Thursday, August 10, 2017

जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए

जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जाती

जिसे नितांत अकेले होने का साहस है, वही इस खोज पर जा भी सकता है।
मन तो हमारा यही करता है कि कोई साथ हो, कोई गुरु साथ हो, कोई मित्र साथ हो, कोई जानकार साथ हो, कोई मार्गदर्शक साथ हो, कोई सहयोगी साथ हो; अकेले होने के लिए हमारा मन नहीं करता।
लेकिन जब तक कोई अकेला नहीं हो सकता है, तब तक आत्मिक खोज की दिशा में इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
अकेले होने की सामर्थ्य, दि करेज टु बी अलोन, सबसे कीमती बात है।
हम तो दूसरे को साथ लेना चाहेंगे। महावीर को कोई निमंत्रण देता है आकर कि मुझे साथ ले लो, मैं सहयोगी बन जाऊंगा, तो भी वे सधन्यवाद वह निमंत्रण वापस लौटा देते हैं! कथा यह है कि देव इंद्र खुद कहता है आकर कि मैं साथ दूं, सहयोगी बनूं! तो वे कहते हैं, क्षमा करें, यह खोज ऐसी नहीं है कि कोई इसमें साथी हो सके, यह खोज तो नितांत अकेले ही करने की है।
क्यों? यह अकेले का इतना आग्रह क्यों है?
अकेले के आग्रह में बड़ी गहरी बातें हैं।
पहली बात तो यह है कि जब हम दूसरे का साथ मांगते हैं, तभी हम कमजोर हो जाते हैं। असल में साथ मांगना ही कमजोरी है। वह हमारा कमजोर चित्त ही है, जो कहता है साथ चाहिए। और कमजोर चित्त क्या कर पाएगा? जो पहले से ही साथ मांगने लगा, वह कर क्या पाएगा? तो पहली तो जरूरत यह है कि हम साथ की कमजोरी छोड़ दें।
और पूरी तरह जो अकेला हो जाता है--जिसके चित्त से संग की, साथ की मांग, समाज की, सहयोग की इच्छा मिट जाती है; यह बड़ी अदभुत बात है कि जो इस भांति अकेला हो जाता है, जिसे किसी के संग की कोई इच्छा नहीं है--सारा जगत उसे संग देने को उत्सुक हो जाता है! इस कहानी में जो दूसरा मतलब है, वह यह कि खुद देवता भी उत्सुक हैं उस व्यक्ति को सहारा देने को, जो अकेला खड़ा हो गया! जो साथ मांगता है, उसे तो साथ मिलता नहीं। नाम मात्र को लोग साथी हो जाते हैं, साथ मिलता नहीं। असल में मांग से कोई साथ पा ही नहीं सकता है।
लेकिन जो मांगता ही नहीं साथ, जो मिले हुए साथ को भी इनकार कर देता है, उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जाती हैं साथ देने को। कहानी तो काल्पनिक है, मिथ है, पुराण है, गाथा है, प्रबोध कथा है। वह कहती यह है कि जब कोई व्यक्ति नितांत अकेला खड़ा हो जाता है तो जगत की सारी शुभ शक्तियां उसको साथ देने को आतुर हो जाती हैं!

ओशो