Friday, December 28, 2018

प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता ।

पहला प्रश्‍न:

मैं तुम्हीं से पूछती हूं? मुझे तुमसे प्यार क्यों है?
कभी तुम जुदा न होओगे, मुझे  यह ऐतबार क्यों है?

पूछा है मा योग प्रज्ञा ने।
प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है।
क्यों का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। इसीलिए नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।

प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है। मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम हृदय की बात है। वहा क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता।
क्यों है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है—बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय। ऐसा भी नहीं कि किसी दिन जान लोगे।
इसीलिए तो जीसस ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक अकेला अनुभव है, जो परमात्मा के संबंध में थोड़े इंगित करता है। ऐसा ही परमात्मा है—अकारण, अहैतुक। ऐसा ही परमात्मा है—रहस्यपूर्ण। ऐसा ही परमात्मा है, जिसका कि हम आर—पार न पा सकेंगे। प्रेम उसकी पहली झलक है।
क्यों पूछो ही मत। यद्यपि मैं जानता हूं क्यों उठता है। क्यों का उठना भी स्वाभाविक है। आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है। इसी से तो विज्ञान का जन्म हुआ। क्योंकि आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है कि ऐसा क्यों होता है? जब कारण मिल जाता है, तो विज्ञान बन जाता है। और जिन चीजों का कारण नहीं मिलता, उन्हीं से धर्म बनता है। धर्म और विज्ञान का यही भेद है। कारण मिल गया, तो विज्ञान निर्मित हो जाएगा।
प्रेम का विज्ञान कभी निर्मित नहीं होगा। और परमात्मा विज्ञान की प्रयोगशाला में कभी पकड़ में नहीं आएगा। जीवन में जो भी परम है—सौंदर्य, सत्य, प्रेम—उन पर विज्ञान की कोई पहुंच नहीं है। वे विज्ञान की पहुंच के बाहर हैं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, गरिमापूर्ण है, वह कुछ अज्ञात लोक से उठता है। तुम्हारे भीतर से ही उठता है। लेकिन इतने अंतरतम से आता है कि तुम्हारी परिधि उसे नहीं समझ पाती। तुम्हारे विचार करने की क्षमता परिधि पर है। और तुम्हारे प्रेम करने की क्षमता तुम्हारे केंद्र पर है।
केंद्र तो परिधि को समझ सकता है। लेकिन परिधि केंद्र को नहीं समझ सकती। क्षुद्र विराट को नहीं समझ सकता; विराट क्षुद्र को समझ सकता है।
प्रेम बड़ी बात है—मस्तिष्क से बहुत बड़ी। मस्तिष्क से ही क्यों—प्रेम तुमसे भी बड़ी बात है। इसीलिए तो तुम अवश हो जाते हो। प्रेम का झोंका जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम का मौसम जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम की किरण उतरती है, तुम मिट जाते हो। तुमसे भी बड़ी बात है। तो तुम कैसे समझ पाओगे? तुम तो बचते ही नहीं, जब प्रेम उतरता है। जब प्रेम नाचता हुआ आता है तुम्हारे भीतर, तुम कहां होते हो? खुदी बेखुदी हो जाती है। आत्मा अनात्मा हो जाती है। एक शून्य रह जाता है। उस शून्य में ही नाचती है किरण प्रेम की, प्रार्थना की, परमात्मा की।.           
                                                                                         ओशो

Friday, September 21, 2018

यौन जीवन

धर्मशास्त्रों में वर्णित यौन जीवन -
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          संपूर्ण धर्मशास्त्र धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा पर खड़ा है। यहां पर काम की महत्ता को स्वीकार किया गया है तथा इसका नियमपूर्वक उपभोग करने की स्वीकृति दी गई है।

धर्मशास्त्रों में संभोग या मैथुन एक घृणास्पद वस्तु न होकर नियंत्रित एवं प्रतिबंधित विषय रहा है। इसका लक्ष्य उन्मुक्त एवं वासना पूर्ण यौन जीवन नहीं था।

मैथुनेच्छा की स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियमित करने के लिए श्वेतकेतु का एक आख्यान महाभारत में प्राप्त होता है।

ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम पति- पत्नी के रुप में स्री - पुरुष के संबंधों की नींव डाली।

श्वेतकेतु ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलात् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा।

इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है।

इसमें कोई दोष नहीं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया।

यौन व्यवहार गृहस्थाश्रम के मूल आधार के रूप में प्रतिष्ठ्त होने लगा। यहां विवाह से गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर यौन जीवन का आरंभ होता था।

किसी अन्य प्रकार का यौनाचार अपराध एवं पाप की श्रेणी में माना जाता था। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के यौन जीवन पर सतर्क दृष्टि देखी जाती है। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के साथ यौन संबंध के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है।

धर्मसूत्रों में वर्णित अप्राकृतिक यौनाचार:-

      अप्राकृतिक यौनाचार के बारे में धर्मसूत्रों में पर्याप्त मात्रा में चर्चा मिलती है। उस समय भी मनुष्य अप्राकृतिक क्रिया और असामान्य यौनाचार करता था।

अतः प्रायः सभी धर्मसूत्रों में पुरुष द्वारा किए जाने वाले पशु मैथुन की निंदा की गई है।

इस प्रकार के मैथुन के लिए दंड एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। गौतम ने गाय से यौन सम्बन्ध स्थापित करने वाले के लिए गुरुपत्नी गमन के समान पाप कर्म माना है।

सखीसयोनिसगोत्राशिष्यभार्यासु स्नुषायां गवि च गुरुतल्पसमः।। गौतमीयधर्मशास्त्र 3.23.12

वशिष्ठ ने इसे शुद्र वध के तुल्य माना है। गाय के अतिरिक्त अन्य मादा पशु से दुराचरण हेतु होम का प्रायश्चित निर्धारित किया है।

         अमानुषीषु गोवर्जं स्त्रीकृते कूश्‍माण्डैर्घृतहोमो घृतहोमः। गौतमीय धर्मशास्त्र मिताक्षरा 3.12.36

धर्मसूत्रों में स्त्री की योनि से भिन्न स्थानों पर वीर्य गिराने को मना किया गया। इसे दुष्कर्म और दंडनीय एवं पाप पूर्ण कार्य माना गया है।

वशिष्ठधर्मसूत्र में इस अप्राकृतिक यौनाचार को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो अपनी पत्नी के मुख में मैथुन करता है उसे पितृगण उस माह वीर्य को पीते हैं । पुरुषों के समलिंगी यौन कर्म का भी निषेध किया है।

        यथा स्तेनो यथा भ्रूणहैवमेष भवति यो अयोनौ रेतःसिञ्चति।।

हरदत्त की व्याख्या।

इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक काल से ही मानव उन्मुक्त यौन व्यवहार करता था। वेद तथा वेदोत्तर काल के स्मृतिशास्त्र, धर्मसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यौन जीवन का आरंभ माता और पिता के द्वारा कन्यादान करने के पश्चात् शुरू होता है।

पुत्र पैदा करने तथा स्त्री सहवास के नियमों के विस्तार इतना अधिक होता चला गया कि स्त्री भोग्या की श्रेणी में आ गयी। हो सकता है कि इस समय आते आते ये ग्रन्थ भी सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित होने लगे हों।

वशिष्ठधर्मशास्त्र ने तो स्त्री में मैथुन की अद्भुत क्षमता होती है तक कह डाला। वे आगे कहते हैं कि इंद्र द्वारा उसे इस हेतु वरदान दिया है और प्रसव के 1 दिन पूर्व भी वह अपने पति के साथ शयन कर सकती है।

अपि च काठके विज्ञायते । अपि नः श्वो विजनिष्यमाणाः पतिभिः सह शयीरन्निति स्त्रीणामिन्द्र दत्तो वर इति। 12.24

इससे सिद्ध होता है यौनेच्छा की तृप्ति या यौनचर्या का दायरा अब केवल संतान उत्पत्ति तक ही सीमित नहीं रह गया था।

गौतम, आपस्तम्ब जैसे कुछ ऋषियों ने यौन प्रवृत्ति की स्वाभाविकता को समझा और वह भोग करने के लिए निषेध के दिनों को छोड़कर किसी भी काल में पत्नी से यौन संबंध स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। आपस्तम्ब ने भी ऋतुकाल के मध्य भी पत्नी की इच्छा को देखकर संभोग करने की अनुमति देते हैं।

धर्मसूत्र पत्नी गमन का आदेश देते हुए कहता है कि जो पुरुष मासिक धर्म हुए पत्नी से 3 वर्ष तक सहवास नहीं करता वह भ्रूण हत्या का के पाप का भागी होता है। जो पुरुष जिसके रजोदर्शन के उपरांत १६ दिन न बीतें हों और फलतः गर्भ-धारण के योग्य हो ऐसी पत्नी के निकट रहते हुए भी उस से संभोग नहीं करता, उसके पूर्वज उसकी पत्नी के रज में ही पड़े रहते हैं।

    त्रीणि वर्षाण्ययृतुमतीं यो भार्यां नोधिगच्छति।
     स तुल्यं भ्रूणहत्यायै दोषमृच्छत्यसंशयम्।।
     ऋतुस्नाता तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति।
     पितरस्तस्य तन्मासं तस्मिन् रजसि शेरते।।         बौधायन धर्मसूत्र 4.1.23

विष्णु धर्मसूत्र ने पर्वों एवं पत्नी की अस्वस्थता के दिन को छोड़कर अन्य दिनों में संभोग न करने पर 3 दिन के उपवास का प्रायश्चित बताया है।

संतान उत्पत्ति के इस पवित्र कर्तव्य पालन में सहयोग न देने वाली पत्नी के लिए बौधायन धर्मसूत्र ने सामाजिक तिरस्कार एवं परित्याग का भी विधान किया है।

जो स्त्री पति की इच्छा रहते हुए भी पति के साथ सहवास नहीं करती है और औषधि द्वारा संतान उत्पत्ति में बाधा पहुंचाती है उसे गाँव के लोगों के समक्ष भ्रूण को मारने वाली घोषित कर घर से निकाल देने का विधान किया।

- पुराणिक पुस्तकों से लिया गया विचार।
साभार : ओशो विचार मंच

Friday, September 14, 2018

एक मां और और दूत story#जो होना है वही होगा...

मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं–तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकियह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।नानक जो कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।
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Tuesday, August 21, 2018

When I say that a woman can be more understanding, I mean many things.

When I say that a woman can be more understanding, I mean many things.

Even a small girl is more understanding than an old man!

A girl, from the very beginning, is motherly, and the motherly attitude means a great understanding of the other...

..."How to give the other freedom, love, and how to give love without there being any bondage attached to it... how to nourish the other.

..."Man always seeks the mother again and again."...

..."A woman is seeking a child and the man is seeking a mother"...

..."And lovers are happy when this understanding has arisen –that the woman has become the mother and the lover has become the child; then there is tremendous beauty."

Difficult –because the man tries to show that he is the master, the husband, this and that,

But deep down he is just a child wanting somebody to take care...

Somebody to take responsibility, somebody to look after him for every whim... somebody to feed him, somebody to sing a lullaby so he can go to sleep.

That's what he's seeking –but out of the ego he cannot say it, that's the trouble.

He pretends that he is a grown-up man –and no man is a grown-up man.

Except for the buddhas I have never seen any grown-up man.

Man as such is childish –woman as such is grown up.

She has more possibility because she has more passivity... she can allow many things to happen.

But in the West now the problem has arisen on the part of women too. They don't want to be the mother.

They also pretend that they are not mothers –they are not going to play the role of the mother.'I am not your mother,' they say. 'You drop your mother fixation.

I am a companion, a friend, a beloved, but not a mother –and don't hope for that.

But deep down every woman –ancient or modern, eastern or western; it makes no difference.... It is something very intrinsic that each woman is born to be a mother.

That is not an accidental thing–that is very essential.

Once a woman understands this –that that's her destiny –knowingly she becomes a mother... things change.

So when [your husband] comes I will talk to him but I would like you to be ready to be a mother.

Forget that nonsense of being a girlfriend, a this and that; that is not very important.

Start feeling like a mother and see how beautiful the relationship becomes and how so many anxieties and conflicts are simply dropped.

Not even a little noise is created... a harmony arises.

In the old eastern scriptures it is said that when in ancient India a newly married couple went to a master or to a great enlightened man to be blessed,

The Master would bless them –particularly the woman –saying, 'I bless you that you should become mother of at least ten sons, and finally I bless you that your husband will become your eleventh son.'

Looks very strange –that your husband finally becomes your eleventh son –but seems to be very deep, profound.

So start being a mother, and that will make you very soft.

Because you have become very hard you have gathered around yourself a very hard crust.

That hard crust hurts you and because of that hard crust you cannot allow love to enter in you.

You have developed it as a protection... you have developed it as an armour, as a defence.

But I know that deep down you are tremendously soft. Once that crust is broken you will become very very fragile –and that fragileness is beauty.

So before he comes... just become more and more fragile and wait.

Wait for him as if you are waiting for a child and from the first moment start mothering him very consciously.

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🍁Osho,
The Buddha Disease
Chapter#25.
LIFE IS A RISK, THAT'S WHY IT IS SO BEAUTIFUL
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क्या मनुष्य ओशो को समझने को तैयार है?

टॉम रॉबिन्स एक प्रसिद्ध अमरिकी उपन्यासकार हैं जिनके कुछ उपन्यासों का हॉलिवुड में फिल्मांतरण भी किया गया है। 1987 में उन्होंने डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा ओशो पर लिखी पुस्तक, 'भगवान: दि मोस्ट गॉडलैस यैट दि मोस्ट गॉडली अॉफ मैन, की भूमिका लिखी थी। उसी भूमिका को उन्होंने अपनी पुस्तक 'वाइल्ड डँक्स फ्लाइंग बैकवर्ड' में एक टिप्पणी के साथ सम्मिलित किया है। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक से यह संपूर्ण आलेख:

मैं ओशो का शिष्य नहीं हूं। मैं किसी भी गुरु का शिष्य नहीं हूं। बल्कि मैं तो मानता हूं कि पूर्वीय गुरु व्यवस्था पश्चिम में चेतना के विकास में उपयोगी नहीं है(जबकि इस बात को मानने वाला भी मैं पहला होउंगा कि जो 'उपयोगी' होता है वह सदा महत्वपूर्ण नहीं होता)। जिस प्रकार का व्यक्तिवादी होने का मैं दावा करता हूं उसके साथ गुरत्व का थोडा-सा भी मेल नहीं बैठता। लेकिन हां, यदि मुझे अपनी आत्मा किसीको सौंपनी ही हो तो मैं किसी राजनैतिक पार्टी या किसी मनोविश्लेषक की बजाय ओशो जैसे किसी को सौंपना चाहूंगा।
तो, मैं कोई संन्यासी नहीं हूं। लेकिन जब कोई हरी बयार मेरे द्वार-दरवाजों को झकझोर जाए तो उसे पहचानने की क्षमता जरुर रखता हूं, और ओशो तो वह प्यारी-सी आंधी हैं जो इस ग्रह को अपनी चपेट में लेते हुए रबाइयों और पोपों की टोपियां उडा रही है, ब्यूरोक्रेट्स की मेजों पर पडे झूठ के पुलिंदो को तितर-बितर कर रही है, शक्तिशालियों की घुडसालों में अफरा-तफरी मचा रही है, रुग्ण नैतिकतावादियों की धोतियां खोल रही है, और आध्यात्मिक रुप से मरे हुओं को वापस जिंदा कर रही है।
*ओशो नाम का यह तूफान कोई झूठ-मूठ के आश्वासन नहीं देता*। वे कोई सांप का तेल नहीं बेच रहे। वे न तो आपके दांतो को मजबूत करने के लिए कोई मंडला देते हैं और न ही आपको करोडपति बनाने के लिए कोई मंत्र देते हैं। अध्यात्म के बाजार में सब नियमों को उन्होंने ताक पर रख दिया है। उनके इस ताजातरीन रवैये ने उन्हें मनुष्य के इतिहास की सबसे मजबूत संगति में ला बैठाया है।
जीसस के पास अपनी कहानियां थीं, बुध्द के पास अपने सूत्र थे, मौहम्मद के पास अरेबियन नाइट की कल्पनाएं थीं। ओशो के पास लोभ, भय, अज्ञान और अंधविश्वास से लिप्त मानव प्रजाति के देने के लिए कुछ अधिक मौजूं है : उनका ब्रह्मांडीय व्यंग।
मेरे अनुसार, ओशो ने जो किया है वह है हमारे नकाबों को भेद डालना, हमारे भ्रमों को ध्वस्त कर देना, हमें हमारी अंधी लतों से निकालना, और सबसे महत्वपूर्ण तो हमें चेताना कि स्वयं को बहुत गंभीरता से लेकर कैसे हम स्वयंको ही सीमित कर लेते हैं। परम आनंद की ओर उनका मार्ग हमारे अहंकार को मजाक में उडाता हुआ जाता है।
हां, बहुत से लोगों को यह मजाक समझ में नहीं बैठता। खासकर सत्ताधीशों के। मजाक तो उनके सिर के ऊपर से निकल जाता है, लेकिन कहीं गहरे में वे यह जरूर महसूस करते हैं कि ओशो के संदेश में उनके लिए कुछ खतरनाक है। नहीं तो एक आकेले ओशो को ऐसी प्रताडना के लिए वे क्यों चुनते जैसी उन्होंने किसी बनाना रिपब्लिक के तानाशाह या किसी माफिया डॉन को भी न दी होती? अगर रोनाल्ड रीगन का बस चलता तो वह इस कोमल से शाकाहारी को व्हाइट हाउस के दालान में सूली पर लटकाना देना पसंद करता।
उनको जिस खतरे का अहसास होता है वह यह है कि ओशो के शब्दों में जो छिपा है, उसे यदि पूरी तरह से समझ लिया गया तो नर-नारीयां उनके नियंत्रण से मुक्त हो जाएंगे। राज्य, और अपराध में उनके भागीदार----संगठित धर्म--को स्वतंत्र और मुक्त मनुष्यों की संभावना से अधिक कुछ भी आतंकित नहीं करता।
लेकिन स्वतंत्रता एक शक्तिशाली शराब जैसी है। इसे पीने वालों को इसके नशे के साथ समायोजन बिठाने में समय लगता है। कुछ लोग-जिनमें ओशो के कुछ संन्यासी भी होंगे---यह समायोजन कभी नहीं बिठा पाते। संसार भर में कितने ही लोग हैं जिन्होंने कई प्रकार की स्वतंत्रताओं की बात की है, लेकिन बार-बार हमने देखा है कि लोग अपनी स्वतंत्रता को संभाल नहीं पाते। 'ओशो का अनुसरण करने वाले कितने लोग स्वतंत्र हो पाते हैं, और कितने उस स्वतंत्रता को संभाल पाते हैं यह देखा जाना अभी बाकी है'। इतिहास को देखें और मनुष्य नाम के पशु की जडता को देखें तो लगता तो ऐसा है कि उसकी भ्रष्ट उदासीनता को तोडने के लिए एक करुणामय मनीषी की गैरपारंपरिक प्रज्ञा से भी अधिक शायद यह जरूरी हो कि यह मनुष्यता पूरी समाप्त हो और फिर से शुरू हो।
खैर, वह हो कि न हो, लेकिन ओशो की प्रज्ञा हमें उपलब्ध है। उनकी अंतर्दृष्टि हमें उपलब्ध है और हम चाहें तो अपने मुखौटों के पार देख सकते हैं। इस अंतर्दृष्टि में ताकत है कि वह परिणाम की परवाह किए बगैर अभिव्यक्त हो सकती है। इस अंतर्दृष्टि में प्रेम भी है और नटखट शरारत भी। यह ओशो की जीवंतता है कि वे सारे भौतिक सुविधाओं को खुलकर जीते भी हैं और फिर उन्हीं में अटके रह जाने के खतरे से भी चेताते हैं। 'जोरबा दि बुध्दा की इस अंतर्दृष्टि को हम समझ लें, तो सब समझ गए।
स्वभावत; जिन पत्रकारों ने ओशो पर शोध की है उनमें से अधिकांश उनके तरीकों, उनके संदेश और उनकी उलटबांसियों को समझ ही नहीं पाए। यहां तक कि उनके क ई अनुयायी भी विबूचन में पड गए। खैर, यह कोई नयी बात नहीं है।  जीसस, बुध्द और सुकरात भी केवल राजनैतिक-धार्मिक सत्ताओं द्वारा ही नहीं अपने कई शिष्यों द्वारा भी गलत समझे गए थे। यह शायद इस मार्ग का नियम ही है। इसीलिए तो झेन में कहते हैं, 'गुरु सदा सडक पर मार दिया जाता है।' शायद अकसर तो उनके ही द्वारा जो उसे प्रेम करने का दावा करते हैं।
जब भी ओशो के किसी शिष्य ने कुछ आपत्तिजनक किया है तो मीडिया व जनता ने ओशो पर इलजाम  लगाया है। वे यह नहीं समझ पाते कि ओशो उन्हें नियंत्रित नहीं करते, और न ही ऐसा उनका कोई इरादा रहा है। ऊपर से किसी द्वारा किसीको नियंत्रित करने का प्रयास उनके संदेश के विपरीत जाता है।
जब भी ओशो के नाम पर कोई मूढता की गई है, उन्होनें अपना सिर झटककर केवल इतना कहा है, 'मुझे पता है वे थोडे बुद्धू हैं, पर उन्हें इससे गुजरना पडेगा।' इतनी स्वतंत्रता, इतनी सहिष्णुता को समझ पाना तो मानव अधिकारों की माला जपने वालों के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना कि किसी जडबुद्धि के लिए। लेकिन उस बाह्य व्यक्ति की भांति जो अभिभूत है कि किस प्रकार ओशो ने जीवन की गहनता को मस्ती दे दी है, मैं जानता हूं कि यदि हमें उस गंदगी से बाहर निकलना है जिसमें अपनी शक्ति की भूख और मालकियत की प्यास के चलते हम इस सुंदर ग्रह को ले आए हैं----तो हमें ओशो को समझना ही होगा। बस कामना करता हूं कि हम उन्हें अपनी अंधी परंपराओं के फिल्टर उतारकर सुनें।

डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा लिखित 'Bhagwan: The most Godless yet the most Godlly of men' की भूमिका,1987