Thursday, May 18, 2017

बच्चों को रोने से न रोकें…

मरते समय जैसी ही चाह करे, वैसा ही दूसरा जन्म

आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?

एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?

पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता है? मैं कुछ हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है, तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो। उसका भरोसा अपने पर पक्का है।

आत्म-विश्वास की जरूरत क्या है? क्यों परेशानी होती है कि आत्म-विश्वास नहीं है? क्योंकि तुलना है मन में कि दूसरा आदमी अपने पर ज्यादा विश्वास करता है, वह सफल हो रहा है; मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पाता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूं। वह इतना कमा रहा है; मैं इतना कम कमा रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है, राजधानी निकट आती जा रही है; मैं बिलकुल पीछे पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया हूं। आत्म-विश्वास कैसे पैदा हो? कैसे अपने को बलवान बनाऊं? क्या मतलब हुआ? आत्म-विश्वास का मतलब हुआ कि आप दूसरे से अपनी तुलना कर रहे हैं और इसलिए परेशान हो रहे हैं।

आप आप हैं, दूसरा दूसरा है। अगर आप जमीन पर अकेले होते, तो क्या कभी आपको पता चलता कि आत्म-विश्वास की कमी है? अगर आप अकेले होते पृथ्वी पर, तो क्या आपको पता चलता कि मुझमें हीनता का भाव है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है? कुछ भी पता न चलता। तब आप साधारण होते। साधारण का मतलब, आपको यह भी पता न चलता कि आप साधारण हैं। सिर्फ होते। जिसको यह भी पता चलता है कि मैं साधारण हूं, उसने असाधारण होना शुरू कर दिया। आप हैं, इतना काफी है। आत्म-विश्वास की जरूरत नहीं है, आत्मा पर्याप्त है। आप हैं। क्यों तौलते हैं दूसरे से?

ओशो

Wednesday, May 17, 2017

अवधूत का क्या अर्थ है?

*आपने बाबा मलूकदास को अवधूत कहा। अवधूत का क्या अर्थ है?*

अवधूत बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। अर्थ ऐसा है:

अ का अर्थ है--अक्षरत्व को उपलब्ध कर लेना; जो कभी मिटे नहीं;जो सदा है।

क्षण-भंगुर है संसार--अक्षर है परमात्मा। क्षण-भंगुर को छोड़कर शाश्वत की डोर पकड़ लेनी। शाश्वत का आंचल जिसके हाथ में आ गया, वही अवधूत। यह अवधूत के अ का अर्थ है।

हम तो पकड़े हैं--पानी के बुदबुदों को; पकड़ भी नहीं पाते कि फूट जाते हैं। हम तो दौड़ते हैं मृग-मरीचिका के पीछे। बार-बार हारते हैं, फिर-फिर उठते हैं, फिर-फिर दौड़ते हैं। हम अपनी हारों से कुछ सीखते नहीं। क्षण-भंगुर का भ्रम हम पर बहुत गहरा है। 

माया से जो जागे--क्षण की माया से जो जागे, वही अवधूत। यह पहला अर्थ। व का अर्थ है जो वरण करे अक्षर को--बात ही न करे। जो अक्षर को सोचे ही नहीं--जिये। जो अमृत को चिन्मय में नहीं--जीवन में जाने। जिसकी श्वास-श्वास में अक्षर का वरण हो जाए। पंडित न बन जाए, प्रज्ञावान बने।

यह दूसरों की उधार बात न हो--कि अक्षर है। यह अपना निज अनुभव हो; यह स्व-अनुभूति हो।

परमात्मा की बात तो बहुत करते हैं लोग; परमात्मा पर किताबें लिखी जाती हैं, लेकिन जो बड़ी बड़ी किताबें भी लिखते हैं परमात्मा पर, उनके जीवन में भी खोज कर परमात्मा की किरण शायद ही मिले।

परमात्मा का सिद्धांत मनोरम है, और उस सिद्धांत में बड़ी सुविधाएं हैं, और उस सिद्धांत को फैलाने के लिए काफी उपाय हैं। लेकिन अनुभव? अनुभव महंगी बात है; सिद्धांत सस्ती बात है।

परमात्मा को वरण तो वही करे, जो अपने को मिटाने को राजी हो। कहा कबीर ने--घर फूंकै जो आपना, चलै हमारे साथ। जिसकी तैयारी हो, आपने को राख कर लेने की, वही उसे वरण करे। उसके वरण करने में अहंकार का त्याग समाविष्ट है। छोड़ोगे अपने को, तो उसे पा सकोगे।

इसलिए अवधूत का दूसरा अर्थ है: अक्षर की बात ही न करे, अक्षर जिसके रोयें-रोयें में, श्वास-श्वास में समाया हो; अक्षर जिसकी सुगंध हो गया हो, जिसके जीवन का छंद हो गया हो।

और धू का अर्थ है: संसार को धूल समझे, असार समझे, ना-कुछ समझे। और यह समझ ऊपर-ऊपर न हो। यह समझ ऐसी न हो कि समझे तो ऊपर-ऊपर कि धूल है और भीतर-भीतर धूल को पकड़े। यह समझ वस्तुतः हो। यह परिधि से लेकर केंद्र तक फैल जाए। यह प्राणों के प्राण में समाविष्ट हो जाए। यह समझ जागने में रहे; उठने-बैठने में रहे; मंदिर में रहे, बाजार में रहे; हर घड़ी रहे। यह तुम्हारी छाया की तरह हो जाए--कि संसार धूल है। यह अवधूत का तीसरा अर्थ है। और स्वभावतः जो जानेगा कि परमात्मा सत्य है, वह जान ही लेगा कि संसार धूल है। ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

तो संसार को धूल समझे--वह अवधूत।

और चौथा अर्थ है: तत्वमसि; त का अर्थ है--तत्वमकस। जो ऐसा ही न समझे कि मैंने परमात्मा को जाना, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा को जीता हूं, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा हूं, बल्कि समझे कि सभी--प्रत्येक परमात्मा है। जो प्रत्येक को कह सके कि तुम भी वही हो। 

नहीं तो परमात्मा का अनुभव भी बड़ा अहंकार का आधार बन सकता है। मैं कहूं कि मैं परमात्मा हूं, तुम परमात्मा नहीं हो, तो यह खबर होगी कि मैं अवधूत नहीं। जो कहे: मैं परमात्मा हूं और दूसरा परमात्मा नहीं, उसे कुछ भी नहीं दिखा; उसकी आंखें अंधी हैं; उसके कान बहरे हैं। उसने न सुना है, न देखा है। उसने परमात्मा के सहारे अपने अहंकार की यात्रा शुरू कर दी है।

तो अवधूत का चौथा अर्थ है--तत्वमसि --तुम भी वही हो। और तुममें--ध्यान रहे--सब समाविष्ट है; पत्थर-पहाड़, वृक्ष-पौधे-पक्षी, स्त्री-पुरुष सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है।

तो मैं परमात्मा हूं--ऐसा जो जाने और साथ ही ऐसा भी जाने कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है--ऐसी चित्त-दशा का नाम है अवधूत। यह शब्द बड़ा प्यारा है।

_कन थोरे कांकर घने_

_ओशो_

Sunday, May 14, 2017

'ध्यान' तपश्चर्या में कितना सहयोगी है?

ध्यान ही तपश्चर्या है। आज मैंने सुबह या कल रात चर्चा भी किया। तपश्चर्या का हमको जो अर्थ पकड़ गया है, हमको मोटे अर्थ बहुत जल्दी पकड़े जाते हैं। जैसे, अभी मैं वहां गया, वहां इस पर बात हो रही थी--महावीर के उपवास, महावीर की तपश्चर्या महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक तपश्चर्या की। हमको लगता है तपश्चर्या की और मुझको लगता है तपश्चर्या हुई। और की और हुई में मैं बहुत फर्क कर लेता हूं।

एक साधु मेरे पास थे। वह मुझसे कहे कि मैं बड़े उपवास करता हूं। मैंने कहा, तुम जब तक उपवास करते हो, तब तक तपश्चर्या नहीं है। जब उपवास हो तब वह तपश्चर्या है। बोले, उपवास कैसे होगा? हम नहीं करेंगे तो होगा कैसे? हम करेंगे तभी तो होगा! मैंने उनसे कहा कि तुम ध्यान का थोड़ा प्रयोग करो तो अचानक कभी-कभी पाओगे कि उपवास हो गया। फिर बाद में, छह महीने बाद में वे मेरे पास गाए--हिंदू साधु थे--और उन्होंने कहा, जिंदगी मग पहली दफा एक उपवास हुआ। मैं सुबह पांच बजे उठकर ध्यान करने बैठा, उस वक्त अंधेरा था। जब मैंने वापस आंख खोली तो मैं समझा, अभी सुबह नहीं हुआ क्या? पूछने पर पता चला, रात हो गयी है। पूरा दिन बीत गया, मुझे तो समय का पता है, न किसी और बात का। उस दिन भोजन नहीं हुआ। उन्होंने मुझे आकर कहा, एक उपवास मेरा हुआ।

इसको मैं उपवास कहता हूं। हम जो करते हैं, वह अनाहार है, उपवास नहीं है। वह भोजन न करना है। यह उपवास है। उपवास का अर्थ है, उसके निकट वास। वह आत्मा के निकट वास है। उस वास में भोजन का स्मरण नहीं आएगा। तो, वह तो हुआ उपवास। और एक है अनाहार कि तुम खाना न खाएं। उसमें भोजन भोजन का ही स्मरण आएगा। वह तपश्चर्या की हुई, यह तपश्चर्या अपने से हुई। महावीर ने तपश्चर्या की नहीं, यह बात ही भ्रांत है। या कोई कभी तपश्चर्या करता है? सिर्फ अज्ञानी तपश्चर्या करते हैं। ज्ञानियों से तपश्चर्या होती है।

होने का अर्थ यह है कि उनका जीवन, उनकी पूरी चेतना कहीं ऐसी जगह लगी हुई है जहां बहुत सी बातों का हमें खयाल आता है, वह उन्हें नहीं आता। हम सोचते हैं कि वे त्याग कर रहे हैं और उनके कई बात यह है कि उनको स्मरण भी नहीं आ रहा। हम सोचते हैं उन्होंने बड़ी बहुमूल्य चीजें छोड़ दी। हम सोचते हैं, उन्होंने बड़ा कष्ट सहा। और वह हमारा मूल्यांकन में, भेद असल वैल्युएशन में हमारे और उनके अलग हैं। जिस चीज को महावीर सार्थक समझते हैं, हम उसे व्यर्थ समझते हैं। जिसको वे व्यर्थ समझते हैं, हम सार्थक सकते हैं। तो तब हम उनको हमारी दृष्टि से सार्थक को छोड़ते देखते हैं तो हम सोचते हैं, कितना कष्ट झेल रहे हैं, कितनी तपश्चर्या कर रहे हैं! और उनकी कई स्थिति बिलकुल दूसरी है। जो व्यर्थ है वह छूटता चला जा रहा है। 

महावीर ने घर छोड़ा--हां वह बिलकुल सहज छूट रहा है। तपश्चर्या करनी नहीं है, केवल ज्ञान को जगाना है। जो जो व्यर्थ है वह छूटता चला जाएगा। और दूसरों को देखेगा कि आप तपश्चर्या कर रहे हैं और आपका दिखेगा कि आप निरंतर ज्यादा आनंद को उपलब्ध होते चले जा हरे हैं। दूसरों को दिखेगा, बड़ा कष्ट सह रहे हैं और आपको दिखेगा हम तो बड़े आनंद को उपलब्ध होते चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे आपको दिखेगा, मैं तो आनंद को उपलब्ध हो रहा हूं, दूसरे लोग कष्ट भोग रहे हैं। और दूसरों को यही दिखेगा कि आप कष्ट उठा रहे हैं और वे आपके पैर छूने आएंगे और नमस्कार करने आएंगे कि आप बड़ा भारी कार्य कर रहे हैं। 

तपश्चर्या दूसरों को दिखाती है, स्वयं को केवल आनंद है। और अगर स्वयं को तपश्चर्या दिखती है तो अज्ञान है, और कुछ नहीं है। वह पागलपन कर रहा है और अगर उसको स्वयं को दिखता है कि मैं बड़ा तप कर रहा हूं और बड़ी तपश्चर्या और बड़ी कठिनाई तो वह बिलकुल पागल है, वह नाहक परेशान हो रहा है। और उसमें केवल उसका दंभ विकसित होगा, आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। 

_अमृत द्वार_

_ओशो_

चरीत्रवान से जयादा आत्मवान होना जरुरी है।

हां मुझे भी चरित्रहीन औरतें पसंद हैं... बेहद... बेहद.. खूबसूरत होतीं है वो। बेबाक, बेपर्दा, स्वतंत्र और उनमुक्त... कि उनका कोई चरित्र नहीं होता। केवल चरित्रहीन औरतें ही खूबसूरत होती हैं।

पिजरे में कैद चिड़िया कितनी भी रंगीन हो, सुन्दर नहीं लगतीं...
चाहे कोई कितनी भी कविताएं लिख ले उनपर।

क्या होता है चरित्र?
चरित्र गुलामी है, एक बंधन। वो शर्तों से तय होता है।
चरित्र गैर कुदरती है। प्रकृति विरोधी। अप्राकृतिक। चरित्र है, किसी तथ्य पर थोपीं गई शर्तें।

हवा का चरित्र क्या है? शांत, धीमे, तेज कि आंधी? गर्म, ठंडा या बर्फ?
पानी का चरित्र क्या है? और मिट्टी का चरित्र?  मूरत  या ईंट?

जो चरित्रहीन होते हैं, सुंदर वही होते हैं। आजाद लोग ही खूबसूरत होते हैं।
कोने में अपनी ही कुठाओं में दबी खामोश औरत चरित्रवान  औरत? या किसी खुले में अपने मन से ठहाके लगाकर हंसती चरित्रहीन औरत?...  कौन सुंदर है?

कौन है सुंदर?
वो जो चाहे तो आगे बढ़कर चूम ले।  बोल दे कि प्यार करती हूं? या वो, जो बस सोचती रहे असमंजस में और अपने मन का दमन किए रहे। दमित औरतें निसंदेह सुंदर नहीं होती, पर स्वतंत्र चरित्रहीन औरतें होती हैं खूबसूरत।

सोचना, जब अपनी टांगे फैलाई तुमने अपने पुरुष के सामने। अगर वो केवल पुरुष के लिए था तो ही वो चरित्र है। लेकिन वो तुम्हारे अपने लिए था तो चरित्रहीनता। अपने लिए, अपने तन और मन के लिए खुल कर जीती औरते सुन्दर लगती है। तुम उसे चरित्रहीन ही पुकारोगे।

बच्चे चरित्रहीन होते हैं...  उनका सबकुछ बेबाक... आजाद होता है। वो हंसते हैं खुलकर, रोते हैं खुलकर, दुख सुख, खुशी गम... सब साफ सामने रख देते हैं। वो दमन नहीं करते अपना।

चरित्र दमन है। पहले अपना, फिर अपनों का, फिर अपने समाज का। गौर करना, जो जितना चरित्रवान होता है, वो उतना ही दमित होता है, और फिर उतना ही बड़ा दमनकारी होता है।

हां, चरित्रहीन औरते सुंदर होती हैं।
वो, जिसका मन हो तो अपने पुरुष की हथेली अपने स्तनों तक खींच ले।
वो, जिसका मन हो तो वो अपने पुरुष को अपनी बांहों में जोर से भींच ले।

वो, जिसका मन करे तो रोटियां बेलते, नाच उठे।
वो जिसका मन करे तो जोर से गा उठे।
वो, जो चाहे तो खिलखिलाकर हंस सके।
वो जो चाहे तो अपने प्रिये की गोद में धंस सके।
वो, जो चाहे तो अपने सारे आवरण उतार फेंके।
वो, जो चाहे तो सारे कपड़े लपेट ले।
वो, जो चाहे तो अपने बच्चे को स्वतंत्रता से
अपना स्तन खोल दूध पिला सके, उसे दुलरा सके।

बच्चे को जन्म देते जब वो दर्द में चीखती है तो वो चरित्रहीनता है। आसपास की औरतें उसे चुप करातीं हैं। आवाज नहीं निकलाने की सलाह देती हैं। सारा दर्द खामोशी से सहने को कहती है। चरित्र का ये बंधन कबूल नहीं होना चाहिए। प्रसव पीड़ा... तकलीफ है, सृजन की तकलीफ... तो उससे धरती गूंजनी चाहिए।

अपने पुरुष के साथ उसके मदमस्त खेल का दमन भी गैरकुरदती है। इसे भी मुक्त होना चाहिए, उसे भी चरित्रहीनता होना चाहिए। सुना है कभी किसी औरत को अपने परमानंद के क्षणों में एकदम खुलकर गाते? क्यों नहीं बोल पाती वो, अपने भावों को स्वरों में?  क्योंकि ये उसे चरित्रहीना साबित करेगा।

पर ऐसी औरतें ही सुन्दर लगती हैं।

धरती की हर चीज का सुख लेते, अपने भीतर और बाहर हर चीज से खुलकर खुश होते.... प्यार में डूब सबकुछ से प्यार करती आजाद औरत। हां, उस चरित्रहीन औरत से खूबसूरत कुछ भी नहीं।

हां मुझे भी चरित्रहीन औरतें सुंदर लगती हैं. बस वही सुंदर होती हैं।
कुंठित, गिरहबंद, बंद चरित्रवान औरतें तो कुरूप होती है, बेहद बदसूरत, बनावटी।

मुझे कुदरत पसंद हैं और उससे चरित्रहीन कुछ भी नहीं, उसका कोई चरित्र नहींl
चरित्र के मायनेबंधा हुआ कैद जो मुझे नपसंद।

❤🙏 यह लेख है कृष्ण आनंद चौधरी का। वे वरिष्ट पत्रकार हैं।
मुझे भी लगता है,चरीत्रवान से जयादा आत्मवान होना जरुरी है।

मूर्खों को सुनाई दिया सिर्फ 'सम्भोग'.....

एक बुद्ध, एक कृष्ण या एक मिस्टिक का नाम लो, जिस पर मेरी किताब न हो.
कोई एक महान पुस्तक बताओ, जिस पर मेरे संवाद न हों.
एक सूफी, एक संत, एक दार्शनिक या एक वैज्ञानिक बताओ जिस पर मैंने न कहा हो.
कोई राधा, कोई सीता, कोई मीरा, कोई राबिया, कोई लल्ला, कोई मल्ली बता दो.
एक मनु, एक मार्क्स, एक लेनिन, एक फ्रायड, एक जुंग, एक एडलर बता दो.

मैं लगातार अस्तित्वगत चेतना और स्त्री-पुरुष के समग्र नाते पर बोला.
ध्यान-प्रेम-भक्ति और योग पर मैंने निरंतर कहा.
एक सच्चा कलाकार, एक कवि, एक लेखक नहीं जिस पर नहीं बोला.

लेकिन मूर्खों को सुनाई दिया सिर्फ 'सम्भोग'..
वह भी वैसा 'सम्भोग' यानी 'कुभोग' जिससे वे जन्मे हैं.

मगर विश्व-मनीषी सदा से मेरे साथ हैं, बुद्धों के साथ हैं, उन्हें सच्चाई और समझ से जीने के लिए अब मेरी जरुरत नहीं है, उन्हें अपना दीया स्वयं जलाना आता है.

मैं राजनेताओं की भांति मूढ़ बहुमत को प्रसन्न करने नहीं आया हूँ. मैं निर्दोष, साहसी और सच्चे लोगों के लिए आया हूँ.
सत्य और चेतनापथ- चालाक और मूढ़ लोगों के लिए नहीं है. उन्हें नरक चाहिए, वे उसी के पात्र हैं..

~ओशो~

चौथी बार विवाह करना चाहता हु

मैं पचपन वर्ष का हूं। जीवन में तीन बार विवाह हुआ और हर बार पत्नी की मृत्यु हो गयी। लेकिन अभी भी स्त्री के प्रति मन ललचाता है। मैं क्या करूं?...

ओशो-
क्या चौथी स्त्री को मारने का विचार है?

अब तो जागो! परमात्मा ने तीन तीन बार इशारा किया, तुम्हारे कारण तीन स्त्रिया विदा हो गयीं, और तुम अभी भी ललचा रहे हो! चौथी पर नजर खराब है! एक समय है, तब सब सुंदर है। अब तुम पचपन के हुए! अब कुछ और भी करोगे यही घर घुले बनाते रहोगे? और तुम सौभाग्यशाली हो! तुमने तो तीन तीन बार झंझट ली, परमात्मा ने तुम्हें तीन तीन बार झंझट से बाहर कर दिया। तुम स्वाभाविक संन्यासी हो, अब और क्यों झंझट में पड़ते हो? कहावत तुमने सुनी नहीं कि भगवान जब देता है, छप्पर फाड़ कर देता है। तुमको छपर फाड़ कर देता रहा। और क्या चाहते हो?
और तीन तीन स्त्रियों से अनुभव पर्याप्त नहीं हुआ? क्या पाया? सुख पाया सुख यहां कोई भी दूसरे से पाता नहीं। न पति पत्नी से पाता है, न पत्नी पति से पाती है। दूसरे से सुख कभी मिला है! सुख अंतभार्व है। भीतर से उमगता है। और जो अपने से पा लेता है, वह पत्नी से भी पा लेते है, बेटे से भी पा लेते है। पिता से भी पा लेते है, मां से भी पा लेता है। और कोई भी नहीं होता तो अकेले में भी पाता है। उसके भीतर ही उमग रहा है। और जो अपने से नहीं पा सकता, वह किसी से भी नहीं पा सकता। जो तुम्हारे भीतर नहीं है उसे तुम किसी से भी पा न सकोगे।
जीसस का प्रसिद्ध वचन है। जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा, और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छिन लिया जाएगा जो उनके पास है।
भीतर सुख चाहिए, भीतर शांति चाहिए, भीतर उल्लास चाहिए बस फिर और बढ़ता जाता है। फिर हर हालत में बढ़ता है; साथ रहो, संग रहो, अकेले रहो, बाजार में रहो, भीड़ में रहो—कहीं भी रहो—घर में रहो, घर के बाहर रहो, मंदिर में रहो, जहां रहना हो रहो, फिर सुख बढ़ता है तो बढ़ता चला जाता है। खोजना वहां है। जब तक तुम दूसरे में सुख खोज रहे हो तब तक तुम भ्रांति में पड़े हो। दूसरा तुम में खोज रहा है, तुम दूसरे में खोज रहे हो, दोनों भिखमंगे हो। न उसके पास है। उसके ही पास होता तो तुममें खोजने आता! ये तीन स्त्रिया जो तुम्हें खोजती चली आयीं और मारी गयीं, इनके पास सुख होता तो तुमको खोजती? तुम किस में खोज रहे थे? जो तुम में खोजने आया, उसमें तुम खोज रहे हो! जिसके हाथ तुम्हारे सामने भिक्षापात्र की तरह फैले हैं, उसके सामने तुम भी अपना भिक्षापात्र फैला रहे हो! भिखमंगे भिखमंगे के सामने खड़ा हैं! फिर अगर जीवन में सुख नहीं मिलता, तो आश्चर्य क्या है?
माँगे से नहीं मिलता सुख जागे से मिलता है। सुख का सृजन करना होता है। सुख तुम्हारे प्राणों का संगीत है। जैसे वीणा पर कोई तार छेड़ देता है, ऐसे ही जब तुम अपनी अंतर्वीणा को छेड़ते हो, जब उस कला को सीख लेते हो, उसी कला का नाम प्रार्थना है, उसी कला का नाम ध्यान, उसी कला का नाम भजन, उसी कला का नाम भक्ति, ये सब उसी के नाम हैं। वीणा तो मिली है जन्म के साथ, लेकिन कला सीखनी पड़ती है। वह किसी सदगुरु के पास सीखनी पड़ेगी। किसी ऐसे के पास सीखनी पड़ेगी जिसने अपनी वीणा बजा ली हो। बाहर की वीणा भी सीखने जाते हो, किसी उस्ताद के चरणों में बैठना पड़ता है। भीतर की वीणा तो तुम्हें मिली है, वह परमात्मा की भेंट है उसी वीणा का नाम जीवन है मगर उसी वीणा को कैसे बजाएं, यह पता नहीं है। और जब तक वह वीणा बजे तक तक तृप्ति नहीं है। अतृप्ति अनुभव होती है, तुम बाहर तड़पते हो, भागते हो इससे मिल जाए, उससे मिल जाए, तुम दौड़ते रहते हो, दौड़ते रहते हो जिंदगी भर, और वीणा तुम्हारे भीतर पड़ी है, और संगीत वहा पैदा होना था, और वही संगीत पैदा हो जाता तो सब संतुष्टि हो जाती। मगर वहां तुम जाते नहीं। वहा तुम आंख भी ले जाने से ड़रते हो, क्योंकि वह नंगी पड़ी वीणा तुम्हें बड़ा बेचैन कर देती है। तुम समझ ही नहीं पाते क्या है। वे तार तुम्हारी समझ में नहीं आते। और अगर कभी तुम उन्हें छेड़ते हो तो सिर्फ बेसुरापन पैदा होता है, क्योंकि कला तुम्हें नहीं आती।

अथतो भक्ति जिज्ञासा
ओशो