Wednesday, January 1, 2020

नया साल ओशो की नजर से....

मुझसे कहते हैं मित्र कि नये वर्ष के लिए कुछ कहूं। नये वर्ष के लिए मैं कुछ न कहूंगा। क्योंकि आप ही तो नया वर्ष फिर जीएंगे, जिन्होंने पिछला वर्ष पुराना कर दिया; आप नये वर्ष को भी पुराना करके ही रहेंगे।आपने न मालूम कितने वर्ष पुराने कर दिए!

आप पुराना करने में इतने कुशल हैं कि नया वर्ष बच न पाएगा, इसकी उम्मीद बहुत कम है। आप इसको भी पुराना कर ही देंगे। और एक वर्ष बाद फिर इकट्ठे होंगे और फिर सोचेंगे, नया वर्ष। ऐसा आप कितनी बार नहीं सोच चुके हैं! लेकिन नया आया नहीं! क्योंकि आपका ढंग पुराना पैदा करने का है।

नये वर्ष की फिकर न करें। नये का कैसे जन्म हो सकता है, इस दिशा में थोड़ी सी बातें सोचें और थोड़े प्रयोग करें। तो तीन बातें मैंने आपसे कहीं। एक तो पुराने को मत खोजें। खोजेंगे तो वह मिल जाएगा, क्योंकि वह है। हर अंगारे में दोनों बातें हैं। वह भी है जो राख हो गया अंगारा, बुझ गया जो; जो अंगारा बुझ चुका है, जो हिस्सा राख हो गया, वह भी है, और वह अंगारा भी अभी भीतर है जो जल रहा है, जिंदा है; अभी है, अभी बुझ नहीं गया। अगर राख खोजेंगे, राख मिल जाएगी।

जिंदगी बड़ी अद्भुत है, उसमें खोजने वालों को सब मिल जाता है।वह आदमी जो खोजने जाता है उसे मिल ही जाता है।और जो आपको मिल जाता हो, ध्यान से समझ लेना कि आपने खोजा था इसीलिए मिल गया है। और कोई कारण नहीं है उसके मिल जाने का। नया अंगारा भी है, वह भी खोजा जा सकता है।

तो पहली बात, पुराने को मत खोजना। कल सुबह से उठ कर थोड़ा एक प्रयोग करके देखें कि पुराने को हम न खोजें। कल जरा चैक कर अपनी पत्नी को देखें जिसे तीस वर्ष से आप देख रहे हैं। शायद आपने तीस वर्ष देखा ही नहीं फिर। हो सकता है पहले दिन जब आप लाए थे तो देख लिया होगा, फिर बात समाप्त हो गई। फिर आपने देखा नहीं। और अगर अभी मैं आपसे कहूं कि आंख बंद करके जरा पांच मिनट अपनी पत्नी का चित्र बनाइये मन में, तो आप अचानक पाएंगे कि चित्र डांवाडोल हो जाता है, बनता नहीं।

क्योंकि कभी उसकी रेखा भी तो अंकित नहीं हो पाई। हालांकि हम चिल्लाते रहते हैं कि इतना प्रेम करते हैं, इतना प्रेम करते हैं। वह सब चिल्लाना भी

इसीलिए है कि प्रेम नहीं करते, शोरगुल मचा कर आभास पैदा करते रहते हैं। वह आभास हम पैदा करते रहे हैं।

तो कल सुबह उठ कर नये की थोड़ी खोज करिए। नया सब तरफ है, रोज है, प्रतिदिन है। और नये का सम्मान करिए, पुराने की अपेक्षा मत करिए। हम अपेक्षा करते हैं पुराने की। हम चाहते हैं कि जो कल हुआ वह आज भी हो। तो फिर आज पुराना हो जाएगा। जो कभी नहीं हुआ वह आज हो, इसके लिए हमारा खुला मन होना चाहिए कि जो कभी नहीं हुआ वह आज हो। हो
सकता है वह दुख में ले जाए।

लेकिन मैं आपसे कहता हूं, पुराने सुखों से नये दुख भी बेहतर होते हैं, क्योंकि नये होते हैं। उनमें भी एक जिंदगी और एक रस होता है। पुराना सुख भी
बोथला हो जाता है, उसमें भी कोई रस नहीं रह जाता। इसलिए कई बार ऐसा होता है कि पुराने सुखों से घिरा आदमी नये दुख अपने हाथ में ईजाद करता है, खोजता है।

वह खोज सिर्फ इसलिए है कि अब नया सुख नहीं मिलता तो

नया दुख ही मिल जाए। आदमी शराब पी रहा है, वेश्या के घर जा रहा है। यह नए दुख खोज रहा है। नया सुख तो मिलता नहीं, तो नया दुख ही सही। कुछ तो नया हो जाए। नये की उतनी तीव्र प्राणों की आकांक्षा है। लेकिन हम पुराने की अपेक्षा वाले लोग हैं।

इसलिए दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं: पुराने की अपेक्षा न करें। और कल सुबह अगर पत्नी उठ कर छोड़ कर घर जाने लगे, तो एक बार भी मत कहें कि अरे तूने तो वायदा किया था। कौन किसके लिये वायदा कर सकता है तब उसे चुपचाप घर से विदा कर आएं। जिस प्रेम से उसे ले आए थे, उसी प्रेम से विदा कर आएं। यह विदा भी स्वीकार कर लें, नये की सदा संभावना है। पत्नी चैबीस घंटे पूरी जिंदगी के साथ रहेगी, यह जरूरी क्या है? रास्ते मिलते हैं और अलग हो जाते हैं। मिलते वक्त और अलग होते वक्त इतना परेशान होने की बात क्या है?

लेकिन नहीं, बड़ा मुश्किल है विदा होना। क्योंकि हम कहेंगे कि जो पुराना था उसे थिर रखना है। सब पुराने को थिर रखना है। नया जब आए तब उसे स्वीकार करें, पुराने की आकांक्षा न करें।

तीसरी बात: कोई और आपके लिए नया नहीं कर सकेगा; आपको ही करना पड़ेगा। और ऐसा नहीं है कि आप पूरे दिन को नया कर लेंगे या पूरे वर्ष को नया कर लेंगे, ऐसा नहीं है, एक-एक कण, एक-एक क्षण को नया करेंगे तो अंततः पूरा दिन, पूरा वर्ष भी नया हो जाएगा।*

जीवन रहस्य

ओशो

Sunday, December 22, 2019

कौन तुम्हारा मित्र है? सभी स्वार्थ के लिये जीते है...

*कौन तुम्हारा मित्र है?*

किसको तुम अपना मित्र कहते हो?

क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं।

जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़ा है और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उससे जुड़े हो।

अगर मित्र वक्त पर काम न आये तो तुम मित्रता तोड़ दोगे। बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये। लेकिन क्यों? वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा करे।

लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो। लेकिन तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को यह कैसी मित्रता है? तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो; यह कैसा संबंध है? सब संबंध स्वार्थ के हैं।

पिता बेटे के कंधे पर हाथ रखे है, बेटा पिता के चरणों में झुका है, सब संबंध स्वार्थ के हैं। और जहां स्वार्थ महत्वपूर्ण हो वहां संबंध कैसे? लेकिन मन चाहता है; अकेले होने में डर पाता है, इसलिये मन चाहता कि कोई संगी-साथी हो।

संगी-साथी हमारे मन की कल्पना है, क्योंकि अकेले होने में हम भयभीत हो जाएंगे। सब से बड़ा भय है अकेला हो जाना, कि मैं बिलकुल अकेला हूं।

तो हम विवाह करते हैं, किसी स्त्री को पत्नी कहते हैं, किसी पुरुष को पति कहते हैं, किसी को मित्र बनाते हैं। थोड़ा-सा एक आसपास संसार खड़ा करते हैं। उस संसार में हमें लगता है कि अपने लोग हैं, यह अपना घर है।

लेकिन जो भी थोड़ा-सा जागेगा वह पायेगा कि इस संसार में बेघर-बार होना नियति है। यहां घर धोखा है। हम यहां बेघर हैं।

बुद्ध अपने भिक्षुओं को अनेक नाम दिये हैं, उनमें एक नाम है 'अगृही'--जिसका कोई घर नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी घर में, किसी छप्पर के नीचे न रुकेगा। वह तो बुद्ध को भी कभी वर्षा होती है तो छप्पर के नीचे रुकना पड़ता है। कभी धूप होती है तो छप्पर के नीचे सोना पड़ता है।

मतलब यह है कि जिसका यह बोध टूट गया, यह भ्रांति जिसकी मिट गई कि इस संसार में मेरा कोई घर है। पड़ाव हैं, सरायें हैं; लोग आते हैं और जाते हैं लेकिन यहां कोई ठहरता नहीं।

तुम नहीं थे तब बहुत लोग यहां थे। तुम नहीं होओगे बहुत लोग यहां रहेंगे। यह भीड़ चलती ही रहती है; यह बाजार भरा ही रहता है। तुम हटे नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारी जगह को भर देता है। तुम गये नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारे घर को अपना घर समझ लेता है।

*बिन बाती बिन तेल*

💓ओशो💓

Wednesday, January 16, 2019

सांस और ध्यान... गति

साधारणत: हम एक मिनट में कोई सोलह से लेकर बीस श्वास लेते हैं।

धीरे धीरे— धीरे धीरे झेन फकीर अपनी श्वास को शांत करता जाता है। श्वास इतनी शांत और धीमी हो जाती है कि एक मिनट में पांच.. .चार—पांच श्वास लेता। बस, उसी जगह ध्यान शुरू हो जाता।

तुम अगर ध्यान सीधा न कर सको तो इतना ही अगर तुम करो तो तुम चकित हो जाओगे। श्वास ही अगर एक मिनट में चार—पांच चलने लगे, बिलकुल धीमी हो जाए तो यहां श्वास धीमी हुई, वहां विचार धीमे हो जाते हैं।

वे एक साथ जुड़े हैं। इसलिए तो जब तुम्हारे भीतर विचारों का बहुत आंदोलन चलता है तो श्वास ऊबड़— खाबड़ हो जाती है। जब तुम पागल होने लगते हो तो श्वास भी पागल होने लगती है। जब तुम वासना से भरते हो तो श्वास भी आंदोलित हो जाती है। जब तुम क्रोध से भरते हो तो श्वास भी उद्विग्न हो जाती है, उच्छृंखल हो जाती है। उसका सुर टूट जाता है।, संगीत छिन्न—भिन्न हो जाता है, छंद नष्ट हो जाता है। उसकी लय खो जाती है।

झेन फकीर कहते हैं, श्वास इतनी धीमी होनी चाहिए कि अगर तुम अपनी नाक के पास किसी पक्षी का पंख रखो तो वह कंपे नहीं। इतनी शांत होनी चाहिए श्वास कि दर्पण रखो तो छाप न पड़े। ऐसी घड़ी आती ध्यान में, जब श्वास बिलकुल रुक गई जैसी हो जाती है।

कभी—कभी साधक घबड़ा जाता है कि कहीं मर तो न जाऊंगा! यह हो क्या रहा है?

घबड़ाना मत, कभी ऐसी घड़ी आए, आएगी ही—जो भी ध्यान के मार्ग पर चल रहे हैं, जब श्वास, ऐसा लगेगा चल ही नहीं रही। जब श्वास नहीं चलती तभी मन भी नहीं चलता। वे दोनों साथ साथ जुड़े हैं।

ऐसा ही पूरा शरीर जुड़ा है। जब तुम शांत होते हो तो तुम्हारा शरीर भी एक अपूर्व शांति में डूबा होता है। तुम्हारे रोएं—रोएं में शांति की झलक होती है। तुम्हारे चलने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बैठने में भी तुम्हारा ध्यान प्रकट होता है। तुम्हारे बोलने में, तुम्हारे सुनने में।

ध्यान कोई ऐसी बात थोड़े ही है कि एक घड़ी बैठ गए और कर लिया। ध्यान तो कुछ ऐसी बात है कि जो तुम्हारे चौबीस घंटे के जीवन पर फैल जाता है। जीवन तो एक अखंड धारा है। घड़ी भर ध्यान और तेईस घड़ी ध्यान नहीं, तो ध्यान होगा ही नहीं। ध्‍यान जब फैल जाएगा तुम्हारे चौबीस घंटे की जीवन धारा पर.......🙏
                 
ओशो

🌷 *अष्ठावक्र महागीता*  🌷

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Friday, December 28, 2018

प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता ।

पहला प्रश्‍न:

मैं तुम्हीं से पूछती हूं? मुझे तुमसे प्यार क्यों है?
कभी तुम जुदा न होओगे, मुझे  यह ऐतबार क्यों है?

पूछा है मा योग प्रज्ञा ने।
प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता। और जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम नहीं है। प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर हेतु होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है।
क्यों का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। इसीलिए नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं। प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।

प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है। मस्तिष्क की होती, तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम हृदय की बात है। वहा क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता।
क्यों है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है—बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय। ऐसा भी नहीं कि किसी दिन जान लोगे।
इसीलिए तो जीसस ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक अकेला अनुभव है, जो परमात्मा के संबंध में थोड़े इंगित करता है। ऐसा ही परमात्मा है—अकारण, अहैतुक। ऐसा ही परमात्मा है—रहस्यपूर्ण। ऐसा ही परमात्मा है, जिसका कि हम आर—पार न पा सकेंगे। प्रेम उसकी पहली झलक है।
क्यों पूछो ही मत। यद्यपि मैं जानता हूं क्यों उठता है। क्यों का उठना भी स्वाभाविक है। आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है। इसी से तो विज्ञान का जन्म हुआ। क्योंकि आदमी हर चीज का कारण खोजना चाहता है कि ऐसा क्यों होता है? जब कारण मिल जाता है, तो विज्ञान बन जाता है। और जिन चीजों का कारण नहीं मिलता, उन्हीं से धर्म बनता है। धर्म और विज्ञान का यही भेद है। कारण मिल गया, तो विज्ञान निर्मित हो जाएगा।
प्रेम का विज्ञान कभी निर्मित नहीं होगा। और परमात्मा विज्ञान की प्रयोगशाला में कभी पकड़ में नहीं आएगा। जीवन में जो भी परम है—सौंदर्य, सत्य, प्रेम—उन पर विज्ञान की कोई पहुंच नहीं है। वे विज्ञान की पहुंच के बाहर हैं। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, गरिमापूर्ण है, वह कुछ अज्ञात लोक से उठता है। तुम्हारे भीतर से ही उठता है। लेकिन इतने अंतरतम से आता है कि तुम्हारी परिधि उसे नहीं समझ पाती। तुम्हारे विचार करने की क्षमता परिधि पर है। और तुम्हारे प्रेम करने की क्षमता तुम्हारे केंद्र पर है।
केंद्र तो परिधि को समझ सकता है। लेकिन परिधि केंद्र को नहीं समझ सकती। क्षुद्र विराट को नहीं समझ सकता; विराट क्षुद्र को समझ सकता है।
प्रेम बड़ी बात है—मस्तिष्क से बहुत बड़ी। मस्तिष्क से ही क्यों—प्रेम तुमसे भी बड़ी बात है। इसीलिए तो तुम अवश हो जाते हो। प्रेम का झोंका जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम का मौसम जब आता है, तुम कहां बचते हो? प्रेम की किरण उतरती है, तुम मिट जाते हो। तुमसे भी बड़ी बात है। तो तुम कैसे समझ पाओगे? तुम तो बचते ही नहीं, जब प्रेम उतरता है। जब प्रेम नाचता हुआ आता है तुम्हारे भीतर, तुम कहां होते हो? खुदी बेखुदी हो जाती है। आत्मा अनात्मा हो जाती है। एक शून्य रह जाता है। उस शून्य में ही नाचती है किरण प्रेम की, प्रार्थना की, परमात्मा की।.           
                                                                                         ओशो

Friday, September 21, 2018

यौन जीवन

धर्मशास्त्रों में वर्णित यौन जीवन -
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          संपूर्ण धर्मशास्त्र धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा पर खड़ा है। यहां पर काम की महत्ता को स्वीकार किया गया है तथा इसका नियमपूर्वक उपभोग करने की स्वीकृति दी गई है।

धर्मशास्त्रों में संभोग या मैथुन एक घृणास्पद वस्तु न होकर नियंत्रित एवं प्रतिबंधित विषय रहा है। इसका लक्ष्य उन्मुक्त एवं वासना पूर्ण यौन जीवन नहीं था।

मैथुनेच्छा की स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियमित करने के लिए श्वेतकेतु का एक आख्यान महाभारत में प्राप्त होता है।

ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम पति- पत्नी के रुप में स्री - पुरुष के संबंधों की नींव डाली।

श्वेतकेतु ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलात् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा।

इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है।

इसमें कोई दोष नहीं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया।

यौन व्यवहार गृहस्थाश्रम के मूल आधार के रूप में प्रतिष्ठ्त होने लगा। यहां विवाह से गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर यौन जीवन का आरंभ होता था।

किसी अन्य प्रकार का यौनाचार अपराध एवं पाप की श्रेणी में माना जाता था। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के यौन जीवन पर सतर्क दृष्टि देखी जाती है। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के साथ यौन संबंध के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है।

धर्मसूत्रों में वर्णित अप्राकृतिक यौनाचार:-

      अप्राकृतिक यौनाचार के बारे में धर्मसूत्रों में पर्याप्त मात्रा में चर्चा मिलती है। उस समय भी मनुष्य अप्राकृतिक क्रिया और असामान्य यौनाचार करता था।

अतः प्रायः सभी धर्मसूत्रों में पुरुष द्वारा किए जाने वाले पशु मैथुन की निंदा की गई है।

इस प्रकार के मैथुन के लिए दंड एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। गौतम ने गाय से यौन सम्बन्ध स्थापित करने वाले के लिए गुरुपत्नी गमन के समान पाप कर्म माना है।

सखीसयोनिसगोत्राशिष्यभार्यासु स्नुषायां गवि च गुरुतल्पसमः।। गौतमीयधर्मशास्त्र 3.23.12

वशिष्ठ ने इसे शुद्र वध के तुल्य माना है। गाय के अतिरिक्त अन्य मादा पशु से दुराचरण हेतु होम का प्रायश्चित निर्धारित किया है।

         अमानुषीषु गोवर्जं स्त्रीकृते कूश्‍माण्डैर्घृतहोमो घृतहोमः। गौतमीय धर्मशास्त्र मिताक्षरा 3.12.36

धर्मसूत्रों में स्त्री की योनि से भिन्न स्थानों पर वीर्य गिराने को मना किया गया। इसे दुष्कर्म और दंडनीय एवं पाप पूर्ण कार्य माना गया है।

वशिष्ठधर्मसूत्र में इस अप्राकृतिक यौनाचार को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो अपनी पत्नी के मुख में मैथुन करता है उसे पितृगण उस माह वीर्य को पीते हैं । पुरुषों के समलिंगी यौन कर्म का भी निषेध किया है।

        यथा स्तेनो यथा भ्रूणहैवमेष भवति यो अयोनौ रेतःसिञ्चति।।

हरदत्त की व्याख्या।

इस प्रकार हम पाते हैं कि वैदिक काल से ही मानव उन्मुक्त यौन व्यवहार करता था। वेद तथा वेदोत्तर काल के स्मृतिशास्त्र, धर्मसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यौन जीवन का आरंभ माता और पिता के द्वारा कन्यादान करने के पश्चात् शुरू होता है।

पुत्र पैदा करने तथा स्त्री सहवास के नियमों के विस्तार इतना अधिक होता चला गया कि स्त्री भोग्या की श्रेणी में आ गयी। हो सकता है कि इस समय आते आते ये ग्रन्थ भी सांस्कृतिक रूप से प्रदूषित होने लगे हों।

वशिष्ठधर्मशास्त्र ने तो स्त्री में मैथुन की अद्भुत क्षमता होती है तक कह डाला। वे आगे कहते हैं कि इंद्र द्वारा उसे इस हेतु वरदान दिया है और प्रसव के 1 दिन पूर्व भी वह अपने पति के साथ शयन कर सकती है।

अपि च काठके विज्ञायते । अपि नः श्वो विजनिष्यमाणाः पतिभिः सह शयीरन्निति स्त्रीणामिन्द्र दत्तो वर इति। 12.24

इससे सिद्ध होता है यौनेच्छा की तृप्ति या यौनचर्या का दायरा अब केवल संतान उत्पत्ति तक ही सीमित नहीं रह गया था।

गौतम, आपस्तम्ब जैसे कुछ ऋषियों ने यौन प्रवृत्ति की स्वाभाविकता को समझा और वह भोग करने के लिए निषेध के दिनों को छोड़कर किसी भी काल में पत्नी से यौन संबंध स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। आपस्तम्ब ने भी ऋतुकाल के मध्य भी पत्नी की इच्छा को देखकर संभोग करने की अनुमति देते हैं।

धर्मसूत्र पत्नी गमन का आदेश देते हुए कहता है कि जो पुरुष मासिक धर्म हुए पत्नी से 3 वर्ष तक सहवास नहीं करता वह भ्रूण हत्या का के पाप का भागी होता है। जो पुरुष जिसके रजोदर्शन के उपरांत १६ दिन न बीतें हों और फलतः गर्भ-धारण के योग्य हो ऐसी पत्नी के निकट रहते हुए भी उस से संभोग नहीं करता, उसके पूर्वज उसकी पत्नी के रज में ही पड़े रहते हैं।

    त्रीणि वर्षाण्ययृतुमतीं यो भार्यां नोधिगच्छति।
     स तुल्यं भ्रूणहत्यायै दोषमृच्छत्यसंशयम्।।
     ऋतुस्नाता तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति।
     पितरस्तस्य तन्मासं तस्मिन् रजसि शेरते।।         बौधायन धर्मसूत्र 4.1.23

विष्णु धर्मसूत्र ने पर्वों एवं पत्नी की अस्वस्थता के दिन को छोड़कर अन्य दिनों में संभोग न करने पर 3 दिन के उपवास का प्रायश्चित बताया है।

संतान उत्पत्ति के इस पवित्र कर्तव्य पालन में सहयोग न देने वाली पत्नी के लिए बौधायन धर्मसूत्र ने सामाजिक तिरस्कार एवं परित्याग का भी विधान किया है।

जो स्त्री पति की इच्छा रहते हुए भी पति के साथ सहवास नहीं करती है और औषधि द्वारा संतान उत्पत्ति में बाधा पहुंचाती है उसे गाँव के लोगों के समक्ष भ्रूण को मारने वाली घोषित कर घर से निकाल देने का विधान किया।

- पुराणिक पुस्तकों से लिया गया विचार।
साभार : ओशो विचार मंच

Friday, September 14, 2018

एक मां और और दूत story#जो होना है वही होगा...

मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां–एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं–तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं–छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर–क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो–जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए–वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है–मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता–क्योंकियह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं…।दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।नानक जो कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।
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