Friday, September 21, 2018

यौन जीवन

धर्मशास्त्रों में वर्णित यौन जीवन -
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          संपूर्ण धर्मशास्त्र धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा पर खड़ा है। यहां पर काम की महत्ता को स्वीकार किया गया है तथा इसका नियमपूर्वक उपभोग करने की स्वीकृति दी गई है।

धर्मशास्त्रों में संभोग या मैथुन एक घृणास्पद वस्तु न होकर नियंत्रित एवं प्रतिबंधित विषय रहा है। इसका लक्ष्य उन्मुक्त एवं वासना पूर्ण यौन जीवन नहीं था।

मैथुनेच्छा की स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियमित करने के लिए श्वेतकेतु का एक आख्यान महाभारत में प्राप्त होता है।

ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम पति- पत्नी के रुप में स्री - पुरुष के संबंधों की नींव डाली।

श्वेतकेतु ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलात् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा।

इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है।

इसमें कोई दोष नहीं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया।

यौन व्यवहार गृहस्थाश्रम के मूल आधार के रूप में प्रतिष्ठ्त होने लगा। यहां विवाह से गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर यौन जीवन का आरंभ होता था।

किसी अन्य प्रकार का यौनाचार अपराध एवं पाप की श्रेणी में माना जाता था। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के यौन जीवन पर सतर्क दृष्टि देखी जाती है। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के साथ यौन संबंध के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है।

धर्मसूत्रों में वर्णित अप्राकृतिक यौनाचार:-

      अप्राकृतिक यौनाचार के बारे में धर्मसूत्रों में पर्याप्त मात्रा में चर्चा मिलती है। उस समय भी मनुष्य अप्राकृतिक क्रिया और असामान्य यौनाचार करता था।

अतः प्रायः सभी धर्मसूत्रों में पुरुष द्वारा किए जाने वाले पशु मैथुन की निंदा की गई है।

इस प्रकार के मैथुन के लिए दंड एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। गौतम ने गाय से यौन सम्बन्ध स्थापित करने वाले के लिए गुरुपत्नी गमन के समान पाप कर्म माना है।

सखीसयोनिसगोत्राशिष्यभार्यासु स्नुषायां गवि च गुरुतल्पसमः।। गौतमीयधर्मशास्त्र 3.23.12

वशिष्ठ ने इसे शुद्र वध के तुल्य माना है। गाय के अतिरिक्त अन्य मादा पशु से दुराचरण हेतु होम का प्रायश्चित निर्धारित किया है।

         अमानुषीषु गोवर्जं स्त्रीकृते कूश्‍माण्डैर्घृतहोमो घृतहोमः। गौतमीय धर्मशास्त्र मिताक्षरा 3.12.36

धर्मसूत्रों में स्त्री की योनि से भिन्न स्थानों पर वीर्य गिराने को मना किया गया। इसे दुष्कर्म और दंडनीय एवं पाप पूर्ण कार्य माना गया है।

वशिष्ठधर्मसूत्र में इस अप्राकृतिक यौनाचार को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो अपनी पत्नी के मुख में मैथुन करता है उसे पितृगण उस माह वीर्य को पीते हैं । पुरुषों के समलिंगी यौन कर्म का भी निषेध किया है।

        यथा स्तेनो यथा भ्रूणहैवमेष भवति यो अयोनौ रेतःसिञ्चति।।

हरदत्त की व्याख्या।

इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक काल से ही मानव उन्मुक्त यौन व्यवहार करता था। वेद तथा वेदोत्तर काल के स्मृतिशास्त्र, धर्मसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यौन जीवन का आरंभ माता और पिता के द्वारा कन्यादान करने के पश्चात् शुरू होता है।

पुत्र पैदा करने तथा स्त्री सहवास के नियमों के विस्तार इतना अधिक होता चला गया कि स्त्री भोग्या की श्रेणी में आ गयी। हो सकता है कि इस समय आते आते ये ग्रन्थ भी सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित होने लगे हों।

वशिष्ठधर्मशास्त्र ने तो स्त्री में मैथुन की अद्भुत क्षमता होती है तक कह डाला। वे आगे कहते हैं कि इंद्र द्वारा उसे इस हेतु वरदान दिया है और प्रसव के 1 दिन पूर्व भी वह अपने पति के साथ शयन कर सकती है।

अपि च काठके विज्ञायते । अपि नः श्वो विजनिष्यमाणाः पतिभिः सह शयीरन्निति स्त्रीणामिन्द्र दत्तो वर इति। 12.24

इससे सिद्ध होता है यौनेच्छा की तृप्ति या यौनचर्या का दायरा अब केवल संतान उत्पत्ति तक ही सीमित नहीं रह गया था।

गौतम, आपस्तम्ब जैसे कुछ ऋषियों ने यौन प्रवृत्ति की स्वाभाविकता को समझा और वह भोग करने के लिए निषेध के दिनों को छोड़कर किसी भी काल में पत्नी से यौन संबंध स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। आपस्तम्ब ने भी ऋतुकाल के मध्य भी पत्नी की इच्छा को देखकर संभोग करने की अनुमति देते हैं।

धर्मसूत्र पत्नी गमन का आदेश देते हुए कहता है कि जो पुरुष मासिक धर्म हुए पत्नी से 3 वर्ष तक सहवास नहीं करता वह भ्रूण हत्या का के पाप का भागी होता है। जो पुरुष जिसके रजोदर्शन के उपरांत १६ दिन न बीतें हों और फलतः गर्भ-धारण के योग्य हो ऐसी पत्नी के निकट रहते हुए भी उस से संभोग नहीं करता, उसके पूर्वज उसकी पत्नी के रज में ही पड़े रहते हैं।

    त्रीणि वर्षाण्ययृतुमतीं यो भार्यां नोधिगच्छति।
     स तुल्यं भ्रूणहत्यायै दोषमृच्छत्यसंशयम्।।
     ऋतुस्नाता तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति।
     पितरस्तस्य तन्मासं तस्मिन् रजसि शेरते।।         बौधायन धर्मसूत्र 4.1.23

विष्णु धर्मसूत्र ने पर्वों एवं पत्नी की अस्वस्थता के दिन को छोड़कर अन्य दिनों में संभोग न करने पर 3 दिन के उपवास का प्रायश्चित बताया है।

संतान उत्पत्ति के इस पवित्र कर्तव्य पालन में सहयोग न देने वाली पत्नी के लिए बौधायन धर्मसूत्र ने सामाजिक तिरस्कार एवं परित्याग का भी विधान किया है।

जो स्त्री पति की इच्छा रहते हुए भी पति के साथ सहवास नहीं करती है और औषधि द्वारा संतान उत्पत्ति में बाधा पहुंचाती है उसे गाँव के लोगों के समक्ष भ्रूण को मारने वाली घोषित कर घर से निकाल देने का विधान किया।

- पुराणिक पुस्तकों से लिया गया विचार।
साभार : ओशो विचार मंच

Friday, September 14, 2018

एक मां और और दूत story#जो होना है वही होगा...

मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं–तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकियह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।नानक जो कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।
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