Saturday, February 10, 2018

भिक्षु और ब्राह्मण का घर

एक बौद्ध भिक्षु की कथा है
कि वह एक ब्राह्मण के द्वार पर भिक्षा मांगने गया।
ब्राह्मण का घर था, बुद्ध से ब्राह्मण नाराज था।
उसने अपने घर के लोगों को कह रखा था
कि और कुछ भी हो,

बौद्ध भिक्षु भर को एक दाना भी
मत देना कभी इस घर से।
ब्राम्हण घर पर नहीं था, पत्नी घर पर थी;
भिक्षु को देखकर उसका मन तो हुआ कि कुछ दे दे।

इतना शान्त, चुपचाप,
मौन भिक्षा-पात्र फैलाये खड़ा था,
और ऐसा पवित्र, फूल-जैसा।

लेकिन पति की याद आयी कि
वह पति पण्डित है और पण्डित भयंकर होते हैं,
वह लौटकर टूट पड़ेगा। सिद्धान्त का सवाल है
उसके लिए। कौन निर्दोष है बच्चे की तरह,
यह सवाल नहीं है, सिद्धान्त का सवाल है—
भिक्षु को, बौद्ध भिक्षु को देना

अपने धर्म पर कुल्हाड़ी मारना है।
वहां शास्त्र मूल्यवान है,
जीवित सत्यों का कोई मूल्य नहीं है।
तो भी उसने सोचा कि इस भिक्षु को ऐसे
ही चले जाने देना अच्छा नहीं होगा।
वह बाहर आयी और उसने कहाः
क्षमा करें, यहां भिक्षा न मिल सकेगी।

भिक्षु चला गया।
पर बड़ी हैरानी हुई कि दूसरे दिन
फिर भिक्षु द्वार पर खड़ा है।
वह पत्नी भी थोड़ी चिन्तित हुई
कि कल मना भी कर दिया।
फिर उसने मना किया।

कहानी बड़ी अनूठी है;
शायद न भी घटी हो, घटी हो। कहते हैं,
ग्यारह साल तक वह भिक्षु उस द्वार
पर भिक्षा मांगने आता ही रहा।

और रोज जब पत्नी कह देती कि क्षमा करें,
यहां भिक्षा न मिल सकेगी, वह चला जाता।
ग्यारह साल में पण्डित भी परेशान हो गया।
पत्नी भी बार-बार कहती कि क्या अदभुत आदमी है!

दिखता है कि बिना भिक्षा लिये जायेगा ही नहीं।
ग्यारह साल काफी लम्बा वक्त है।
आखिर एक दिन पण्डित ने उसे रास्ते
में पकड़ लिया और कहा कि सुनो,
तुम किस आशा से आये चले जा रहे हो,
जब तुम्हें कह दिया निरन्तर हजारों बार?

उस भिक्षु ने कहा, “अनुगृहीत हूं।
क्योंकि इतने प्रेम से कोई कहता भी कहां है
कि जाओ, भिक्षा न मिलेगी!
इतना भी क्या कम है?

भिखारी के लिए द्वार तक
आना और कहना कि क्षमा करो,
भिक्षा न मिलेगी, क्या कम है?

मेरी पात्रता क्या है! अनुगृहीत हूं!
और तुम्हारे द्वार पर मेरे लिए साधना
का जो अवसर मिला है,
वह किसी दूसरे द्वार पर नहीं मिला है।
इसलिए नाराज मत होओ, मुझे आने दो।
तुम भिक्षा दो या न दो, यह सवाल नहीं है।’

महावीर वाणी, भाग-२, प्रवचन#४९, ओशो

Monday, February 5, 2018

अतीत का विचार यानी बुढापा

मनोवैज्ञानिक कहते हैं: जिस दिन से तुम अतीत के संबंध में ज्यादा विचार करने लगो, समझ लेना कि बूढ़े हो गए। बुढ़ापे की यह मनोवैज्ञानिक परिभाषा है। जिस दिन से तुम्हें अतीत के ज्यादा विचार आने लगें और तुम पीछे की बातें करने लगो, कि वे दिन, अब क्या रखा है, अब दुनिया वह दुनिया न रही!

बच्चे भविष्य में देखते हैं और बूढ़े अतीत में देखते हैं। बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आरामकुर्सी पर सोचा करता है: वे दिन जब वह डिप्टी कलेक्टर था! अहह! क्या दिन थे वे भी साहबियत के! जहां से निकल जाओ, वहीं नमस्कार—नमस्कार हो जाता था! सब याद आते हैं वे दिन, बड़े इत्र—सुगंध से भरे। सम्मान, सत्कार, डालियां सजी हुई आती थीं। आम के मौसम में आम चले आ रहे हैं। दिन थे मौज के! आगे देखे भी तो क्या? आगे देखने को कुछ है नहीं। आगे तो सब सन्नाटा है। मौत की पगध्वनि सुनाई पड़ रही है। मौत को देखना कौन चाहता है! पीछे की सोचता है कि क्या दिन थे! रुपए का बत्तीस सेर दूध मिलता था, सोलह सेर घी मिलता था, अहा!. ..अब फिर से स्वाद और चटखारे ले लेता है। दिल बाग—बाग हो जाता है। फिर सुगंध आने लगती है पुराने दिनों की। ऐसे अपने को भरमाए रखता है। बूढ़ा अतीत में जीता है।

अमरीका का एक बहुत बड़ा न्यायशास्त्री पेरिस गया था। पचास साल पहले भी वे पेरिस आए थे, पति—पत्नी दोनों, हनीमून मनाने आए थे। पचास साल बाद एक जिज्ञासा फिर मन में उठी कि मरने के पहले एक बार पेरिस और देख लें। क्योंकि पेरिस में जो देखा था पचास साल पहले, फिर वैसा कहीं न देखने मिला! पचास साल बाद—बूढ़े हो गए हैं अब वे;पति अस्सी साल का है, पत्नी पचहत्तर साल की है; जिंदगी बह गई, गंगा की धार में बहुत पानी बह गया है; पचास साल लंबा वक्त होता है—पचास साल बाद पेरिस आए, बहुत चौंका बूढ़ा! उसने अपनी पत्नी से कहा कि अब पेरिस वैसा पेरिस नहीं मालूम होता! वह बात नहीं रही अब! पत्नी हंसने लगी और उसने कहा, पेरिस तो अब भी पेरिस है—जरा नए—नएजोड़ों की नजरों से देखो—हम बूढ़े हो गए हैं। अब हम हमनहीं हैं। पेरिस तो अब भी पेरिस है। जो सुहागरात मनाने आए हैं, उनसे पूछो। अब हम पचास साल जीकर आए हैं, हमारे पास कुछ भी नहीं बचा आगे जीने को, अब जीने को भी क्या है?

मगर फिर भी उन्होंने कोशिश की कि एक बार फिर से पुनरुज्जीवित कर लें। उसी होटल में ठहरे जिस होटल में पचास साल पहले ठहरे थे—उसी कमरे को मांगा कि चाहे जो कीमत लगे। खाली करवाना पड़ा, दूसरा यात्री उसमें ठहरा था,लेकिन उसको रिश्वत देकर खाली करवाया कि हम आए ही इसीलिए हैं, उसी कमरे में ठहरेंगे। उसी खिड़की से दृश्य देखेंगे। वही भोजन, वही समय। रात जब दोनों सोने के करीब आए तो पत्नी ने कहा कि और तुम भूल गए; उस रात तुमने मुझे किस तरह आलिंगनबद्ध करके चूमा था? कमरा तो वही है, चूमोगे नहीं? उसने कहा, अब नहीं मानती तो ठीक है! अभी आया। उसने कहा, कहां जाते हो? तो उसने कहा किबाथरूम। बाथरूम किसलिए जाते हो? उसने कहा, दांत तो ले आऊं? दांत तो बाथरूम में रख आया हूं। अब पचास साल बीत गए, अब दांत भी अपने न रहे, अब दांत भी सब उधार हो गए, अब ये पोपले सज्जन दांत लगाकर फिर चुंबन लेने जा रहे हैं! यह चुंबन वही होगा? यह कैसे वही हो सकता है! यह सिर्फ अभिनय होगा। थोथा, बासा, मुर्दा। लेकिन लोग अतीत में जीने की चेष्टा करते हैं।

बूढ़े अतीत में जीते हैं।

युवावस्था का मनोवैज्ञानिक अर्थ होता है: वर्तमान में जीना। शुद्ध वर्तमान में जीना।

हमारा युवक भी पीछे देखता है। वह भी कहता है, बचपन के दिन बड़े सुंदर थे। हमारा युवक भी भविष्य में देखता है। वह सोचता है, अगले साल बढ़ती होगी,बड़ी नौकरी मिलेगी। हमारा युवक भी कहां युवक होता है?ठीक—ठीक आध्यात्मिक अर्थों में युवा नहीं होता। कटा—कटा होता है। आधा अतीत, आधा भविष्य। थोड़ा पीछे, थोड़ा आगे। बंटा—बंटा होता है। खंडित होता है। इसलिए बेचैन भी होता है। उसमें तनाव भी होता है बहुत।

बुद्ध जैसे व्यक्ति, कबीर—नानक—पलटू जैसे व्यक्ति शुद्ध वर्तमान में जीते हैं। न कोई अतीत है, न पीछे की कोई याद है। धूल—धवांस इकट्ठी ही नहीं करते ऐसे लोग। न कोई भविष्य है, न भविष्य की कोई चिंता है। कूड़ा—करकट में रस ही नहीं लेते ऐसे लोग। यह क्षण, बस यह शुद्ध क्षण पर्याप्त है। इस क्षण के आर—पार कुछ भी नहीं है। इस क्षण में डुबकी मारते हैं—वही समाधि ही। शुद्ध वर्तमान में डूब जाना समाधि है। अतीत में रहना—मन में रहना; भविष्य में रहना—मन में रहना। ये मन के रहने के ढंग हैं—अतीत और भविष्य। वर्तमान में, शुद्ध वर्तमान में डूब जाना...जरा एक क्षण को अनुभव करो! जैसे बस यही क्षण है। मैं हूं, तुम हो, ये वृक्ष हैं, ये पक्षियों की चहचहाहट है, ये सन्नाटा है; बस यह क्षणमात्र, अपनी परिपूर्ण शुद्धता में—न पीछे की कोई याद है, न आगे का कोई हिसाब है, स्मृति छूट गई, फिर इस अंतराल में शाश्वत की प्रतीति होने लगेगी। यही अंतराल समाधि है।

.........ओशो💟.........

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