Friday, December 28, 2018

प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता ।

पहला प्रश्‍न:

मैं तुम्हीं से पूछती हूं? मुझे तुमसे प्यार क्यों है?
कभी तुम जुदा न होओगे, मुझे  यह ऐतबार क्यों है?

पूछा है मा योग प्रज्ञा ने।
प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है।
क्यों का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। इसीलिए नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।

प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है। मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम हृदय की बात है। वहा क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता।
क्यों है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है—बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय। ऐसा भी नहीं कि किसी दिन जान लोगे।
इसीलिए तो जीसस ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक अकेला अनुभव है, जो परमात्मा के संबंध में थोड़े इंगित करता है। ऐसा ही परमात्मा है—अकारण, अहैतुक। ऐसा ही परमात्मा है—रहस्यपूर्ण। ऐसा ही परमात्मा है, जिसका कि हम आर—पार न पा सकेंगे। प्रेम उसकी पहली झलक है।
क्यों पूछो ही मत। यद्यपि मैं जानता हूं क्यों उठता है। क्यों का उठना भी स्वाभाविक है। आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है। इसी से तो विज्ञान का जन्म हुआ। क्योंकि आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है कि ऐसा क्यों होता है? जब कारण मिल जाता है, तो विज्ञान बन जाता है। और जिन चीजों का कारण नहीं मिलता, उन्हीं से धर्म बनता है। धर्म और विज्ञान का यही भेद है। कारण मिल गया, तो विज्ञान निर्मित हो जाएगा।
प्रेम का विज्ञान कभी निर्मित नहीं होगा। और परमात्मा विज्ञान की प्रयोगशाला में कभी पकड़ में नहीं आएगा। जीवन में जो भी परम है—सौंदर्य, सत्य, प्रेम—उन पर विज्ञान की कोई पहुंच नहीं है। वे विज्ञान की पहुंच के बाहर हैं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, गरिमापूर्ण है, वह कुछ अज्ञात लोक से उठता है। तुम्हारे भीतर से ही उठता है। लेकिन इतने अंतरतम से आता है कि तुम्हारी परिधि उसे नहीं समझ पाती। तुम्हारे विचार करने की क्षमता परिधि पर है। और तुम्हारे प्रेम करने की क्षमता तुम्हारे केंद्र पर है।
केंद्र तो परिधि को समझ सकता है। लेकिन परिधि केंद्र को नहीं समझ सकती। क्षुद्र विराट को नहीं समझ सकता; विराट क्षुद्र को समझ सकता है।
प्रेम बड़ी बात है—मस्तिष्क से बहुत बड़ी। मस्तिष्क से ही क्यों—प्रेम तुमसे भी बड़ी बात है। इसीलिए तो तुम अवश हो जाते हो। प्रेम का झोंका जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम का मौसम जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम की किरण उतरती है, तुम मिट जाते हो। तुमसे भी बड़ी बात है। तो तुम कैसे समझ पाओगे? तुम तो बचते ही नहीं, जब प्रेम उतरता है। जब प्रेम नाचता हुआ आता है तुम्हारे भीतर, तुम कहां होते हो? खुदी बेखुदी हो जाती है। आत्मा अनात्मा हो जाती है। एक शून्य रह जाता है। उस शून्य में ही नाचती है किरण प्रेम की, प्रार्थना की, परमात्मा की।.           
                                                                                         ओशो