Sunday, July 24, 2016

मैं बहुत दुखी हूं, मुझे मार्ग दिखाएं !



दुखी कौन नहीं है? सभी दुखी हैं। और मार्ग भी एक है।
दुखी हो इसलिए कि जो है उससे भी राजी नहीं होते। क्या कारण है दुख का? इतना ही कारण है कि जो है उससे राजी नहीं होते; कुछ और होना चाहिए। जहां हो वहां राजी नहीं होते; कहीं और होना चाहिए। जैसे हो वैसे से राजी नहीं होते; कुछ और रूप होना चाहिए। सदा सपना देखते हो। सपने के कारण दुखी हो।
सपनों को जाने दो। जिस दिन सपने चले जाते हैं, उसी दिन सुख उतर आता है। सुख सपनों के अभाव में उतरता है। मांगो मत। कहो मत कि क्या होना चाहिए। जैसा है, जो है—इससे अन्यथा न हो सकता है, न होगा। इससे राजी हो जाओ। इसके साथ आनंदित हो जाओ—जैसा है। फिर कैसा दुख?
दुख तुम्हारी आकांक्षा के कारण है। दस हजार रुपये तुम्हारे पास हैं—क्या दुख है दस हजार रुपये में? दस हजार रुपये में दुख कैसे हो सकता है? होगा तो कुछ सुख ही होगा, दुख कैसे हो सकता है? लेकिन पड़ोसी के पास बीस हजार हैं, यह दुख है। तुम्हारे पास भी बीस हजार रुपये होने चाहिए, यह दुख है।
मैं एक घर में मेहमान होता था। बड़े धनपति थे। मुझे लेने एयरपोर्ट आए थे। उनकी पत्नी भी साथ थी। कुछ उदास से लगे। मुझे जब भी लेने आते थे तो कभी उदास उन्हें देखा नहीं था। कम से कम मैं जब तक रहता था उनके घर, तब तक वे प्रसन्न रहते थे। उस दिन उदास थे। मैंने पूछा: बात क्या है? उनकी पत्नी बोली। उनकी पत्नी ने कहा: अब आप न ही पूछें तो अच्छा है। इनके हिसाब से पांच लाख का नुकसान लग गया है। मैंने पूछा: इनके हिसाब से? उसने कहा: हां, इनके हिसाब से। मेरे हिसाब से पांच लाख का लाभ हुआ है। मैंने पूछा: मामला क्या है? पति बोले कि यह अपनी ही जिद्द हांके चली जाती है। इधर मुझे पांच लाख की हानि हो गई है, यह अपनी ही लगाए चली जाती है।
मैंने पूछा कि मुझे पूरी बात कहें। उन्होंने कहा कि बात यह है कि कोई धंधा किया था। दस लाख मिलने की आशा थी, पांच ही लाख मिले। दस लाख मिलने का पक्का ही था, आशा ही नहीं थी। मिलने ही चाहिए थे, और नहीं मिले। पांच ही लाख मिले।
अब कौन ठीक कह रहा है? दोनों ही ठीक कह रहे हैं। पांच लाख नहीं मिले तो दुख हो रहा है। पांच लाख मिले, उनका सुख भी गंवाया जा रहा है। जो नहीं मिले, उनके कारण जो मिले हैं, उनका सुख भी नहीं भोग पा रहे हो।
जीवन को देखने का ढंग बदलो। तुम्हारी व्याख्या में कहीं भूल है। कहीं तुम्हारी दृष्टि में भूल है। जो है वह बहुत है। अहोभाग्य! जितना है उसका रस लो। तो रूखी—सूखी रोटी भी परम भोग हो जाती है। और नहीं तो परम भोग भी पड़े रहते हैं सामने, तुम उदास बैठे देखते रहते हो; भूख ही नहीं लगती। भूख लगे तो कैसे लगे? तुम्हारी कल्पनाएं आकाश छूती रहती हैं। छूती हुई आकाश को जो कल्पनाएं हैं, उनके कारण तुम बिलकुल कीड़े—मकोड़े की तरह मालूम पड़ते हो, जमीन पर रेंगते हुए—उनकी तुलना में। यह तुलना की भ्रांति है।
सभी दुखी हैं, क्योंकि सभी वासनातुर हैं। तुम जहां हो, जैसे हो, जरा उसे तो देखो! वर्तमान के इस क्षण में कहां दुख है? या तो दुख अतीत से आता है। कल किसी ने गाली दी थी, अब तुम अभी तक दुखी हो रहे हो; न गाली रही, न गाली देने वाला रहा। गंगा में कितना पानी बह गया! अब तुम बैठे गाली लिए: कल एक आदमी गाली दे गया। अब तुम उसी की उधेड़बुन कर रहे। गाली को फिर—फिर सोच रहे। इधर से, उधर से सजा रहे, संवार रहे। घाव में और अंगुलियां चला रहे। घाव को भरने नहीं दे रहे। फिर—फिर बैठ जाते हो कि अरे! उसने गाली दी। लेटते, करवट लेते और गाली। ऐसा क्यों हुआ? क्यों उसने गाली दी? कैसे बदला लूं? क्या करूं? क्या न करूं?
या तो दुख अतीत से आता है, या भविष्य से। कल सुख मिलेगा या नहीं मिलेगा? कैसे आयोजन करूं? कल महल में कैसे मेरा प्रवेश हो? कल कैसे साम्राज्य मेरे हो जाएं? और डर लगता है कि हो नहीं पाएंगे। क्योंकि पहले भी तो तुम ऐसे ही सोचते रहे थे कई कल आए और गए और राजमहल तुम्हारे न हुए। तो अब भी क्या है कि कल हो जाएंगे राजमहल तुम्हारे? इतने कल आकर धोखा दे गए, यह कल भी उसी पंक्ति में जाएगा। तो घबड़ाहट लगती है। भय होता, दुख होता है। लेकिन कभी सोचा—इस क्षण में—जो न तो अतीत से आक्रांत है और न भविष्य से आंदोलित—कहीं दुख है? दुख पाया है कभी इस क्षण में?
तुम कहोगे: हां, कभी—कभी होता है। सिर में दर्द हो रहा हो, फिर? या पैर में कांटा गड़ा हो, फिर?
मैं तुमसे कहना चाहूंगा: जब सिर में दर्द हो रहा हो तब भी तुम शांति से बैठ जाओ, सिर के दर्द को स्वीकार कर लो। राजी हो जाओ। दर्द को अलग मत रखो। ऐसे दूर खड़े मत रहो कि मैं अलग, और यह रहा दर्द। दर्द है तो दर्द है। तो तुम दर्द हो। तो एक हो जाओ। डूब जाओ सिरदर्द में। स्वीकार कर लो। और तुम चकित हो जाओगे। तुम्हारे हाथ में एक कुंजी लगेगी उस दिन। तुम पाओगे: जितना तुम राजी हो जाते, उतना दर्द कम हो जाता। सिरदर्द नाराजगी है। सिरदर्द बेचैनी है, तनाव है। जैसे तुम राजी होने लगते…सिरदर्द से भी राजी हो गए, कि ठीक, चलो, दुआओं का असर है! परमात्मा ने भेजा, कुछ मतलब होगा। ऐसे अकारण तो भेज नहीं देगा। तुमको ही भेजा, इतना खयाल रखा। इतने सिर हैं—और दर्द तुमको भेजा! मतलब होगा। तुम पर विशेष कृपा है। दुआओं का असर है। स्वीकार कर लो, झुक जाओ।
और तुम चकित होओगे: जैसे—जैसे तुमने स्वीकार किया वैसे—वैसे दर्द कम हुआ। और अगर स्वीकृति परिपूर्ण हो जाए, सौ प्रतिशत, उसी क्षण दर्द खो जाएगा। तुम करके देखो! और उस दिन तुम पाओगे कि दुख को मिटाने की कला तुम्हारे हाथ में है।

Thursday, July 7, 2016

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