Sunday, December 3, 2017

एक कदम

[11/19, 4:00 PM] Shashikant Joshi: कभी कभी लगता है सब भाग रहे है...
कोई पद के लिए, कोई प्रतिष्ठा के लिए तो कोई खुद को अलग साबित करने के लिए। सबकुछ खुद के अहंकार को बढ़ावा देने के लिए !
कभी कभी लगता है क्या है जिंदगी???
बस रोज उठो, रोज काम करो, व्हाट्सएप्प फेसबुक करो, बातें , आदी ! लगता है उम्र बीत रही है बेवजह !!  सब बाहरकी ओर जाते हुए, बस ध्यान ही अंदर शांति देता हुआ ! 24 घंटों में से कुछ पल ही बचते है अपने लिए ! इसलिए 1 घंटा तो जरूर निकाले !


स्वामी ध्यान धीरज
[11/20, 8:59 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने का*✨
(आज से इस टाइटल से हर दिन मैंने सुना हुआ प्रवचन पोस्ट किया जाएगा, आप भी जरूर सुने और जागे !)

आज का प्रवचन 20-11-17
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*पंचमहावृत्त भाग 5*

आदमी 7 मंजिलों का मकान है
पर जीता सिर्फ एक मंजिल में.
सोया हुआ जीता है आदमी.
जरुर सुने *जागने के संबंध में* एक प्रभावी प्रवचन !

स्वामी ध्यान धीरज ✨

🙏
[11/21, 8:58 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने का*

आजका प्रवचन
*शिक्षा में क्रांति 4*

*शिक्षकों के लिए जरूरी....*
🍃
*जब आप एक बच्चे को कहते हो तुम गधे हो तुम नासमझ हो, उसे देखो कितना होशियार है कितना आगे है...क्या दुनिया मे दो आदमी एक जैसे हो सकते है....*

जाने कैसे तराशे खुदको भी औऱ बच्चों को भी
*Dowload Full clip here*
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https://drive.google.com/file/d/1iaz5Gpzd7eHH2NfPVtihxOFousEEaeCv/view?usp=drivesdk

ऑडियो के कुछ अंश
✨शिक्षक और समाज के संबंध हमेशा खतरनाक साबित हुए है शिक्षक गुलाम है और समाज मालिक

✨शिक्षक में विद्रोह की ज्वलंत भावना होनी चाहिए !

✨पुराना ही हम फिर से बो रहे है बच्चोंमें ! प्रतियोगिता सीखा रहे है हम !

जरूर सुने यह पूरा ऑडियो (6MB)


*स्वामी ध्यान धीरज*
[11/22, 9:39 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने की ओर*✨

            Day 3⃣

आज का प्रवचन (ध्यान)

*7 चक्रों को जगाने का ध्यान*
आवाज: हरप्रीत कौर

एक अनोखा ध्यान
लगातार 21 दिन करने से अद्भुत फायदे...
हर चक्र को जगाने की विधि

Caution:
1.पहले ही हेडफोन में न सुने, उस से पहले साउंड पे सुने

2.बहोत ही प्यार से ध्यान की सूचनाएं दी है पर चक्रों के रंगों की आवाज से डर लग सकता है इसलिए हेडफोन में आवाज धीमी रखे !
[11/23, 8:36 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने की ओर*

आजका प्रवचन
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कुछ भी पा सकते हो इस मंत्र से

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जय ओशो
[11/24, 9:40 PM] Shashikant Joshi: 👆
*एक कदम जागने की ओर*

आज का प्रवचन

*3 महीने धैर्य से करे यह प्रयोग, अद्भुत फायदे मिलेंगे*

🔆
जय ओशो
[11/26, 9:23 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने की ओर*

आज का audio
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अल्ला हु song
(My संन्यास song)

And

BEST ध्यान music
(Just wear हैडफ़ोन and sit)
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[11/28, 8:38 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने की ओर*✨
👣
Audio 12.08

जीवन रसपूर्ण है भी नही फिर मृत्यु का भय क्यों है...
भीतर तुम मानते हो रस है...
तुम्हारा बोध सघन नाही हुआ...
जीवन से आशा है तुम्हे...

थोड़ा और भटको... खोजो गहराई तक
बुद्ध कहते है जीवन दुख है
पर
जब तक तुम्हे अनुभव न आए तब तक कुछ न होगा...

*दूसरों के अनुभव से कुछ न सीखोगे; बुद्ध भी गलत हो सकते है ! खुद जानना !*
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[11/30, 6:16 AM] Shashikant Joshi: *भगवान आप तो प्रेम देते है पर लोग आपको गालियां है
क्यो?*
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प्रेम जब बहोत बढ़ता है
लोग गालियां देते है...

जब मित्र कहे कि
आप आइए, विराजिये पधारिए आप बैठिए तो वह मित्रता नही !
[11/30, 8:59 PM] Shashikant Joshi: *एक कदम जागने की ओर*
👣 🅞🅢🅗🅞🅦🅞🅡🅛🅓

आज का audio 18.36
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*नया क्या है इस जिंदगी में*
फिर वही वही दोहरता चला जाता है...

हर अनुभव से इत्र निकालो...
सार निचोड़ लो...
बुद्धिमान आदमी शास्त्रों से नही बनता...
जीवन सभी को एकसा..

Story:
आदमि के संबंध में सबसे आश्चर्यचकित करने वाला क्या है?

जबरदस्त उत्तर जरूर सुनिये !

Sunday, September 17, 2017

मृत्यु के देवता Story

Story of the week
मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं–तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकियह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।नानक जो कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।

Friday, September 1, 2017

प्रेम(Love)की स्पष्ट व्याख्या क्या है

आज मैं आप सब को प्रेम(Love)की व्याख्या करती हूँ प्रेम-नफरत ' ईर्ष्या ' द्वेष का विरोधी है और भक्ति का एक रूप है चूँकि आज प्रेम का निम्न  स्तर पर इस्तेमाल होने से उसकी सुगंध दुर्गंध मे बदल गई हैं प्रेम की ताकत उसकी कमजोरी बन गई है इसलिए अब प्रेम का जादू बेअसर हो गया है आज प्रेम प्रार्थना बनाने की बजाय वासना बन कर रह गई हैं अब प्रेम का इजहार दूषित नजरों से देखा जाने लगा है इसलिए प्रेम की तड़प अब एक दुःख बनकर रह गई जो आपके लिए महाआनंद सकती थीं-

प्रेम(Love)की स्पस्ट व्याख्या क्या है

प्रेम(Love)की अग्नि शीतल अग्नि न बनकर बल्कि नरक की आग  बन गई आज प्रेम का करिश्मा खोखला बनकर रह गया और प्रेम की नगरी पैसों का व्यापार बन गई है प्रेम की गीत मन-भंजन नहीं बना बल्कि आज ये भजन मनोरंजन के साधन बन गए है-

प्रेम का अमृत अंधश्रद्धा की मदिरा और बेहोशी का साधन बन गया जबकि प्रेम का बल जो सेवा बन सकता था आज वह निजी स्वार्थ बन गया है प्रेम(Love)की याद निराकार की ओर ले जाने की बजाय अहंकार की पुष्टि बन गई है और अब प्रेम का अनुभव पूर्णता खो चुका है-

आज प्रेम का स्वाद इंद्रियों मे फँस कर रह गया है जो है ध्यान 'ज्ञान' समझ  ' प्रेम (भक्ति) प्रार्थना और छमा नफरत 'ईर्ष्या' द्वेष से मुक्ति पाने के लिए इंसान को प्रेम, भक्ति और छमा का वरदान दिया गया है नफरत अगर रोग है तो छमा इसकी दवा है-

संतों की शिक्षा में प्रेम 'भक्त ' और छमा को हमेशा से महत्व दिया गया है प्रेम ही ईश्वर हैं और ईश्वर ही प्रेम हैं प्रेम में कोई शर्त नहीं होती हैं प्रेम में पहला भाव लेना-देना का आता है कि-मैं प्रेम लूँ जितना मिल सकता हैं उतना लूँ-रिश्ते जब शुरू होते है तब बच्चे माता पिता से कहते है ये चाहिए, वो चाहिए,बच्चे माँगते ही रहते है बच्चे केवल अपने बारे मे सोचते है वे किसी के बारे मे नही सोचते है और मां को भी ये अच्छा लगता हैं क्योंकि उस प्रेम में मोह , आसक्ति और चिपकाव हैं-

जब कोई बहुत प्रेम अभिव्यक्त करता हैं तो अक्सर उस पर कैसे प्रतिक्रिया करना या आभार व्यक्त करना आपको समझ में नहीं आता है सच्चे प्रेम को पाने की क्षमता प्रेम को देने या बाँटने से आती हैं जितना आप अधिक केंद्रित होते हे उतना अपने अनुभव के आधार पर यह समझ पाते हैं कि प्रेम सिर्फ एक भावना नहीं हैं वह आपका शाश्वत आस्तित्व हैं फिर चाहे कितना भी प्रेम किसी भी रूप में अभिव्यक्त किया जाए आप अपने आप को स्वयं में पाते हैं-

प्रेम जो आकर्षण से मिलता हैं वह बस क्षणिक होता हैं क्युकी वह अनभिज्ञ या सम्मोहन की वजय से होता हैं इसमें आपका आकर्षण से जल्दी ही मोह भंग हो जाता हैं और आप ऊब जाते हैं यह प्रेम धीरे धीरे कम होने लगता हैं और भय, अनिश्चिता, असुरक्षा और उदासी सा लाता हैं-

जो प्रेम सुख सुविधा से मिलता हैं वह घनिष्टता लाता हैं परन्तु उसमे कोई जोश, उत्साह , या आनंद नहीं होता हैं उदहारण के लिए आप एक नवीन मित्र की तुलना में अपने पुराने मित्र के साथ अधिक सुविधापूर्ण महसूस करते हैं क्युकी वह आपसे परिचित हैं उपरोक्त दोनों को दिव्य प्रेम पीछे छोड़ देता हैं  यह सदाबहार नवीनतम रहता हैं आप जितना इसके निकट जाएँगे उतना ही इसमें अधिक आकर्षण और गहनता आती हैं इसमें कभी भी उबासी नहीं आती हैं और यह हर किसी को उत्साहित रखता हैं-

सांसारिक प्रेम सागर के जैसा हैं परन्तु सागर की भी सतह होती हैं दिव्य प्रेम आकाश के जैसा हैं जिसकी कोई सीमा नहीं हैं अक्सर लोग पहली नज़र में प्रेम को अनुभव करते हैं फिर जैसे समय गुजरता हैं, यह कम और दूषित हो जाता हैं और घृणा में परिवर्तित होकर गायब हो जाता हैं जब वही प्रेम वृक्ष बन जाता हैं जिसमे ज्ञान की खाद डाली गई हो तो वह प्राचीन प्रेम का रूप लेकर जन्म जन्मांतर साथ रहता हैं वह हमारी स्वयं की चेतना हैं  आप इस वर्तमान शरीर, नाम, स्वरूप और संबंधो से सीमित नहीं रहते हैं-

जब प्रेम को चोट लगती हैं तो वह क्रोध बन जाता हैं जब वह विक्षोभ होता हैं तो वह ईर्ष्या बन जाता हैं,जब उसका प्रवाह होता हैं तो वह करुणा हैं और जब वह प्रज्वलित होता हैं तो वह परमान्द बन जाता हैं प्यार या प्रेम एक अहसास है तथा प्यार अनेक भावनाओं का और रवैयों का मिश्रण है जो पारस्परिक स्नेह से लेकर खुशी की ओर विस्तारित है ये एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना है-

प्रेम किसी की दया, भावना और स्नेह प्रस्तुत करने का तरीका भी माना जा सकता है खुद के प्रति, या किसी जानवर के प्रति, या किसी इन्सान के प्रति स्नेहपूर्वक कार्य करने या जताने को प्यार कह सकते हैं तभी तो कहते हैं कि अगर प्यार होता है तो हमारी ज़िन्दगी बदल जाती हैं-

रिश्तेदारी, दोस्ती, रोमानी इच्छा और दिव्य प्रेम-

वैसे आजकल तो प्यार को अक्सर वासना के साथ तुलना की जाती है और पारस्परिक संबध के तौर पर रोमानी अधिस्वर के साथ तोला जाता है, प्यार दोस्ती यानी पक्की दोस्ती से भी तोला जाता हैं आम तौर पर प्यार एक एहसास है जो एक इन्सान दूसरे इन्सान के प्रति महसूस करता है पुराने जमाने में लोग गुप्त रूप से प्यार करते थे और गंधर्व विवाह भी करते थे(गंधर्व विवाह यानी कि दो प्राणियों के अलावा कोई नहीं जाने)

जैसे फुलो की शुरुआत कली से होती हैं जिन्दगी की शुरुआत प्यार से होती हैं और प्यार की शुरुआत अपनों से होती हैं और प्रेम का मतलब वह.भावना जो आपको आप के घर से शुरुआत करनी होती हैं अपनी मां, बहन, भाई, पिता, अपनी दिनचर्या अगर आप ने अपने इन सभी का सम्मान करना नहीं सीखा है तो फिर आप संसार में किसी को भी प्रेम नहीं कर सकते है-प्रेम माँगता हैं और आपको देना है  इसलिए देना सीखें तभी तो आपको भी मिलेगा ये "वास्तविक प्रेम"
                     
इसलिए स्बार्थ और प्यार मे उतना ही अन्तर है जितना "काँच और कंचन"

प्रस्तुति-

निर्मला मिश्रा

Thursday, August 10, 2017

जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए

जो मांगता ही नहीं ,उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जाती

जिसे नितांत अकेले होने का साहस है, वही इस खोज पर जा भी सकता है।
मन तो हमारा यही करता है कि कोई साथ हो, कोई गुरु साथ हो, कोई मित्र साथ हो, कोई जानकार साथ हो, कोई मार्गदर्शक साथ हो, कोई सहयोगी साथ हो; अकेले होने के लिए हमारा मन नहीं करता।
लेकिन जब तक कोई अकेला नहीं हो सकता है, तब तक आत्मिक खोज की दिशा में इंच भर भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
अकेले होने की सामर्थ्य, दि करेज टु बी अलोन, सबसे कीमती बात है।
हम तो दूसरे को साथ लेना चाहेंगे। महावीर को कोई निमंत्रण देता है आकर कि मुझे साथ ले लो, मैं सहयोगी बन जाऊंगा, तो भी वे सधन्यवाद वह निमंत्रण वापस लौटा देते हैं! कथा यह है कि देव इंद्र खुद कहता है आकर कि मैं साथ दूं, सहयोगी बनूं! तो वे कहते हैं, क्षमा करें, यह खोज ऐसी नहीं है कि कोई इसमें साथी हो सके, यह खोज तो नितांत अकेले ही करने की है।
क्यों? यह अकेले का इतना आग्रह क्यों है?
अकेले के आग्रह में बड़ी गहरी बातें हैं।
पहली बात तो यह है कि जब हम दूसरे का साथ मांगते हैं, तभी हम कमजोर हो जाते हैं। असल में साथ मांगना ही कमजोरी है। वह हमारा कमजोर चित्त ही है, जो कहता है साथ चाहिए। और कमजोर चित्त क्या कर पाएगा? जो पहले से ही साथ मांगने लगा, वह कर क्या पाएगा? तो पहली तो जरूरत यह है कि हम साथ की कमजोरी छोड़ दें।
और पूरी तरह जो अकेला हो जाता है--जिसके चित्त से संग की, साथ की मांग, समाज की, सहयोग की इच्छा मिट जाती है; यह बड़ी अदभुत बात है कि जो इस भांति अकेला हो जाता है, जिसे किसी के संग की कोई इच्छा नहीं है--सारा जगत उसे संग देने को उत्सुक हो जाता है! इस कहानी में जो दूसरा मतलब है, वह यह कि खुद देवता भी उत्सुक हैं उस व्यक्ति को सहारा देने को, जो अकेला खड़ा हो गया! जो साथ मांगता है, उसे तो साथ मिलता नहीं। नाम मात्र को लोग साथी हो जाते हैं, साथ मिलता नहीं। असल में मांग से कोई साथ पा ही नहीं सकता है।
लेकिन जो मांगता ही नहीं साथ, जो मिले हुए साथ को भी इनकार कर देता है, उसके लिए सारे जगत की शुभ शक्तियां आतुर हो जाती हैं साथ देने को। कहानी तो काल्पनिक है, मिथ है, पुराण है, गाथा है, प्रबोध कथा है। वह कहती यह है कि जब कोई व्यक्ति नितांत अकेला खड़ा हो जाता है तो जगत की सारी शुभ शक्तियां उसको साथ देने को आतुर हो जाती हैं!

ओशो

Thursday, May 18, 2017

बच्चों को रोने से न रोकें…

मरते समय जैसी ही चाह करे, वैसा ही दूसरा जन्म

आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?

एक मित्र ने पूछा है कि मुझमें आत्मविश्वास नहीं है; वह कैसे पैदा हो?

पैदा करना ही मत। आत्म-विश्वास पैदा करने का मतलब ही क्या होता है? मैं कुछ हूं! मैं कुछ करके दिखा दूंगा! आत्म-विश्वास का मतलब यह होता है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं। और हूं ही नहीं, सिद्ध कर सकता हूं। सभी पागल आत्म-विश्वासी होते हैं। पागलों के आत्म-विश्वास को डिगाना बहुत मुश्किल है। अगर एक पागल अपने को नेपोलियन मानता है, तो सारी दुनिया भी उसको हिला नहीं सकती कि तुम नेपोलियन नहीं हो। उसका भरोसा अपने पर पक्का है।

आत्म-विश्वास की जरूरत क्या है? क्यों परेशानी होती है कि आत्म-विश्वास नहीं है? क्योंकि तुलना है मन में कि दूसरा आदमी अपने पर ज्यादा विश्वास करता है, वह सफल हो रहा है; मैं अपने पर विश्वास नहीं कर पाता, मैं सफल नहीं हो पा रहा हूं। वह इतना कमा रहा है; मैं इतना कम कमा रहा हूं। वह सीढ़ियां चढ़ता जा रहा है, राजधानी निकट आती जा रही है; मैं बिलकुल पीछे पड़ा हुआ हूं। पिछड़ गया हूं। आत्म-विश्वास कैसे पैदा हो? कैसे अपने को बलवान बनाऊं? क्या मतलब हुआ? आत्म-विश्वास का मतलब हुआ कि आप दूसरे से अपनी तुलना कर रहे हैं और इसलिए परेशान हो रहे हैं।

आप आप हैं, दूसरा दूसरा है। अगर आप जमीन पर अकेले होते, तो क्या कभी आपको पता चलता कि आत्म-विश्वास की कमी है? अगर आप अकेले होते पृथ्वी पर, तो क्या आपको पता चलता कि मुझमें हीनता का भाव है, इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स है? कुछ भी पता न चलता। तब आप साधारण होते। साधारण का मतलब, आपको यह भी पता न चलता कि आप साधारण हैं। सिर्फ होते। जिसको यह भी पता चलता है कि मैं साधारण हूं, उसने असाधारण होना शुरू कर दिया। आप हैं, इतना काफी है। आत्म-विश्वास की जरूरत नहीं है, आत्मा पर्याप्त है। आप हैं। क्यों तौलते हैं दूसरे से?

ओशो

Wednesday, May 17, 2017

अवधूत का क्या अर्थ है?

*आपने बाबा मलूकदास को अवधूत कहा। अवधूत का क्या अर्थ है?*

अवधूत बड़ा महत्वपूर्ण शब्द है। अर्थ ऐसा है:

अ का अर्थ है--अक्षरत्व को उपलब्ध कर लेना; जो कभी मिटे नहीं;जो सदा है।

क्षण-भंगुर है संसार--अक्षर है परमात्मा। क्षण-भंगुर को छोड़कर शाश्वत की डोर पकड़ लेनी। शाश्वत का आंचल जिसके हाथ में आ गया, वही अवधूत। यह अवधूत के अ का अर्थ है।

हम तो पकड़े हैं--पानी के बुदबुदों को; पकड़ भी नहीं पाते कि फूट जाते हैं। हम तो दौड़ते हैं मृग-मरीचिका के पीछे। बार-बार हारते हैं, फिर-फिर उठते हैं, फिर-फिर दौड़ते हैं। हम अपनी हारों से कुछ सीखते नहीं। क्षण-भंगुर का भ्रम हम पर बहुत गहरा है। 

माया से जो जागे--क्षण की माया से जो जागे, वही अवधूत। यह पहला अर्थ। व का अर्थ है जो वरण करे अक्षर को--बात ही न करे। जो अक्षर को सोचे ही नहीं--जिये। जो अमृत को चिन्मय में नहीं--जीवन में जाने। जिसकी श्वास-श्वास में अक्षर का वरण हो जाए। पंडित न बन जाए, प्रज्ञावान बने।

यह दूसरों की उधार बात न हो--कि अक्षर है। यह अपना निज अनुभव हो; यह स्व-अनुभूति हो।

परमात्मा की बात तो बहुत करते हैं लोग; परमात्मा पर किताबें लिखी जाती हैं, लेकिन जो बड़ी बड़ी किताबें भी लिखते हैं परमात्मा पर, उनके जीवन में भी खोज कर परमात्मा की किरण शायद ही मिले।

परमात्मा का सिद्धांत मनोरम है, और उस सिद्धांत में बड़ी सुविधाएं हैं, और उस सिद्धांत को फैलाने के लिए काफी उपाय हैं। लेकिन अनुभव? अनुभव महंगी बात है; सिद्धांत सस्ती बात है।

परमात्मा को वरण तो वही करे, जो अपने को मिटाने को राजी हो। कहा कबीर ने--घर फूंकै जो आपना, चलै हमारे साथ। जिसकी तैयारी हो, आपने को राख कर लेने की, वही उसे वरण करे। उसके वरण करने में अहंकार का त्याग समाविष्ट है। छोड़ोगे अपने को, तो उसे पा सकोगे।

इसलिए अवधूत का दूसरा अर्थ है: अक्षर की बात ही न करे, अक्षर जिसके रोयें-रोयें में, श्वास-श्वास में समाया हो; अक्षर जिसकी सुगंध हो गया हो, जिसके जीवन का छंद हो गया हो।

और धू का अर्थ है: संसार को धूल समझे, असार समझे, ना-कुछ समझे। और यह समझ ऊपर-ऊपर न हो। यह समझ ऐसी न हो कि समझे तो ऊपर-ऊपर कि धूल है और भीतर-भीतर धूल को पकड़े। यह समझ वस्तुतः हो। यह परिधि से लेकर केंद्र तक फैल जाए। यह प्राणों के प्राण में समाविष्ट हो जाए। यह समझ जागने में रहे; उठने-बैठने में रहे; मंदिर में रहे, बाजार में रहे; हर घड़ी रहे। यह तुम्हारी छाया की तरह हो जाए--कि संसार धूल है। यह अवधूत का तीसरा अर्थ है। और स्वभावतः जो जानेगा कि परमात्मा सत्य है, वह जान ही लेगा कि संसार धूल है। ये दोनों बातें एक साथ घटती हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

तो संसार को धूल समझे--वह अवधूत।

और चौथा अर्थ है: तत्वमसि; त का अर्थ है--तत्वमकस। जो ऐसा ही न समझे कि मैंने परमात्मा को जाना, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा को जीता हूं, जो ऐसा ही न समझे कि मैं परमात्मा हूं, बल्कि समझे कि सभी--प्रत्येक परमात्मा है। जो प्रत्येक को कह सके कि तुम भी वही हो। 

नहीं तो परमात्मा का अनुभव भी बड़ा अहंकार का आधार बन सकता है। मैं कहूं कि मैं परमात्मा हूं, तुम परमात्मा नहीं हो, तो यह खबर होगी कि मैं अवधूत नहीं। जो कहे: मैं परमात्मा हूं और दूसरा परमात्मा नहीं, उसे कुछ भी नहीं दिखा; उसकी आंखें अंधी हैं; उसके कान बहरे हैं। उसने न सुना है, न देखा है। उसने परमात्मा के सहारे अपने अहंकार की यात्रा शुरू कर दी है।

तो अवधूत का चौथा अर्थ है--तत्वमसि --तुम भी वही हो। और तुममें--ध्यान रहे--सब समाविष्ट है; पत्थर-पहाड़, वृक्ष-पौधे-पक्षी, स्त्री-पुरुष सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है। यह जो त्वम् है, यह जो तू है, इस तू में मुझसे अतिरिक्त सब समाविष्ट है।

तो मैं परमात्मा हूं--ऐसा जो जाने और साथ ही ऐसा भी जाने कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है--ऐसी चित्त-दशा का नाम है अवधूत। यह शब्द बड़ा प्यारा है।

_कन थोरे कांकर घने_

_ओशो_

Sunday, May 14, 2017

'ध्यान' तपश्चर्या में कितना सहयोगी है?

ध्यान ही तपश्चर्या है। आज मैंने सुबह या कल रात चर्चा भी किया। तपश्चर्या का हमको जो अर्थ पकड़ गया है, हमको मोटे अर्थ बहुत जल्दी पकड़े जाते हैं। जैसे, अभी मैं वहां गया, वहां इस पर बात हो रही थी--महावीर के उपवास, महावीर की तपश्चर्या महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक तपश्चर्या की। हमको लगता है तपश्चर्या की और मुझको लगता है तपश्चर्या हुई। और की और हुई में मैं बहुत फर्क कर लेता हूं।

एक साधु मेरे पास थे। वह मुझसे कहे कि मैं बड़े उपवास करता हूं। मैंने कहा, तुम जब तक उपवास करते हो, तब तक तपश्चर्या नहीं है। जब उपवास हो तब वह तपश्चर्या है। बोले, उपवास कैसे होगा? हम नहीं करेंगे तो होगा कैसे? हम करेंगे तभी तो होगा! मैंने उनसे कहा कि तुम ध्यान का थोड़ा प्रयोग करो तो अचानक कभी-कभी पाओगे कि उपवास हो गया। फिर बाद में, छह महीने बाद में वे मेरे पास गाए--हिंदू साधु थे--और उन्होंने कहा, जिंदगी मग पहली दफा एक उपवास हुआ। मैं सुबह पांच बजे उठकर ध्यान करने बैठा, उस वक्त अंधेरा था। जब मैंने वापस आंख खोली तो मैं समझा, अभी सुबह नहीं हुआ क्या? पूछने पर पता चला, रात हो गयी है। पूरा दिन बीत गया, मुझे तो समय का पता है, न किसी और बात का। उस दिन भोजन नहीं हुआ। उन्होंने मुझे आकर कहा, एक उपवास मेरा हुआ।

इसको मैं उपवास कहता हूं। हम जो करते हैं, वह अनाहार है, उपवास नहीं है। वह भोजन न करना है। यह उपवास है। उपवास का अर्थ है, उसके निकट वास। वह आत्मा के निकट वास है। उस वास में भोजन का स्मरण नहीं आएगा। तो, वह तो हुआ उपवास। और एक है अनाहार कि तुम खाना न खाएं। उसमें भोजन भोजन का ही स्मरण आएगा। वह तपश्चर्या की हुई, यह तपश्चर्या अपने से हुई। महावीर ने तपश्चर्या की नहीं, यह बात ही भ्रांत है। या कोई कभी तपश्चर्या करता है? सिर्फ अज्ञानी तपश्चर्या करते हैं। ज्ञानियों से तपश्चर्या होती है।

होने का अर्थ यह है कि उनका जीवन, उनकी पूरी चेतना कहीं ऐसी जगह लगी हुई है जहां बहुत सी बातों का हमें खयाल आता है, वह उन्हें नहीं आता। हम सोचते हैं कि वे त्याग कर रहे हैं और उनके कई बात यह है कि उनको स्मरण भी नहीं आ रहा। हम सोचते हैं उन्होंने बड़ी बहुमूल्य चीजें छोड़ दी। हम सोचते हैं, उन्होंने बड़ा कष्ट सहा। और वह हमारा मूल्यांकन में, भेद असल वैल्युएशन में हमारे और उनके अलग हैं। जिस चीज को महावीर सार्थक समझते हैं, हम उसे व्यर्थ समझते हैं। जिसको वे व्यर्थ समझते हैं, हम सार्थक सकते हैं। तो तब हम उनको हमारी दृष्टि से सार्थक को छोड़ते देखते हैं तो हम सोचते हैं, कितना कष्ट झेल रहे हैं, कितनी तपश्चर्या कर रहे हैं! और उनकी कई स्थिति बिलकुल दूसरी है। जो व्यर्थ है वह छूटता चला जा रहा है। 

महावीर ने घर छोड़ा--हां वह बिलकुल सहज छूट रहा है। तपश्चर्या करनी नहीं है, केवल ज्ञान को जगाना है। जो जो व्यर्थ है वह छूटता चला जाएगा। और दूसरों को देखेगा कि आप तपश्चर्या कर रहे हैं और आपका दिखेगा कि आप निरंतर ज्यादा आनंद को उपलब्ध होते चले जा हरे हैं। दूसरों को दिखेगा, बड़ा कष्ट सह रहे हैं और आपको दिखेगा हम तो बड़े आनंद को उपलब्ध होते चले जा रहे हैं। धीरे-धीरे आपको दिखेगा, मैं तो आनंद को उपलब्ध हो रहा हूं, दूसरे लोग कष्ट भोग रहे हैं। और दूसरों को यही दिखेगा कि आप कष्ट उठा रहे हैं और वे आपके पैर छूने आएंगे और नमस्कार करने आएंगे कि आप बड़ा भारी कार्य कर रहे हैं। 

तपश्चर्या दूसरों को दिखाती है, स्वयं को केवल आनंद है। और अगर स्वयं को तपश्चर्या दिखती है तो अज्ञान है, और कुछ नहीं है। वह पागलपन कर रहा है और अगर उसको स्वयं को दिखता है कि मैं बड़ा तप कर रहा हूं और बड़ी तपश्चर्या और बड़ी कठिनाई तो वह बिलकुल पागल है, वह नाहक परेशान हो रहा है। और उसमें केवल उसका दंभ विकसित होगा, आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। 

_अमृत द्वार_

_ओशो_