया। अब हम इसको बंडल कहते हैंगट्ठर कहते हैं। लेकिन गट्ठर क्या दस लकड़ियों से कुछ अलग हैदस लकड़ियां इकट्ठी हैं। एक—एक लकड़ी बाहर निकाल लो तो पीछे गट्ठर बचेगा प जब दसों लकड़ियां लोगे तो पीछे कुछ भी न बचेगा।
      ऐसा बुद्ध ने कहा कि तुम अलग और तुम्हें वासनाओं ने घेराऐसा नहींतुम वासना होतुम तृष्णा होहवसहोने की दौड़! बस! तुम सारी वासनाओं का जोड़ हो। एक—एक वासना निकालते जाओ। उतने ही तुम कम होते जाओगे। जिस दिन आखिरी वासना बुझ जाएगीउस दिन तुम न हो जाओगे। उस दिन पीछे तुम बचोगे नहीं। जैसा कि और लोग कहते हैं कि पीछे तुम बचोगेशुद्ध आत्मा बचेगी। ऐसा बुद्ध कहते हैंक्या बचेगागट्ठर पीछे नहीं बचेगासब खो जाएगा। इस खो जाने को निर्वाण कहते हैं। मोक्ष नहीं कहाकैवल्य नहीं कहापरमपद नहीं कहाब्रह्मलोक नहीं कहाक्योंकि वे सब विधायक शब्द हैं। उनको सुनते से ही तुम्हारी वासनाओं में प्राय आ जाते हैं।
      अभी तुम मुझे सुन रहे होलेकिन कहीं तुम्हारे भीतर कोई कहे चला जा रहा होगा कि नहीं—नहींऐसा कैसे होगासब वासनाएं शून्य हो जाएंगी तो हम न होंगेनहींसब वासनाएं शून्य हो जाएंगीमगर हम होंगे। शुद्ध रूप में होंगे। मगर शुद्ध रूप का मतलब क्या होता हैशुद्ध तुम तभी होते होजब नहीं होते हो। जब तक हो तब तक तो अशुद्धि रहेगी। होना ही अशुद्धि है।
      बुद्ध ने बड़ी बारीक बात कही। बारीक से बारीकजो कभी किसी ने नहीं कही थी। फिर उस पर कोई और परिष्कार नहीं हो सका। हो भी न सकेगा। बुद्ध ने आखिरी बात कही। बुद्ध अंतिम वक्तव्य हैं। उसमें और सुधार करनातरमीम करनीसंशोधन करना मुश्किल है।





दूसरा प्रश्‍न:

      आपका ही वचन है: समझ आवश्यक हैपर पर्याप्त नहीं। बुद्धि के पास अवश्य एक छोटा सा द्वीप है प्रकाशितलेकिन वह द्वीप एक अर्द्ध प्रकाशित सागर में है। और वह अर्द्ध प्रकाशित सागर एक पूर्णत: अप्रकाशित महासागर में है। क्या इस वक्तव्य पर प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?

      निश्‍चित हीसमझ आवश्यक है। अनावश्यक तो इस जगत में कुछ भी नहीं है। अन्‍यथा होता ही नहीं। है, तो आवश्‍यक ही होगा है। तो आवश्यकता से ही है। अनावश्यक आएगा कहां सेआया हैसिलसिला हैसंबंध है। कार्य—कारण का कोई प्रवाह हैजोड़ है।
समझ उपयोगी है। क्योंकि समझ ही तो तुम्हें समझाएगी कि समझ काफी नहीं है। समझ से ही तो तुम समझोगे कि समझ के पार जाना है। समझ ही तो तुम्हें जगाएगी कि यह समझ की नींद से उठो। बहुत देखे सपने विचारों के। प्रत्यय और धारणाओं के जाल में बहुत जीए। अब उठें। सुबह हुईभोर हुई।
      कौन तुम्हें जगाएगा लोभ सेकौन तुम्हें जगाएगा क्रोध सेकौन तुम्हें जगाएगा काम सेअगर कोई सदगुरु के वचन भी सार्थक हो जाते हैं तुम्हें जगाने मेंतो इसीलिए कि उस सदगुरु के वचन तुम्हारी समझ के साथतुम्हारी सोई हुई समझ के साथ कोई संबंध स्थापित कर लेते हैं। किसी सदगुरु के वचन अगर तुम्हें जगाने में समर्थ हो जाते हैंतो इसीलिए कि तुम्हारी समझ और सदगुरु के बीच सेतु बन जाता हैअन्यथा कोई उपाय न था। पत्थरों को तो जगाऊं! सुनते रहेंगेपड़े रहेंगे। तुममें भी बहुत पत्थर हैंजो सुनते रहेंगेपड़े रहेंगे। किसी के भीतर समझ होगी तो करवट लेगीअंगड़ाई लेगीजगेगी।
      देख के कररोफर दौलत का तेरा जी ललचाए
      धन को देखकर ईर्ष्या जगती हैमहत्वाकांक्षा जगती है।
      देख के कररोफर दौलत का तेरा जी ललचाए
      सूंघ के मुस्की जुल्फों की बू नींद सी तुझको आए
      जैसे बेगार की कश्ती लहरों में बुलाए
      मन की मौज में नीयत यूं है तेरी डांवाडोल
      तौलअपने को तौल!
      लेकिन तौलने का तो एक ही सूत्र हैभीतर की समझ थोड़ी देखना शुरू करे। तुमने अब तक अपनी समझ का एक ही उपयोग किया है—नासमझी को साथ दिया है। क्रोध करना है तो तुमने समझ का सहारा दिया है क्रोध को। समझ तो तुम्हारे पास हैठीक उतनी हीजितनी किसी बुद्ध पुरुष के पास है। उपयोग कहीं गलत हो रहा हैगलत दिशा में हो रहा है।
      जब तुमने क्रोध किया है तो तुमने हजार तर्क खोजे हैं कि क्रोध जरूरी था। तुमने अपने बच्चे को मारा हैक्रोध किया हैतो तुमने कहान मारेंगे तो सुधरेगा कैसेजैसे कि यह कोई सिद्ध प्रमाण हो कि मारने से कोई कभी सुधरा है। कौन सुधरा हैनहींलेकिन बहाना है। असली बात थी कि तुम क्रोधित हो गए थे। लेकिन क्रोध को सीधा—सीधा करने की तो तुम्हारी भी हिम्मत नहीं। लोग क्या कहेंगेतुम अच्छे—अच्छे कारण खोजते हो। तुम कहते होबच्चे को सुधारना है।
      शिक्षक स्कूल में बच्चों को पीटता हैइसलिए नहीं कि बच्चों को सुधारने से उसे कुछ लेना—देना हैक्या प्रयोजन हैलेकिन जब भी बच्चे उसके अधिकार को कहीं भी चोट करते हैंउसके अहंकार को कहीं भी चोट करते हैंतब वह ऐसा नहीं कहता कि मेरे अहंकार को चोट पहुंची हैइसलिए मैं तुम्हें मारूंगा। क्योंकि यह बात तो फिर जरा मुश्किल हो जाएगीइसको छिपाना मुश्किल हो जाएगा। वह कहता हैतुम्हारे सुधार के लिएतुम्हारे हित के लिए तुम्हें मारना जरूरी है।
      तुमने कभी गौर किया कि तुम कितने तर्क और कितने कारण खोजते हो क्रोध के लिए! लोभ के लिए तुम समझ का कितना सहारा देते हो! ईर्ष्या को भी तुम ईर्ष्या नहीं कहतेस्पर्धा कहते हो। यह समझ का सहारा है। तुम कहते होस्पर्धा न होगी तो जीवन जड़ हो जाएगा। प्रतियोगिता न होगी तो विकास कैसे होगाप्रगति कैसे होगी 
      मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं कि अगर प्रतियोगिता खो गई तो प्रगति खो जाएगी। तो प्रगति को बचाने के लिए प्रतियोगिता करनी उनको जरूरी मालूम पड़ती है। यद्यपि प्रतियोगिता के अच्छे नाम के नीचे सिर्फ ईर्ष्या छिपी हैजलन छिपी है। किसी दूसरे के पास है और उनके पास नहीं है। कोई दूसरा आगे है और वे पीछे हैं।
      तो तुमने लोभ को सहारा दिया हैक्रोध को सहारा दिया हैतुमने कामवासना को सहारा दिया है। तुमने समझ का अब तक गलत उपयोग किया है।
      समझ का एक और उपयोग हैसही उपयोग है। वही सदधर्म है। वह उपयोग हैक्रोध को समझने के लिए समझ का उपयोग। क्रोध क्या हैलोभ क्या हैजिसने क्रोध को समझावह क्रोध से दूर हटने लगा। जिसने लोभ को समझावह लोभ से दूर हटने लगा। क्योंकि लोभ ने सिवाय नर्कों के और कुछ बनाया नहीं तुम्हारे लिए। और क्रोध ने दूसरों को जलाया—जलाया होन जलाया होतुमको तो जलाया ही है। क्रोध से तुमने दूसरों पर कुछ अंगारे फेंके जरूरलेकिन अंगारों को पहले अपने भीतर तो पैदा करना पड़ता है।
      जब तुम किसी को गाली देते हो तो दूसरे को चोट पहुंचेगी न पहुंचेगीयह उस पर निर्भर हैतुम्हारी गाली पर नहीं। क्योंकि तुम किसी बुद्ध पुरुष को गाली दोगे तो नहीं चोट पहुंचेगी। गाली चोट नहीं पहुंचाती। वह तो किसी बुद्ध पर निर्भर है कि वह गाली को पकड़ लेगा तो चोट खाएगा। तुम्हारी गाली ने चोट नहीं पहुंचाईलेकिन गाली देते वक्त गाली को पैदा करना पड़ता है भीतर। तुम्हारे भीतर नासूर चाहिए। नहीं तो गाली पैदा कैसे होगीनाली के कीड़े पैदा करने हों तो गंदी नाली चाहिए। गालिया पैदा करनी हों तो हृदय में नासूर चाहिएदुखते घाव चाहिएमवाद चाहिए। नहीं तो गाली कैसे पैदा होगीगाली कहीं आकाश से तो नहीं आती।
      गुलाब की झाड़ी पर गुलाब लगते हैं। जड़ों से सम्हालता हैतब गुलाब की झाड़ी पर गुलाब लगते हैं। तुम्हारी झाड़ी पर अगर गालियां लगती हैं तो जड़ों से आती होंगी। कहीं अल्सर होंगे भीतर—आत्मा के अल्सर। कहीं घाव होंगे भयंकर। वहां तुम पहले पोसते होपालते होगालियों को बड़ा करते हो। तुम्हारे भीतर कोई गर्भ होगाजहां गालियां सुरक्षित होती हैंनिर्मित होती हैं। कोई कारखाना होगा। फिर तुम वहा तैयार करते हो। अपने को गंवाकरअपने को मिटाकर अंगारे पैदा करते हो। फिर उन्हें फेंकते हो दूसरों परकि दूसरे भी जलें। तुम पहले ही जल चुके होते हो।
      तुम से बहुत बार कहा गया है कि क्रोध मत करनादंड पाओगे। मैं तुमसे कहता हूं कि क्रोध मत करनाक्योंकि क्रोध के पहले ही तुम दंड पा चुके होते हो। क्रोध के बाद दंड मिलेयह बात ही गलत। कौन देगा बाद में दंडकोई नियंता नहीं बैठा है। नियंता होता तो तुम उससे बचने की तरकीब भी निकाल लेते। वकील खड़े कर लेते। रिश्वत खिला देते। बहुत यही कर रहे हैं। वे सोचते हैंप्रार्थना एक रिश्वत है। पूजा एक रिश्वत है। पुजारी एक वकील है। जरा इसका आना—जाना है भगवान के पासइसके सहारे वे अपनी भी खबर पहुंचा देते हैं।
      नहींगाली देने के पहले ही तुम्हें दंड मिल चुका। लोभ करने के पहले हीलोभ के पालने में ही तुम सड़ चुके। अब और दंड की कोई जरूरत नहीं है। काफी हो गई बात।
      समझ का दूसरा उपयोग हैक्रोध को समझोसहारा मत दो। और जैसे ही तुम बिना सहारा दिए क्रोध को देखोगेतुम पाओगेयह तो जहर था। यह तो आत्मघात था। तुम कर क्या रहे थे अब तकअपने को मिटाने में लगे थे! तुम हटने लगोगे दूर। और जो ऊर्जाजो शक्ति क्रोध में संलग्न होकर व्यर्थ नष्ट होती थीविध्वंस होती थीवही ऊर्जा करुणा बन जाएगी।
      जब क्रोध हटता है तो करुणा पैदा होती है। क्योंकि ऊर्जा को कहीं तो जाना होगा। जब काटे न बनेंगे तो ऊर्जा मुक्त होगीफूल बनेगी। जो लोभ बनती थी ऊर्जावही दान बनेगी। जो काम बनती थी ऊर्जावही प्रेम बनेगी।
      और अनंत सीढ़ियां हैं आत्म—जीवन की। धीरे—धीरे तुम ऊपर उठते जाते हो। गुरुत्वाकर्षण तुम्हें खींचता नहीं। एक ऐसी घड़ी आती है सदधर्म कीजहां तुम्हें पंख लग जाते हैंजहां तुम प्रसादरूप हो जाते होजहा तुम्हें कोई बाधा नहीं रह जाती। करे जो हिम्मत तो कुछ फजाएं इन आसमानों के पार भी हैं
      करे जो हिम्मत तो कुछ फजाएं इन आसमानों के पार भी हैं
      ये मैंने माना सकूं मयस्सर तुझे तहे—आसमां नही है
      यह मैंने माना कि जहां तुम होजैसे तुम जी रहे होजिस आसमान के तले तुमने अपना घर बनाया हैबड़ा छोटा है। आंगन तुम्हारा बहुत छोटा हैरहने योग्य नहीं। तुम जिस काल—कोठरी में रह रहे होकामक्रोधलोभमोह से तुमने जो अपने आसपास घर बना लिया हैवह नर्क है।
      ये मैंने माना सकूं मयस्सर तुझे तहे—आसमां नहीं है
      यह जो छोटा सा आसमान तुम्हारे जीवन का हैइसके नीचे कोई सुकूनकोई शातिकोई आनंद संभव नहीं हैयह माना। लेकिन घबड़ाने की कोई बात नहीं है! करे जो हिम्मत तो कुछ फजाएं इन आसमानों के पार भी हैं
      आसमानों के पार और भी आसमान हैं। आसमानों के पार——और पार—और भी आसमान हैं। आसमानों का कोई अंत नहीं है।
      इस अनंत आसमानों के विस्तार को बुद्ध ने शून्य कहा है। यह शून्य वही हैजिसको उपनिषद ब्रह्म कहते हैं। इन अनंत आसमानों के साथ अपने को एक कर लेने को बुद्ध ने निर्वाण कहा है। यह निर्वाण वही हैजिसको और बुद्ध पुरुषों ने मोक्ष कहा है।
      बुद्धि बड़ी छोटी सी बात है। बुद्धि से ही अगर तुमने सारे जीवन को समझना चाहातो तुमने बड़ी संकीर्ण सीमाएं लगा दीं अस्तित्व पर। तुम्हारी संकीर्ण सीमाओं के कारण ही तुम अस्तित्व से वंचित रह जाओगे।
      बुद्धि उपयोगी हैउसका उपयोग कर लो। उसका उपयोग कर लो उसके पार: जाने के लिए। उसकी सीढ़ी बना लो। उस पर चढ़ जाओ। उससे छलता लगाने का उपयोग कर लो।
      दीवार से घिरा था हरम का कुसूर क्या
      पैदा अगर हदूद में वुसअत न हो सकी
      मंदिर का क्या कुसूरमस्जिद का क्या कुसूरदीवाल से घिरी है।
      दीवार से घिरा था हरम का कुसूर क्या
      काबा का क्या कुसूरकाशी का क्या कुसूरदीवाल से घिरी हैं।
      पैदा अगर हदूद में वुसअत न हो सकी
      अगर विशालता पैदा न हो सकी तो कुसूर कुछ भी नहींक्योंकि दीवालें थीं। तुम्हारी बुद्धि विचारों की दीवाल से घिरी है। उस दीवाल को हटाना ही पड़ेगातो वुसअत पैदा हो जाएतो विशालता पैदा हो जाए।
      तुमने कभी एक भी क्षण अनुभव कियाजब विचार नहीं होतेतुम होते होजब विचार नहीं होतेतुम भी नहीं होते। जब विचार नहीं होतेतब एक विराट आकाश होता है। तब बीच की कोई दीवाल नहीं होती जो बांटेअलग करे। कोई विभाजन नहीं होता। तुम अविभाज्य होते हो। अस्तित्व के साथ एक होते हो। उसी को भक्तों ने भगवान कहा है।
      वह भक्तों की भाषा है। बुद्ध को वह भाषा प्रिय नहीं। क्योंकि बुद्ध ने उस भाषा के बड़े दुष्परिणाम देखे। भक्तों के लिए ठीक रही होगीलेकिन भक्तों के पीछे जो चलते हैंउन्होंने कुछ और ही समझ लिया।
      थोड़ा देखोभगवान का अर्थ हैविशालता। इसलिए भक्त वह हैजिसने जीवन की विशालता जानी। जिसने ऐसा जीवन जानाजिस पर कोई सीमा नहीं। लेकिन फिर हिंदू भक्त हैवह हिंदू भगवान की पूजा करता है। उसका भगवान भी सीमित है। फिर ईसाई हैवह ईसाई भगवान की पूजा करता है। उसका भगवान भी सीमित है।
      भगवान का अर्थ ही हैजो असीम हो। और अंधों ने भगवान पर भी सीमाएं लगा दी हैं। उन्होंने विशालता के चारों तरफ भी दीवाल खड़ी कर दी। उन्होंने कहायह हमारी विशालता हैवह तुम्हारी विशालता है। ये अलग—अलग हैं। उन्होंने एक—दूसरे के सिर भी फोड़ेमंदिर तोड़ेमस्जिदें जलायी। लेकिन सारी सीमाएं मूलतः बुद्धि की सीमाएं हैं। और जब तक भीतर बुद्धि विशाल न हो जाएतब तक तुम बाहर मंदिर—मस्जिद खड़े करते ही रहोगे। उससे कोई भेद न पड़ेगा।
      समझ जरूरी है। छोटा सा द्वीप है समझ काजिस पर थोड़ी रोशनी है। उसका उपयोग कर लो। उस रोशनी को हाथ में ले लो। उस रोशनी की मशाल बना लो। तो द्वीप के चारों तरफ घना अंधकार हैतुम मशाल लेकर चल पड़ो। तुम जहा रहोगेवहां अंधकार न रहेगा।
      समझ सीमित घेरे में न रह जाए तो मशाल बन जाती है। फिर तुम जहां जाते होवहीं तुम्हारा मार्गदर्शन करती है। अगर सीमित घेरे में रह जाए तो बंधन बन जाती है। तो फिर तुम डरने लगते हो अंधेरे में जाने से। तुम ऐसे आदमी होजिसने घर में दीया जला रखा हैबाहर जाने से डरता हैक्योंकि बाहर अंधेरा है। मैं तुमसे कहता हूं बाहर अंधेरा हैमानाऔर अंधेरे में जाने से डर है यह भी मानादीया हाथ में क्यों नहीं उठा लेते 2 दीए को साथ बाहर क्यों नहीं ले जातेजहां जाओदीए को साथ ले जाओ। तुम जहां रहोगेवहां अंधेरा न रहेगा।
      समझ की मशाल बनानी जरूरी है। समझ को ठोंककर कहीं गाड़ मत दोहिंदू—मुसलमान की मत बनाओमंदिर—मस्जिद में सीमित मत करोमुक्त रखो। मशाल बना लो। जहां जाओगेवहां रोशनी बढ़ती जाएगी। इन अनंत विस्तार में तुम समझ की नाव बना लो। इसको तुम राह की खूंटी मत बनाओ। उससे बंधो मतनाव बना लो। यह तुम पर निर्भर है। जिस लकड़ी से खूंटी बनती हैजिससे तुम बंधते होउसी लकड़ी से नाव भी बन जाती है।



तीसरा प्रश्‍न:


भगवान बुद्ध आत्‍मा को नहीं लेकिन चैतन्य कोअप्रमाद को तो मानते हैं। और चैतन्य शायद परम हैया क्या उसका भी निर्वाण होता है?



      ठिन होगा समझना। चैतन्य का भी निर्वाण हो जाता है। क्योंकि चैतन्य की जरूरत तभी तक है, जब तक तुम्‍हारे भीतर अचैतन्‍य है; अचेतना है। जब तक घर में अँधेरा है, तभी तक रोशनी की जरूरत है। और जब तक भीतर बीमारी हैतभी तक औषधि की जरूरत है। और जब बीमारी ही चली गई तो औषधि का क्या करोगेऔर जब अंधेरा ही न रहा तो रोशनी को क्या करोगेसुबह तो दीया बुझा देते हो न! जब सूरज उग आया तो दीए का क्या करोगेजब सूरज उग आया तो मशाल लेकर चलोगे तो लोग पागल समझेंगे।
      एक ऐसी घड़ी आती है आखिरीजहा चैतन्य की भी जरूरत नहीं रह जाती। इतना विराट चैतन्य चारों तरफ फैला होता है कि अपने चैतन्य का क्या सवाल हैउसको भी ढोना बोझ मालूम पड़ने लगता है।
      होने ही को है ऐ दिल तकमील मुहब्बत की
      एहसासे—मुहब्बत भी मिटता नजर आता है
      प्रेम परप्रेम की यात्रा में ऐसा पड़ाव आता हैजहा प्रेम का भाव भी विलीन हो जाता है। क्योंकि सभी भाव विपरीत पर निर्भर हैं।
      होने ही को है ऐ दिल तकमील मुहब्बत की
      अब प्रेम की पूर्णता करीब ही आती है। यह करीब ही आने लगी ऐ दिलप्रेम की पूर्णता!
      एहसासे—मुहब्बत भी मिटता नजर आता है
      अब तो प्रेम का भाव भी मिटता हुआ नजर आ रहा है। तो पूर्णता करीब आने लगी।
      इसे समझो। विपरीत के कारण आवश्यकता है। क्रोध हैइसलिए समझाते हैंकरुणा चाहिए। जब क्रोध ही न होगा तो करुणा भी क्या चाहिएइसका यह मतलब नहीं है कि तुम कठोर हो जाओगे। इसका मतलब इतना ही है कि तुम इतने करुणा से एक हो जाओगे कि तुम्हें पता ही न चलेगा कि करुणा है। करुणा का पता भी कठोर लोगों को चलता है।
      तुम रास्ते पर किसी को दान दे आते होतो तुम कहते फिरते हो कि दान दे आए। यह लोभी आदमी का लक्षण है। लोभ के कारण दान का पता चला। अगर लोभ बिलकुल मिट गया हो तो देने का पता कैसे चलेगादे दोगे ऐसे हीजैसे श्वास बाहर आती हैभीतर जाती है। किसको पता चलता हैहाकभी—कभी पता चलता है श्वास काश्वास की कोई बीमारी हो जाए तो पता चलता है। नहीं तो श्वास का कहीं पता चलता हैचलती रहती हैआती—जाती रहती है। स्वास्थ्य का कोई पता नहीं चलताबीमारी का ही पता चलता है।
      तुम्हें प्रेम का पता चलता हैक्योंकि तुम्हारे भीतर घृणा अभी भी मौजूद है। जब घृणा बिलकुल मिट जाएगीतुम क्या किसी से कह सकोगे कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूंकैसे कहोगेतुम प्रेम—रूप हो गए होओगे। कौन कहेगामैं प्रेम करता हूंकौन अलग होकर कहेगा कि मैं प्रेम करता हूंप्रेम करने के लिए भी घृणा करने की क्षमता चाहिए। प्रेम करता हूं ऐसा पता चलने के लिए घृणा शेष चाहिए। जब घृणा बिलकुल ही शून्य हो जाती हैतो प्रेम कैसा! इधर घृणा गईप्रेम का भाव भी गया। इसका यह मतलब नहीं है कि प्रेम नहीं बचता। प्रेम ही प्रेम बचता हैलेकिन बोध कैसे हो?
      जब तक भीतर मूर्च्छा हैतब तक चेतना भी पता चलती है। जब मूर्च्छा बिलकुल चली जाती है तो चेतना का भी पता नहीं चलता। पता किसको चलेकैसे चलेपता चलने के लिए विपरीत की मौजूदगी चाहिए।
      तुम बाहर हो जेल खाने के तुम्हें पता चलता है जेल के बाहर होने काकुछ पता नहीं चलता। एक दफा जेल होकर आओ। तब जेल से छूटोगेराह पर आकर खड़े हो जाओगेतो तुम्हें पता चलेगा स्वतंत्रता का। राह से हजारों लोग निकल रहे हैंउनमें से किसी को पता नहीं चलता। तुम अगर उनसे कहोगेनाचो! मुक्त हो तुम! जेल के बाहर हो। वे कहेंगेपागल हो गएदफ्तर जा रहे हैं। अपने घर जा रहे हैं। नाचे किसलिएतुमको लगता हैनाचे। तुम जेल में थे। जंजीरों ने तुम्हें स्वतंत्रता का बोध दिया। लेकिन कितनी देर यह याद रहेगीएक—आध दिनदो दिनचार दिनदस दिन। जैसे—जैसे स्वतंत्रता स्वीकार हो जाएगीवैसे—वैसे बोध खो जाएगा।
      सिर का पता चलता हैजब सिर में दर्द होता है। जब सिर में दर्द नहीं होतासिर का पता नहीं चलता। जिसको सिर में दर्द कभी हुआ ही नहीं हैउसे सिर का पता ही नहीं है।
      शांति का पता चलता हैक्योंकि अशांति है।

      विश्राम का पता चलता हैक्योंकि थकान है।

      प्रकाश का पता चलता हैक्योंकि अंधकार है।

      जीवन का पता चलता हैक्योंकि मौत है।
जिन्होंने अमृत जीवन को जानाउनको धीरे—धीरे जीवन का पता भी नहीं चलता।  जहा मृत्यु नहीं हैवहां जीवन का पता कैसे चले?

      होने ही को है ऐ दिल तकमील मुहब्बत की

      एहसासे—मुहब्बत भी मिटता नजर आता है। 

आज इतना ही। 

Sunday, June 1, 2025

बुद्धत्व

बुद्धत्व उस क्षण में घटित होता है जब तुम्हारे भीतर कोई शिकायत नहीं, जब तुम कहीं नही जा रहे, कोई वासना नहीं, कोई निंदा नहीं, कोई आलोचना नहीं, कोई मूल्यांकन नहीं। सिर्फ तुम होते हो और पूर्ण स्वीकृति के साथ होते हो, उसी क्षण बुद्धत्व वहां है। 

बुद्धत्व बहुत साधारण बात है। वह कुछ असाधारण बात नहीं -- क्योकि विशेषता अहंकार की खोज है। 

कोई मांग नही, किसी के लिए कोई ललक नही, कोई पकड़ नहीं। तुम सिर्फ हो, और तुम प्रसन्न हो--अकारण प्रसन्न हो।
 
इसे याद रखो। प्रसन्नता और आनंद मे यही अंतर है।  तुम्हारी प्रसन्नता सकारण है। कभी कोई मित्र आ गया है और तुम प्रसन्न हो। मित्र के साथ कितनी देर तुम प्रसन्न रह सकते हो ? कुछ घड़ीयां। यह सकारण है। आनंद अकारण प्रसन्नता है। 

एक बुद्ध पुरुष वैसे ही सिर्फ सुखी है जैसे तुम सिर्फ दुखी हो। जब कभी जूता काटता है, वह दुख नहीं है, वह मात्र शारीरिक पीड़ा है - एक असुविधा, लेकिन दुख नहीं। 

बुद्ध पुरुष को भी कष्ट हो सकता है, लेकिन दुख कभी नही होता - क्योंकि दुख कैसे हो सकता है? अगर उसके आनंद का कोई कारण नहीं है, तो दुख असंभव है।

आनंद का कोई विपरीत नहीं है। वह बिल्कुल अकारण है। इसी कारण वह शाश्वत है। क्योंकि एक सकारण वस्तु शाश्वत नही हो सकती -- जब कारण मिट जाता है, कार्य भी मिट जाता है।

वास्तविकता को पूर्णरूपेण स्वीकार करना ही बुद्धत्व है।

ओशो