Wednesday, March 22, 2017

पूर्ण कश्यप की कहानी

*सारा खेल मन का है, कैसे हम देखते हैं!*

बुद्ध का एक शिष्य हुआ पूर्ण कश्यप। वह निश्चित ही पूर्ण हो गया था, इसलिए उसे बुद्ध पूर्ण कहते हैं। फिर एक दिन बुद्ध ने उससे कहा कि पूर्ण, अब तू पूर्ण सच में ही हो गया। अब मेरे साथ-साथ डोलने की कोई जरूरत न रही। अब तू जा। अब तू गांव-गाव, नगर-नगर घूम और डोल। मेरी खबर ले जा। मेरे पास तूने जो पाया है, उसे लुटा।

पूर्ण ने कहा : भगवान, किस दिशा में जाऊं? आप इशारा कर दें। बुद्ध ने कहा : तू खुद ही चुन ले। अब तू खुद ही समर्थ है। अब मेरे इशारे की भी कोई जरूरत न रही।

तो पूर्ण ने कहा कि जाऊंगा–‘सूखा’ नाम का एक इलाका था बिहार में-वहां जाऊंगा। बुद्ध ने कहा, तू खतरा मोल ले रहा है। वह जगह भली नहीं। लोग सज्जन नहीं। लोग बड़े दुष्ट हैं और लोग सताने में रस लेते हैं। लोग तुझे परेशान करेंगे। इन पीत-वस्त्रों में उन्होंने भिक्षु कभी देखा नहीं। वे बड़े जंगली हैं। तू वहा मत जा।

पर पूर्ण ने कहा, इसीलिए तो उनको मेरी जरूरत है। किसी को तो जाना ही होगा। कब तक वे जंगली रहें? कब तक उनको पशुओं की तरह रहने दिया जाए? मुझे जाना होगा। आज्ञा  दें।

बुद्ध ने कहा, जा; मगर मेरे दो-तीन सवालों के जवाब दे दे। पहला  अगर वे तुझे गालियां दें, अपमान करें, तो तुझे क्या होगा ‘ तो पूर्ण ने कहा, यह भी आप मुझसे पूछते हैं, क्या होगा? आप भलीभांति जानते हैं कि मैं प्रसन्न होऊंगा। क्योंकि मेरे मन में यह भाव उठेगा, कितने भले लोग हैं, सिर्फ गालियां देते हैं, मारते नहीं। मार भी सकते थे।

बुद्ध ने कहा, ठीक। मगर अगर मारे न, मारने ही लगें, तो तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा, आप पूछते हैं? आप भलीभांति जानते हैं कि पूर्ण प्रसन्न होगा, कि धन्यभाग कि मारते हैं, मार ही नहीं डालते। मार भी डाल सकते थे।

बुद्ध ने कहा, आखिरी सवाल, पूर्ण। अगर मार ही डालें, तो मरते वक्त तेरे मन में क्या होगा? पूर्ण ने कहा, आप, और पूछते हैं? आपको भलीभांति मालूम है कि जब मैं मर रहा होऊंगा तो मेरे मन में होगा, धन्यभाग, उस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी।

बुद्ध ने कहा, अब तू जा। अब तुझे जहां जाना है, तू जा। अब तुझे कोई गाली नहीं दे सकता। अब तुझे कोई मार नहीं सकता। अब तुझे कोई मार डाल नहीं सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे गाली न देंगे; गाली तो वे देंगे, लेकिन तुझे अब कोई गाली नहीं दे सकता। ऐसा नहीं कि वे तुझे मारेंगे नहीं; मारेंगे, लेकिन तुझे अब कोई मार नहीं सकता। और कौन जाने, कोई तुझे मार भी डाले; लेकिन अब तू अमृत है। अब तेरी मृत्यु संभव नहीं।

 

‘उसने मुझे डांटा, उसने मुझे मारा, मुझे जीत लिया, मेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में नहीं बनाए रखते हैं, उनका वैर शांत हो जाता है।’


ओशो 

*इस युग को कृष्ण की जरूरत है*


इस बात को स्मरण रखो कि जिसके पास बड़ा संकल्प है, उसी के पास बड़ा समर्पण होगा; जिसके पास पका हुआ अहंकार है, वही तो चरणों में झुकने की क्षमता पाता है।

इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम अहंकार को काटो, गलाओ। मैं कहता हूं पकाओ, प्रखर करो, तेजस्वी करो; तुम्हारा अहंकार जलती हुई एक लपट बन जाए; तभी तुम समर्पण कर सकोगे। तुमसे मैं यह नहीं कहता हूं कि तुम काहिल होकर गिर जाओ पैरों में, क्योंकि खड़े होने की ताकत ही न थी। ऐसे गिरे हुए का क्या मूल्य होगा? खडे हो ही न सकते थे, इसलिए गिर गए! सिर उठा ही न सकते थे, इसलिए झुका दिया। ऐसे पक्षाघात और लकवे से लगे लोगों के समर्पण का कोई भी मूल्य नहीं है।

मूल्य तो उसी का है, जिसने सिर को उठाया था और उठाए चला गया था, और सब आकाशों में सिर को उठाए खड़ा रहा था। बल था, बडे तूफान आए थे और सिर नहीं झुकाया था; बड़ी आधियां आई थीं और इंचभर हिला न सकी थीं। संसार में लड़ा था, जूझा था।

अर्जुन जैसा अहंकार चाहिए! योद्धा का अहंकार चाहिए! इसलिए जब अर्जुन झुकता है, तो क्षणभर में महात्मा हो जाता है।

अब तक संजय अर्जुन को महात्मा नहीं कहता, आज अचानक अर्जुन महात्मा हो गया! इस आखिरी घड़ी में, पटाक्षेप होने को है, गीता अध्याय समाप्त होने को है, अचानक अर्जुन महात्मा हो गया! क्या घटना घटी? वही ऊर्जा जो योद्धा बनाती थी, वही अब समर्पित हो गयी।

तुम यह मत सोचना कि अर्जुन की जगह अगर कोई दुकानदार होता, तो इतनी आसानी से महात्मा हो जाता। नहीं; वह अपने हिसाब लगाता। वह गणित बिठाता। वह देखता कि फायदा किस में है। जीवन दाव पर न लगता। वह इतनी सरलता से न कहता, जो आपकी आज्ञा!

ऐसा नहीं कि अर्जुन लड़ा नहीं; लड़ा; लड़ा तभी तो कह सका; लड़ा, जूझा; कृष्ण से उसने कोई कमी नहीं रखी लड़ने में। वह सब तरफ से उसने संघर्ष लिया; सब तरफ से कोशिश की अपनी ही बात पर अडिग रहने की। लेकिन जब पाया कि अपनी बात गलत है; जब सब तरफ से पाया, छिद्र ही छिद्र हैं; नाव सब तरफ से बचाने की उसने कोशिश की, लेकिन न बचा पाया; नाव डूब गयी; तो झुका। यह झुकना ऐसा ही नहीं है कि बस, झुक गया औपचारिकता से। नहीं;संघर्ष किया, अपने संकल्प को बचाए रखने की कोशिश की; कृष्ण को जल्दी और सरलता से झुक नहीं गया। झुका तब, जब झुकने के सिवाय उपाय ही न रहा। जब संकल्प ने ही बता दिया कि यही मार्ग है; जब अहंकार ने ही पककर कह दिया कि अब फल को गिरना चाहिए; पक गया, पक गया, अब कोई कच्चा नहीं है; तब गिरा।

इसलिए कहता हूं, इस युग को कृष्ण की जरूरत है। अहंकार पक गया है। संकल्प प्रगाढ़ हुआ है। मनुष्य के हाथ में बड़ी ऊर्जा है। यह ऊर्जा नर्क ले जाएगी। यह ऊर्जा पृथ्वी को हिरोशिमा और नागासाकी में बदल देगी। अगर जल्दी ही इस ऊर्जा का रूपांतरण न हुआ, अगर यह ऊर्जा संकल्प से हटकर समर्पण की तरफ न बही, तो यह रेगिस्तान में खो जाएगी, मरुस्थल में खो जाएगी। इसके साथ आदमी भी खो जाएगा। एक महा अग्नि होगी, महा विस्फोट होगा।

मनुष्य की प्रौढ़ता पकी है, और कृष्ण के संदेश की ऐसे क्षण में जरूरत है।

गीता दर्शन 

ओशो